दुनियादारों से परे है यह दीवानगी.. महाराष्ट्र में समर्थ रामदास एक महान संत हो गये । वे नासिक के रामघाट क्षेत्र में रहते थे । उनके प्रमुख शिष्यों में से एक थे - कल्याण स्वामी । गुरु के प्रति उनमें दृढ श्रद्धा, भक्ति, निष्ठा एवं समर्पण-भाव था । इस कारण वे अपने गुरु के बहुत ही प्रिय थे । इससे समर्थ के अन्य शिष्यों को उनसे बहुत ईष्र्या होती थी । द्वेषभाव से प्रेरित होकर वे आपस में कल्याण की ही चर्चा किया करते थे । वे कहते कि ‘‘समर्थ तो कल्याण को ही अपनी सेवा देते हैं । बार-बार उसे ही बुलाते हैं, हमको तो बोझा उठानेवाले बैल जितनी भी कीमत नहीं देते । यह बात जब समर्थ तक पहुँची तो उन्होंने अपने सभी शिष्यों की परीक्षा लेने का निश्चय किया । उन्होंने नागरबेल के पत्ते (जिससे पान का बीडा बनाते हैं) छुपा लिये और कल्याण के अतिरिक्त अन्य सभी शिष्यों को मध्यरात्रि के समय नींद में से जगाकर कहा : ‘‘मुझे बीडा कूटकर दो । समर्थ के श्रीमुख से उपरोक्त आज्ञा पाकर उनकी दुर्लभ निजी सेवा के स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाने के लिए सभी शिष्य भागदौड करने लगे । कोई पानी रखने के लिए बर्तन ले आया, कोई पानी ले आया तो कोई सिलबट्टा ले आया, फिर पता चला कि पत्ते तो हैं ही नहीं । एक शिष्य ने समर्थ से कहा : ‘‘महाराज ! पत्ते तो नहीं है फिर कैसे कूटें ? समर्थ ने कहा : ‘‘नहीं हैं तो क्या हुआ ? कहीं तो बेल होगी ! जंगल में जाओ और अभी पत्ते लेकर आओ । यह सुन सब एक-दूसरे की ओर देखने लगे । सबके मन में यह प्रश्न उठा कि ‘आधी रात को पत्ते लेने के लिए हिंसक पशुओं से भरे हुए जंगल में कौन जाय ? एक शिष्य ने कहा : ‘‘महाराज ! अब रात हो गयी है । हम सुबह उठते ही सबसे पहले पत्ते लाने का ही काम करेंगे । समर्थ ने कहा : ‘‘अरे ! तुम सुबह पत्ते लाओगे लेकिन मुझे बीडा तो अभी चाहिए, उसका क्या ? शिष्य : ‘‘वैसे देखा जाय तो अभी पत्ते लाने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन रात में बेल को कैसे छुएँ ? समर्थ समझ गये की सभी शिष्य जी चुरा रहे हैं । उन्होंने कल्याण को जगाया । समर्थ ने इतना ही कहा : ‘‘कल्याण ! नागरबेल के पत्ते खत्म हो गये हैं । बस, इतना सुनते ही कल्याण ने खडाऊँ पहनीं और पत्ते लाने के लिए जंगल की ओर चल पडे । शिष्य आपस में बोलने लगे : ‘‘इतने बैरागी, अनासक्त होकर भी महाराज से इस मध्यरात्रि में बीडा खाने का मोह छूट नहीं रहा है । व्यसन ऐसा ही होता है । यह कल्याण भी देखो, कैसा दीवाना है उनका ! कम-से-कम हमारा पक्ष तो लेता । समर्थ ने आज्ञा दी और चल पडा । अपनी कुछ बुद्धि या तर्कशक्ति ही नहीं है इसमें । इस प्रकार आपस में कानाफूसी चल रही थी । इतने में समर्थ आये और बोले : ‘‘अरे ! तुम यहाँ बातों में लगे हो और उधर कल्याण की क्या दशा हुई है, उसका कुछ विचार भी है तुम लोगों के मन में ? अभी-अभी कल्याण की आर्त पुकार मुझे सुनायी पडी है । चलो उठो और मशाल जलाओ । हम सब मिलकर कल्याण के पास जायें । शिष्य तुरंत उठे और समर्थ के साथ चल पडे । कुछ दूर जाने पर उन्होंने देखा कि कल्याण बेहोश पडा है । पास में ही वह नाग फन फैलाकर बैठा था, जिसने कल्याण को डँसा था । समर्थ उस नाग पर क्रोधित हो गये और बोले : ‘‘हम अहिंसक लोगों को तू क्यों परेशान करता है ? रहना हो तो सीधा बनकर रह, नहीं तो चला जा यहाँ से। यह सुनते ही नाग ने समर्थ की तीन परिक्रमा की और अपना फन समर्थ के पैर के अँगूठे पर तीन बार झुकाया और चला गया । समर्थ ने कल्याण के सिर पर प्यार से हाथ घुमाया । कल्याण होश में आ गया और उठते ही पत्ते लाने के लिए जाने लगा । समर्थ ने पूछा : ‘‘कल्याण ! कहाँ जा रहा है ? कल्याण ने कहा : ‘‘गुरुदेव ! आपके द्वारा दी गयी सेवा अभी पूरी नहीं हुई है । समर्थ ने कहा : ‘‘अरे कल्याण ! पत्तों की जरूरत नहीं है । अपने पान के डिब्बे में बहुत सारे पत्ते पडे हैं । उनको निमित्त बनाकर मैंने तुम्हारी और इन सबकी परीक्षा ली है । सभी शिष्यों की ओर निहारते हुए समर्थ ने कहा : ‘‘अब तो तुम लोगों का भ्रम दूर हो गया होगा । तुम लोगों में और कल्याण में यही फर्क है कि तुम अपनी देह को ही सर्वस्व मानते हो, लेकिन कल्याण तो देहसहित अपना सर्वस्व गुरुचरणों में अर्पित कर चुका है, न्योछावर कर चुका है । धन्यवाद है ऐसे गुरुभक्तों को ! धन्यवाद है उनको जन्म देनेवाले माता-पिता को ! धन्यवाद है उनके कुल-गोत्र को ! धन्यवाद है भारत की इस धरा को, जिस पर समग्र धरती को अपने दिव्य गुणों से युक्त पावन चरित्रामृत से, आत्मिक प्रेम के स्पंदनों से पावन करनेवाली ऐसी दिव्य आत्माओं का अवतरण होता रहता है... हम कितने भाग्यशाली हैं कि हमें ऐसी पुण्यभूमि भारतवर्ष में जन्म लेने का महद्भाग्य मिला है । स्वरूपज्ञान एवं शाश्वत सुख की जो कुंजी है उस गुरुकृपा के लिए छटपटानेवाले, गुरुचरणों में अपना सर्वस्व न्योछावर करनेवाले, निःस्वार्थ प्रेम के जीते-जागते स्वरूप - ऐसे अनोखे पथिकों की कथाएँ पढने-सुनने का पुण्यमय सुअवसर मिला है । दिल को दिलबर से मिलानेवाले आत्मनिष्ठ सद्गुरुओं का सत्संग एवं उनकी शिक्षा-दीक्षा पाने का परम सौभाग्य प्राप्त हो रहा है । (लोक कल्याण सेतु : जून २००४)