चैतन्य महाप्रभु का सद्गुरु-प्रेम। एक समय चैतन्य महाप्रभु मथुरा पधारे । उन्होंने विश्राम घाट पर पहुँचकर यमुनाजी में स्नान किया । फिर हुंकार देकर बाहर निकले और गीले वस्त्रों में ही कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे । जो भी वहाँ आता, तेज-ओज व आत्मानंद से संपन्न महाप्रभु की ओर स्वाभाविक ही आकृष्ट हो जाता और देखते-देखते वह भी ‘कृष्ण-कृष्ण कहकर कीर्तन करने लगता । कुछ ही समय में वहाँ हजारों आदमियों की भीड इकट्ठी हो गयी । महाप्रभु शरीर की सुध भुलाकर प्रेमोन्माद में मस्त हो संकीर्तन में मन्ग थे । उसी समय उन्होंने देखा कि भीड में एक भक्त ब्राह्मण बडे ही प्रेम के साथ संकीर्तन कर रहा है, उसके शरीर में सभी अष्टसात्त्विक भावों का एक साथ उदय हो रहा है । महाप्रभु उसके इस भगवत्प्रेम को देखकर बडे प्रसन्न हुए और उसका हाथ पकडकर नृत्य करने लगे । संकीर्तन के बाद महाप्रभु ने उस ब्राह्मण से पूछा : ‘‘महाभाग ! आपको इस अद्भुत प्रेमनिधि की प्राप्ति कहाँ से हुई है ? ब्राह्मण ने अत्यंत विनम्रता के साथ कहा : ‘‘प्रभो ! प्रेमावतार श्री माधवेन्द्रपुरी महाराज ने मुझ पर कृपा करके मुझे मंत्रदीक्षा दी है । वे मेरे पूज्य गुरुदेव हैं । मुझमें जो भी कुछ यत्किंचित् प्रेम आपको दिखता है, वह उन्हीं महापुरुष की कृपा का फल है । श्री माधवेन्द्रपुरीजी का नाम सुनते ही चैतन्य महाप्रभु उस ब्राह्मण के पैरों पर गिर पडे और उसे बार-बार प्रणाम करने लगे । ब्राह्मण भय से काँपते हुए बोले : ‘‘प्रभो ! यह आप क्या कर रहे हैं ? आप तो हमारे पूजनीय, वंदनीय और माननीय हैं । मेरे पैरों को छूकर मुझे पाप का भागी न बनाइये । महाप्रभु ने गद्गद कण्ठ से कहा : ‘‘विप्रवर ! आप मेरे दादागुरु श्री माधवेन्द्रपुरी महाराज के शिष्य हैं । मैं उन भगवान माधवेन्द्रपुरीजी के शिष्य श्री ईश्वरपुरीजी का शिष्य हूँ । बाद में चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को साथ लेकर अनेकों तीर्थों की यात्रा की । चैतन्य महाप्रभु का सद्गुरु के प्रति प्रेम एवं उनके प्रति कृतज्ञता का भाव कितना अद्भुत है ! (लोक कल्याण सेतु : जून २००५) ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ