वास्तविक
कर्तव्य और सामाजिक कर्तव्य
मुख्य
कर्तव्य में लीन तुकाराम जी महाराज
संत
श्री आसाराम जी बापू के सत्संग-प्रवचन से
ईश्वर
को पाने के लिए आपको चाहे जो भी करना पड़े, वे सब प्रयास, वे
सब सौदे सस्ते हैं। संसार को पाने के लिए यदि ईश्वर का त्याग करना पड़े तो सौदा
महँगा है। ईश्वर को पाने के लिए यदि संसार की कचरापट्टी का त्याग करना पड़े तो कर
देना चाहिए, क्योंकि यदि ईश्वर मिल गया तो संसार तो उसकी
छायामात्र है। वह स्वयं ही पीछे-पीछे चला आयेगा। संसार की रजो-तमोगुणी वासनाओं को
पोषने के लिए संसार के सुख से चिपके तो वह सुख टिकेगा नहीं और मुक्ति का सुख
मिलेगा नहीं। फिर आप रोते रह जाओगे।
दो
प्रकार के कर्तव्य होते हैं- एक होता है वास्तविक कर्तव्य और दूसरा होता है
सामाजिक कर्तव्य। मनुष्य-जन्म मिला है तो मुक्ति पाना मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है।
जन्म-मरण से पार होना, पाप-ताप से पार होना, यह
मनुष्य का मुख्य कर्तव्य है। दूसरा है गौण कर्तव्य अर्थात् सामाजिक या मुख्य
कर्तव्य। यदि आप सतत फेरे फिरकर विवाह करके आये हैं तो आपका मुख्य कर्तव्य है
पत्नी का पालन-पोषण करना। बच्चे को जन्म दिया है तो उसको पढ़ाना-लिखाना, यह
आपकी मुख्य कर्तव्य है।
जो
मुख्य कर्तव्य को निभाने में लग जाता है, उसकी मुख्य
कर्तव्य अपने-आप पूरी होने लगती है। फिर भले प्रारंभ में उसे थोड़ा विरोध ही क्यों
ने सहना पड़े।
तुकाराम
जी महाराज विवाह करके आये तो उनकी मुख्य कर्तव्य तो था कि कुछ भी करके कमायें और पत्नी का भरण पोषण करें। वे मुख्य कर्तव्य
के फेरे फिरकर तो आये किंतु उनका मन आध्यात्मिक अथवा वास्तविक कर्तव्य की तरफ अधिक
झुकता गया। अतः वे उसी को निभाने में पूर्ण रूप से संलग्न हो गये। नतीजा यह हुआ कि
लोग उनकी निंदा करने लगे। फिर भी तुकाराम जी महाराज ने निंदकों की परवाह नहीं की।
उन्होंने सोचा कि ‘चलो, मुख्य काम तो हो
रहा है।’ जब तुकाराम जी महाराज पर निंदकों की बातों का
कुछ असर न हुआ तो उन्होंने मुंडन करवा कर, उनके सिर पर
हल्दी व चूने का लेप करके, गधे पर बिठाया। इतने से जब निंदकों को
संतोष नहीं हुआ तो उन्होंने बैंगन और गाजर का हार बनाकर तुकाराम जी महाराज के गले
में डाल दिया और गधे पर उलटा (अर्थात् पूँछ की ओर मुँह करके) बिठाकर पूरे गाँव में
घुमाया।
फिर
भी धन्य हैं तुकाराम जी महाराज ! इतना होने पर भी वे अपने मुख्य कर्तव्य से नहीं
डिगे। बाहर से तो बड़ा भारी अपमान दिख रहा है, किंतु अंदर से
उनके चित्त पर इसका कोई असर नहीं हुआ। उनकी यह ‘शोभायात्रा’ घूमते-घूमते
जब उनके घर के सामने आयी तो उनकी पत्नी जीजाई, जो उन्हें
उठते-बैठते गालियाँ सुना देती थी, उसका भी हृदय पिघल गया। उसने तो उठाया
डंडा दौड़ी निंदकों के पीछे ! जीजाई का यह रूप देखकर सब भाग गये। उसने तुकाराम जी
को गधे पर से उतारा। फिर रोते-रोते बोल उठीः
“आपकी
ऐसी हालत किसने की ?”
तुकाराम
जी बोलेः “रोती क्यों है ? दुःखी क्यों होती
है ? आज तक मैं पूरा गाँव नहीं घूमा था, बेचारों ने
गली-गली घुमा दिया। हजामत करवाने पैसा तो था नहीं, अपने खर्चे से
उन्होंने मुण्डन भी करवा दिया। कितने अच्छे लोग थे ! सिर पर कहीं फोड़े-फुंसी न
हों इसलिए उन बेचारों ने चूना और हल्दी भी लगा दी। हम रोज दाल खा-खाकर ऊब गये थे, गरीबी
की वजह से दाल से ही गुजारा करना पड़ता था। उन बेचारों ने बैंगन और गाजर का हार
पहना दिया तो हमें 5-7 दिन के लिए सब्जी भी मिल गयी। आज का दिन कैसा
शुभ है। तू दुःखी क्यों होती है ?”
यह
है सात्त्विक सुख ! यह है वास्तविक कर्तव्य को निभाने का आनंद ! बाहर दुःख की
बौछारें हो रही हैं, फिर भी चित्त में दुःख पैदा नहीं हो रहा है।
तुकाराम
जी महाराज भगवान के भजन के लिए एक पहाड़ी पर जाकर बैठ जाते और उनकी पत्नी किसी के
घर अनाज पीसती, तो किसी की कुछ सेवा करती। फिर अपने घर आकर
रोटी बनाती और पति परमात्मा को भोजन देने पहाड़ी पर जाती। इस तरह उनका गुजारा चलता
था।
एक
दिन दोपहर के समय वह तुकाराम जी को भोजन देने जा रही थी। एक तो भीषण गर्मी… दूसरे
दोपहर का समय और तीसरे, परिश्रम से थकी जीजाई। आज उसके क्रोध
का कोई पार न रहा। रास्ते में वह विट्ठल को कोसती जा रही थीः “ऐ
विट्ठल ! तुझे और कोई नहीं मिला क्या ? मेरे पति के दिल
में घुसकर बैठ गया है ? ऐ काला कलूट ! तू बाहर से तो काला है
ही, भीतर से भी काला है….” कोसते-कोसते अपने पैरों को पटकते हुए
जा रही है।
भगवान
अपनी निंदा तो सह लेते हैं किंतु अपने प्यारे भक्त की निंदा उनसे सही नहीं जाती।
प्रकृति कोपायमान हुई और जीजाई के पैर में एक बबूल का शूल चुभ गया। जीजाई वहीं गिर
पड़ी। ‘भोजन का समय हो गया और जीजाई अभी तक नहीं आयी, क्या
बात है ?’ – यह सोचकर तुकाराम जी पहाड़ी से देखने लगे।
इधर
तुकाराम जी को भूख लगी और उधर भगवान विट्ठल की नींद खराब हुई कि ‘मेरा
भक्त भूख से व्याकुल है।’ भगवान विट्ठल जीजाई के सामने प्रकट हो
गये और बोलेः “उठ जीजाई !”
जीजाई
ने जैसे ही विट्ठल को देखा कि वह क्रोध से भड़क उठी और बरस पड़ीः “तू
विट्ठल !! इधर भी आ गया !!! तूने ही मेरा गृहस्थ जीवन बरबाद कर दिया है। जा, चला
जा यहाँ से।”
विट्ठल
तो जाने लगे ? जीजाई ने ही मुँह घुमा दिया। फिर भी यह क्या ? जिधर
मुँह घुमाया उधर विट्ठल खड़े दिखाई दिये। अब तो जीजाई जिधर मुँह घुमाती जाती है, उधर-उधर
विट्ठल प्रकट होते जाते हैं। आखिर थक कर जीजाई ने आँखें बंद कर लीं, किंतु
यह क्या ! भीतर भी विट्ठल ही दिखने लगे ! जीजाई फिर बड़बड़ाने लगीः
“तू
भीतर कैसे घुस गया ? चल, निकल बाहर।”
इन्कार
भी तो आमंत्रण देता है। लग गया जीजाई का ध्यान। मन शांत हो गया। उसे अपनी भूल का
एहसास हुआ। वह रो-रोकर भगवान से माफी माँगने लगीः “विट्ठल ! मैंने
तुम्हें बहुत से अपशब्द कह दिये। मुझे माफ कर दो।”
विट्ठल
बोलेः “अरे, जीजाई ! रोती
क्यों है ? तेरे सब अपराध माफ है। जो मुख्य कर्तव्य में लग
जाते हैं, उनके गौण कर्तव्य मैं पूरे करता हूँ। तुम्हारे
पतिदेव अपने मुख्य कर्तव्य के पालन में, ईश्वर को पाने
में लगे हुए हैं, अतः उनके गौण कर्तव्य तो मुझे ही पूरे करने
पड़ते हैं। जीजाई ! तू फिकर मत कर, उठ।”
विट्ठल
ने जीजाई का हाथ पकड़कर उसके खड़ा किया और उसके पैर से शूल निकाला। भगवान के स्पर्श
से उसकी सारी थकान भी दूर हो गयी।
जीजाई
बोलती हैः “विट्ठल ! मुझे प्यास लगी है।”
यह
सुनकर विट्ठल ने पास की चट्टान पर पत्थर दे मारा तो वहाँ से झरना फूट पड़ा। जीजाई
ने पानी पीकर जब प्यास बुझा ली तब विट्ठल बोलेः
“जीजाई
! जल्दी करो। मेरा भक्त भूखा है।”
जीजाई और भगवान, दोनों
पैदल ही पहाड़ी पर जाने लगे। तुकाराम जी तो भूख से व्याकुल होकर दूर-दूर तक ताक ही
रहे थे। अचानक देखा कि ‘अरे, अमावस्या की
काली रात और मध्याह्नकाल के भुवनभास्कर एक साथ ! कहाँ जीजाई और कहाँ विट्ठल !
दोनों एक साथ कैसे ? मुझे कोई भ्रम तो नहीं हो गया ?’ आँखें
मसल-मसलकर तुकाराम जी ने देखा कि ‘मैं वास्तव में
होश में तो हूँ न ?’
देखते-देखते
दोनों तुकाराम जी के पास पहुँच गये। उनके आते ही तुकाराम जी ने भगवान से पहला
प्रश्न यही कियाः
“भगवान
विट्ठल ! आप जीजाई को लेकर आये !”
विट्ठल
ने सारी घटना बता दी। उन्होंने कहाः
“आज
जीजाई के पैर में शूल चुभ गया था। देर हो रही थी, इसलिए मुझे आना
पड़ा।”
तुकाराम
जी तो भगवान के साकार विग्रह को देखते ही भूख-प्यास भूल गये। तब भगवान के कहाः “खाओ, तुकाराम
!”
खाते-खाते
तुकाराम जी कहते हैं- “भगवन् ! जीजाई तो सदैव आपको कोसती रहती
है, फिर भी आप उसके साथ कैसे ?”
“तुकाराम
! मेरी नज़र जीजाई पर नहीं, तुम पर थी। मेरी नज़र तो भक्त पर होती
है और भक्त के नाते भक्त के सम्बन्धियों का कल्याण करना यह मेरा स्वभाव है।”
जो
अपने मुख्य कर्तव्य को निभा लेता है, उसके गौण
कर्तव्य का निर्वाह स्वयं भगवान की कृपा से ही हो जाता है। अतः ईश्वर की ओर जाने
वालों को उनके कुटुंबी कोसें नहीं बल्कि सहयोग करें। इसी में भला है।
स्रोतः
ऋषि प्रसाद
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