वर्तमान भारत का संविधान और प्राचीन आचार्यों के दंडविधान तथा सामाजिक नीतियाँ।

                                  संसद के सदस्य द्वारा ली जाने वाली शपथ या किए जाने वाले प्रतिज्ञान का प्ररूप :-

                             'मैं, अमुक, जो राज्यसभा (या लोकसभा) में स्थान भरने के लिए अभ्यर्थी के रूप में निर्वाचित या नामनिर्देशित हुआ हूँ ईश्वर की शपथ लेता हूँ/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा, मैं भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखूँगा तथा जिस पद को मैं ग्रहण करने वाला हूँ उसके कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करूँगा।'

अन्य विभागों और मंत्रालयों की शपथ आप निम्नलिखित link में देख सकते हैं l http://www.webvarta.com/samvidhan/schedule_3.htm
                   प्राय: यह शपथ भारत में सभी राजकीय, संसदीय, न्यायिक, विधायिका आदि प्रणालियों में उपयोग की जाती है, परन्तु वर्तमान में इस शपथ के प्रति शपथ ग्रहण करने वाले नागरिक कितने संजीदा होते हैं शायद इसके बारे में चर्चा करना ही मुर्खता होगी l

कारण है दंड के भय का अभाव l

                   नीचे से लेकर ऊपर तक जितने भी लोग हैं, ऐसा प्रतीत ही नही होता की किसी को भय है इस संविधान में लिखित दंड प्रक्रियाओं का l
                       सजा सुनाये जाने के बाद मीडिया के सामने प्रत्येक चोर, बलात्कारी, मंत्री, सांसद, हत्यारा, आतंकवादी तक यह कहते सुनाई देता है ... "कि, मेरा इस संविधान और नयायालय में पूर्ण विश्वास है, मुझे इन्साफ मिलेगा l " परन्तु .. उस शपथ का क्या ? जो उन्होंने विभिन्न शासकीय, प्रशासनीय, राजकीय  सेवाओं पर पदासीन होते हुए ग्रहण की थीं l
                       उन शपथों के प्रति जो लोच अपनाई जाती है, उन शपथों को धर्म, सत्य और नैतिकता के आधार पर प्रत्येक क्षण कुचला जाता है, शपथों का अपमान किया जाता है, उस अपमान हेतु दंड विधान क्या है ?
                      उस कर्त्तव्य परायणता से विमुख होने का दंड विधान क्या है ? और फिर उसके अन्य हत्यारे, सांसद, चोर, लुटेरे आदि सब मिलकर उसे बचाने का भरपूर प्रयास भी करते हैं और उस बचाव के प्रयास में निर्दोष लोगों की भी प्राय: बलि चढ़ ही जाती है l



कमी कहाँ रह जाती है ?   आइये देखते है .....

                      'अर्थशास्त्र' की रचना 'शासन-विधि' के रूप में प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए की गई। अत: इसकी रचना का काल वही मानना उचित है, जो सम्राट चन्द्रगुप्त का काल है। पुरातत्त्ववेत्ता विद्वानों ने यह काल 321 ई.पू. से 296 ई.पू.तक निश्चित किया है। कई अन्य विद्वान सम्राट सेण्ड्राकोटस (जो यूनानी इतिहास में सम्राट चन्द्रगुप्त का पर्यायवाची है) के आधार पर निश्चित की हुई इस तिथि को स्वीकार नहीं करते।
                       इस 'अर्थशास्त्र' का विषय क्या है ? जैसे ऊपर कहा गया है- इसका मुख्य विषय शासन-विधि अथवा शासन-विज्ञान है:

''कौटिल्येन नरेन्द्रार्थे शासनस्य विधि: कृत:।'



                          'इन शब्दों से स्पष्ट है कि आचार्य ने इसकी रचना राजनीति-शास्त्र तथा विशेषतया शासन-प्रबन्ध की विधि के रूप में की।
                          अर्थशास्त्र की विषय-सूची को देखने से (जहां अमात्योत्पत्ति, मन्त्राधिकार, दूत-प्रणिधि, अध्यक्ष-नियुक्ति, दण्डकर्म, षाड्गुण्यसमुद्देश्य, राजराज्ययो: व्यसन-चिन्ता, बलोपादान-काल, स्कन्धावार-निवेश, कूट-युद्ध, मन्त्र-युद्ध इत्यादि विषयों का उल्लेख है) यह सर्वथा प्रमाणित हो जाता है कि इसे आजकल कहे जाने वाले अर्थशास्त्र (इकोनोमिक्स) की पुस्तक कहना भूल है। प्रथम अधिकरण के प्रारम्भ में ही स्वयं आचार्य ने इसे दण्ड नीति नाम से सूचित किया ।

                          यह दंड केवल आम जनता के लिए नही अपितु सम्पूर्ण राज्य में जितने भी व्यक्ति किसी भी विभाग, क्षेत्र आदि में कार्यरत हैं उन सभी के ऊपर समान रूप से लागू होता है l केवल राजा के पास ही यह सम्पूर्ण अधिकार हैं की वो अपराधी को क्षमा करे या दंड की कठोरता में कुछ नमी के संकेत दे l

                           परन्तु दंड मिलेगा सभी को इसका पूर्ण ध्यान दिया जाता है जिससे की भय यह रहे की बचेगा कोई नहीं..... आचार्य चाणक्य जैसे महान राष्ट्र-भक्त के सही अर्थों में तो यही हो सकता है न समानता का अर्थ l
                            गुरु शुक्राचार्य ने दण्डनीति को इतनी महत्त्वपूर्ण विद्या बतलाया है कि इसमें अन्य सब विद्याओं का अन्तर्भाव मान लिया है - क्योंकि 'शस्त्रेण रक्षिते देशे शास्त्रचिन्ता प्रवर्तते' की उक्ति के अनुसार शस्त्र (दण्ड) द्वारा सुशासित तथा सुरक्षित देश में ही वेद आदि अन्य शास्त्रों की चिन्ता या अनुशीलन हो सकता है।
                             अत: दण्डनीति को अन्य सब विद्याओं की आधारभूत विद्या के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है, और वही दण्डनीति अर्थशास्त्र है।



                       जिसे आजकल अर्थशास्त्र कहा जाता है, उसके लिए 'वार्ता' शब्द का प्रयोग किया गया है, यद्यपि यह शब्द पूर्णतया अर्थशास्त्र का द्योतक नहीं।
                       कौटिल्य ने वार्ता के तीन अंग कहे हैं-  कृषि, वाणिज्य तथा पशु-पालन, जिनसे प्राय: वृत्ति या जीविका का उपार्जन किया जाता था।
                        मनु, याज्ञवल्क्य आदि शास्त्रकारों ने भी इन तीन अंगों वाले वार्ताशास्त्र को स्वीकार किया है। पीछे शुक्राचार्य ने इस वार्ता में कुसीद (बैंकिग) को भी वृत्ति के साधन-रूप में सम्मिलित कर दिया है।

                         परन्तु अर्थशास्त्र को सभी शास्त्रकारों ने दण्डनीति, राजनीति अथवा शासनविज्ञान के रूप में ही वर्णित किया है। अत: 'कौटिल्य अर्थशास्त्र' को राजनीति की पुस्तक समझना ही ठीक होगा न कि सम्पत्तिशास्त्र की पुस्तक।
                          वैसे इसमें कहीं-कहीं सम्पत्तिशास्त्र के धनोत्पादन, धनोपभोग तथा धन-विनिमय, धन-विभाजन आदि विषयों की भी प्रासंगिक चर्चा की गई है।
                         'कौटिल्य अर्थशास्त्र' के प्रथम अधिकरण का प्रारम्भिक वचन इस सम्बन्ध में अधिक प्रकाश डालने वाला है:

पृथिव्या लाभे पालने च यावन्त्यर्थशास्त्राणि पूर्वाचार्ये: प्रस्तावितानि,
प्रायश: तानि संहृत्य एकमिदमर्थशास्त्र कृतम्।

                       अर्थात्-प्राचीन आचार्यों ने पृथ्वी जीतने और पालन के उपाय बतलाने वाले जितने अर्थशास्त्र लिखे हैं, प्रायः उन सबका सार लेकर इस एक अर्थशास्त्र का निर्माण किया गया है।



                            विश्व के कई देशों ने अपने अपने देश के संविधान का निर्माण अपने देश कि सभ्यताओं, रीति रिवाजों तथा ऋषि भूमि भारत के आचार्यों की दंड संहिताओं, नीति शास्त्रों के आधार पर किया परन्तु भारत को शायद INDIA बनाने की सबसे पहली कड़ी यही थी कि स्वित्ज़रलैंड के एक व्यक्ति को भारत के संविधान के निर्माण का कार्य सौंपा जाता है और वो व्यक्ति 5 देशों के संविधान और अपनी पाश्चात्य कु-बुद्धि के अनुसार एक खाका तैयार कर कर नेहरु को सुपुर्द करता है l
                          सवाल यह है कि क्या यह संविधान ... भारत के नागरिकों द्वारा अपनाई जाने वाली संस्कृति, सभ्यताओं, प्रथाओं, रीति-रिवाजों तथा मान्यताओं  के अनुरूप बनाया गया ?
                          और भारत की जनता अपनी परम्पराओं, सभ्यता, रीति-रिवाजों को ताक पर रख कर ऐसे संविधान को मौखिल स्वीकृति देकर स्वीकार भी कर लेती है, lजिसमे न दंड का भय है, न ही मानव और सृष्टि के कल्याणार्थ उचित मूल्य l
                           स्वयंभुव मनु के बाद इस महर्षि गौतम, देवगुरु बृहस्पति, गुरु शुक्राचार्य, महात्मा विदुर, योगेश्वर श्री कृष्ण तथा आचार्य चाणक्य जैसे महान नीतिकार हुए हैं जिन्होंने इस देश ही नही अपितु सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याणार्थ अपने अपने नीतिशास्त्र तथा दंडविधान लिखे जो कि पूर्ण रूप से इस देश कि संस्कृति, सभ्यता, प्रथा तथा मान्यताओं के अनुरूप थे जिसके आधार पर लाखों वर्षों से संस्कृति और सभ्यताएं फलती फूलती तथा विकसित होती रहीं, मानव जीवन अपने परम वैभव पर पहुंचता रहा.. .तथा साथ ही प्रकृति और सृष्टि का भी कल्याण होता रहा l  l
                      क्या भारत में कभी इस देश के नागरिकों के अनुरूप कोई संविधान बनाया जायेगा ? क्या भारत कि न्यायपालिका कभी विचार कर पायेगी इस सबसे बड़ी कमी का ? क्या भारत के समस्त अधिवक्ता मिल कर इस समस्या का निवारण नहीं कर सकते ?
                        क्या ऐसा विधान भी कोई होगा जिसके अनुसार कर्त्तव्यपरायणता, मानव जीवन के कल्याण, सृष्टि और प्रकृति की देखभाल में यदि किसी भी राजकीय, संसदीय, शासकीय पदासीन व्यक्ति से कोई चूक हो, तो उसे दंड के विधान का भय हो ?
                        वर्तमान पैशाचिक परिस्थितियों की समस्त समस्याओं का एकमात्र समाधान है धर्म सम्मत विधान l जब तक पैशाचिक कानूनों की आड़ में अधर्म का शासन रहेगा, धर्म प्रताड़ित भी होगा, अपमानित भी होगा.. दंडित भी होगा l

अतः आवश्यकता है एक धर्म विधान की ....
We need Rule of Dharm - Not Rule of LAW

                              एक नजर आंबेडकर के संसद में कहे गये एक बयान पर जिसका उल्लेख श्री अरुण शौरी जी ने अपनी पुस्तक में भी किया http://arunshourie.voiceofdharma.com/articles/ambedkar.htm ऋषि भूमि के आर्यों की विलक्षण बुद्धि के अनुरूप शिक्षा नीति एवं व्यवस्था भी होनी चाहिए।


                          यह वरदान स्वरूप ही है कि ऋषि-भूमि देव-तुल्य अखंड भारत कि पावन भूमि पर जो जन्म लेता है उसकी बुद्धि तीक्ष्ण, कुशाग्र एवं विलक्षण प्रतिभा से परिपूर्ण होती है.... निश्चित रूप से यह सिद्ध करता है कि भारतीय, जिन्होंने किसी काल में नालन्दा, तक्षशिला आदि जैसे विश्वविद्यालयों की थी और जो समस्त विश्व में विश्व गुरु कहलाते थे, उन्हीं विश्व गुरुओं के वंशज आज भी विलक्षण बुद्धि के स्वामी हैं। परन्तु आज भारत की शिक्षा नीति और व्यवस्था पूरी तरह से पश्चिमी देशों की शिक्षा नीति और व्यवस्था पर आधारित है, उसके बाद भी भारतीय प्रतिभाएँ इस प्रकार से उभर कर आ जाती हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति के साथ साथ अन्य देशों को अपने देश के पिछड़ जाने का भय सताने लगता है तो जरा विचार कीजिए कि यदि भारत में अपने देश की सभ्यता और संस्कृति पर आधारित पूर्णतः मौलिक शिक्षा नीति और व्यवस्था होती, जो आत्म निर्भरता और चरित्र निर्माण के साथ ही जीवन के परम सत्य का साक्षात्कार कराने वाली आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करती, तो ऋषि भूमि देव-तुल्य अखंड भारत को दोबारा विश्व गुरु बनने में कोई अधिक समय नहीं लगेगा l
                             प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में ज्ञान और विद्या के क्षेत्र में संसार का अग्रणी रहा है। वैदिक काल से भी पूर्व से ही हमारे देश में ज्ञान को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहेजा जाता रहा है। पुरातन काल से ही भारतीय संस्कृति की गुरु-शिष्य परम्परा समस्त विश्व में विख्यात रही है तथा भारत में अत्यन्त विकसित शिक्षा के अनेक केन्द्र रहे हैं। भारतीय गुरु जहाँ आयुर्वेद, कृषि, वास्तुशास्त्र, भवन-निर्माण, गणित, खगोल, शस्त्रविद्या, सैन्य-शिक्षा, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि जैसे विषयों का ज्ञान दान करके न केवल भारतीयों को आत्म निर्भर बनाते थे बल्कि वे दर्शन शास्त्र, योग शास्त्र, न्याय शास्त्र, नीति शास्त्र, तर्क शास्त्र जैसे विषयों में शिष्यों को पारंगत करके चरित्रवान शासकों तथा उनके मन्त्रियों के शासन का निर्माण भी करते थे। जहाँ व्याकरण, साहित्य इत्यादि की शिक्षा प्रदान करके भाषा तथा साहित्य को विकसित करना उन गुरुओं का कार्य था वहीं गणित, खगोल शास्त्र, वैशेषिक शास्त्र का ज्ञान प्रदान कर के विचारक, गणितज्ञ, खगोलज्ञ तथा वैज्ञानिकों का प्रादुर्भाव करना भी उन्हीं का उत्तरदायित्व होता था। इसके अतिरिक्त आत्मानुशासन, नैतिकता, अध्यात्म, धर्म, योग, साधना आदि की शिक्षा देकर वे अपने शिष्यों को आध्यात्मिक बल तथा मनोबल भी बढ़ाये रखते थे।

                       भारत में मुसलमानों के आधिपत्य हो जाने पर मुस्लिम शासकों ने अनेक मक़तबों तथा मदरसों का निर्माण तो अवश्य ही किया ही परन्तु साथ ही साथ उन्होंने हिन्दू शिक्षा व्यवस्था को ही जीर्ण-शीर्ण करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी, तक्षशिला और नालंदा विश्व-विद्यालयों का जो हश्र किया गया ऐसे उदाहरन विश्व में एक-आध ही प्राप्त होंगे l फिर भी भारतीय शिक्षा का प्राचीन रूप अठारहवी शताब्दी तक जैसे तैसे  अपने मूल रूप में ही चलता रहा। सत्रहवी शताब्दी तक भारत शिक्षा के प्रचार में यूरोप के सभी देशों से आगे था और हमारे देश में पढ़े-लिखे लोगों का प्रतिशत अन्य देशों की अपेक्षा बहुत अधिक था। उस समय तक सहस्त्रों की संख्या में ब्राह्मण अध्यापक अपने-अपने घरों में लाखों शिष्यों को मुफ्त शिक्षा प्रदान किया करते थे। डा-वेल नामक एक प्रसिद्ध मिशनरी, जो मद्रास में पादरी रह चुके थे, ने तो यहाँ की शिक्षा-व्यवस्था से प्रभावित होकर इंग्लिस्तान में भी भारतीय प्रणाली के अनुसार शिक्षा देना आरम्भ कर दिया था।

                      वर्तमान पीढ़ी की ऐसे सोच है की गुरुकुलों में पढ़ा कर क्या पंडित बनाना है बच्चों को ? परन्तु ऐसी सोच रखने वाले लोग अज्ञानता के इतने धनी हैं की वो यह भूल जाते हैं कि ऐसे ही गुरुकुलों में पढ़े हुए ऐसे पंडितों के कारण ही भारत समस्त जगत में विश्व गुरु कहलाया जाता था l
                         इस प्रकार की मिथ्या अवधारणायें अंग्रेजों के कारण बहुत फली फूलीं, अंग्रेजों ने भारत में करवाए गये सर्वेक्षणों द्वारा जो शिक्षा व्यवस्था के आंकड़े जुटाए उन आंकड़ों को ब्रिटेन में तो सही रूप में पहुंचाया परन्तु भारत की जनता के सामने एक अलग ही रूप में प्रस्तुत किया, जिसमे यह बताया गया कि उस समय की शिक्षा नीति में ऊँची जातियों का वर्चस्व है जबकि ऐसा नही है, तत्कालीन मद्रास प्रेसिडेंसी के आंकड़े इसके अंग्रेजों के इन झूठे दावों की पोल खोल देते हैं जिनमे नीची जातियों का प्रतिशत शिक्षा क्षेत्र में ऊँची जातियों से कहीं अधिक था l
                    खिलजी से लेकर अकबर तक के काल में 42000 उपजातियां हिन्दू समाज में ठूंस दी गयीं और उन्हीं जातियों को अंग्रेजों ने भारत की वर्ण-व्यवस्था तथा शिक्षा व्यवस्था को ख़त्म करने हेतु उपयोग किया l
                      लॉर्ड मैकॉले को भारत की यह शिक्षा-प्रणाली चुभने लग गई। उसने सन् 1833 में चार्टर पर पार्लियामेंट में भाषण देते हुए कहा था, "मैं चाहता हूँ कि भारत में यूरोप के समस्त रीति-रिवाजों को जारी किया जाए, जिससे हम अपनी कला और आचारशास्त्र, साहित्य और कानून का अमर साम्राज्य भारत में कायम करें। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम भारतवासियों की एक ऐसी श्रेणी उत्पन्न करें जो हमारे और उन करोड़ों के बीच में, जिन पर हमें शासन करना है, दुभाषिए का काम दें; जिनके खून तो हिन्दुस्तानी हों, पर रुचि अंग्रेजी हो। संक्षेप में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय तन से भारतीय, पर मन से अंग्रेज हो जाएँ, जिससे अंग्रेजों का विरोध करने की उनकी भावना ही नष्ट हो जाए।" और उसने एक ऐसी शिक्षा-प्रणाली बनाकर, जो कि भारतीयों को अपनी संस्कृति और सभ्यता से दूर ले जाए और उनमें राष्ट्रीय भावना पैदा ही ना होने दे, अंग्रेजी शासन को भेज दिया। अंग्रेजी शासन ने उस शिक्षा-प्रणाली को सहर्ष स्वीकार कर लिया और भारत में मैकॉले की वह शिक्षा-प्रणाली सन् 1835 से लागू हो गई। यह वह शिक्षा-प्रणाली थी जो कि भारतीयों में आत्मानुशासन, नैतिकता, अध्यात्मिकता, आत्म-सम्मान की भावना, राष्ट्रीयता इत्यादि का नाश करके स्वार्थपरता और पद-लोलुपता सिखाती थी।



                             भारत के स्वतन्त्र होने के बाद हमारे तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं ने मैकॉले की उसी शिक्षा प्रणाली को न केवल अपनाया बल्कि उसमें ऐसे परिवर्तन भी कर दिए कि भारत की जनता उन तथाकथित राष्ट्रनिर्माताओं को और भी महान समझने लगे, उनके द्वारा किए गए देशवासियों के शोषण को जरा भी न समझ पाए, भ्रष्टाचार के द्वारा उनकी कमाई को जनता अनदेखी करती रहे। और सौ बात की एक बात कि वे अनन्तकाल तक अपने पदों पर विराजमान होकर जनता के द्वारा पूजे जाते रहें। परन्तु यहाँ एक और बात उल्लेखनीय है जो मैकाले के व्यक्तित्व के बारे में कुछ और भी दर्शाता है, मैकाले की जीवनी के अनुसार नई शिक्षा नीति की व्यवस्था का निर्माण करने के समय जब मुस्लिम पक्ष के लोग फ़ारसी, उर्दू और अरबी का को प्राथमिक भाषा बनाने हेतु मैकाले के पास आया करते थे तो मैकाले इन सम्पूर्ण विषयों पर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से भी चर्चा करता था और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने मैकाले ने संस्कृत और अंग्रेजी को शिक्षा नीति में प्राथमिकता दी।
                             कांग्रेसी नीतियों के चलते इस देश में शिक्षा नीत का सारा ठीकरा मैकाले के ऊपर फोड़ा जाता है परन्तु यदि आंकड़ों का विश्लेष्ण किया जाए तो यह पाया जाता है कि 1947 से पहले गुरुकुलों की जो संख्या थी वह 1947 के बाद निरंतर गिरती गई, अभी भी शिक्षा नीतियों की आड़ में संस्कृत आधारित गुरुकुलों तथा महाविद्यालयों की मान्यता रद्द करने तथा उनको बंद करने के प्रपंच यदा कदा चलते ही रहते हैं और विशेष कर उनके लिए तो अनुदान ही पास नहीं किये जाते कई कई वर्षों तक ।

                           क्या कभी इस देश की बहुसंख्यक जनता को उसकी संस्कृति, सभ्यता, रीति-रिवाजों तथा परम्पराओं के अनुरूप संविधान और शिक्षा का अधिकार प्राप्त होगा या नही ?
-साभार लवी भारद्वाज जी