शिष्य
में ये दो सद्गुण नितांत आवश्यक।
भगवान
के रास्ते तो चले लेकिन जब तक सद्गुरु प्राप्त नहीं हुए तब तक करोडों शास्त्र पढ
ले, करोडों तीर्थ कर ले और सैकडों दिन का शीर्षासन
कर ले फिर भी परम लाभ, परम पद नहीं मिलता, ब्रह्म-परमात्मा
का रहस्य नहीं खुलता। ईश्वर, गुरु, भक्ति
- इनमें जब तक अभिन्न-बुद्धि नहीं होती तब तक साधक को सही रास्ते का ज्ञान भी नहीं
होता।
भक्ति भक्त भगवंत गुरु, चतुर
नाम वपु एक।
इनके पद वंदन किए, नाशत
विघ्न अनेक।।
जो
पूरा भक्त है अथवा जिसके जीवन में पूरी भक्ति आ गयी उसे भक्ति, भक्त, भगवान
और गुरु - ये ४ विग्रह, ४ नाम तो दिखेंगे लेकिन उनमें प्रीति
एक जैसी, आदर एक जैसा होगा।
हजार-हजार
शास्त्र पढ ले, हजार-हजार व्रत-नियम कर ले लेकिन जब तक
गुरु में अहोभाव और दृढ श्रद्धा नहीं होगी, तब
तक कोल्हू के बैल जैसा उसी नियम-कर्म में घूमता ही रहेगा।
भगवान
में तो श्रद्धा हो जाती है लेकिन साकार विग्रह में, मानव
रूप में, सद्गुरु में श्रद्धा होना मजाक की बात
नहीं। भगवान तो मूर्ति में बैठे हैं, पुजारी
रोज घंटी बजाता है, भोग धरता है, भगवान
कुछ नहीं कहते, चाहे पुजारी सत्यनिष्ठ रहे या नहीं।
भोजन में नमक ज्यादा हो या कम हो, मूर्तिवाले भगवान कुछ नहीं बोलेंगे
लेकिन गुरु भगवान के आगे कुछ रखा और कुछ गडबड हुई तो डाँटेंगे, जिससे
तुम्हारे अहं को चोट लगेगी, तुम्हारे मान को चोट लगेगी और शिष्य तब
शिष्यत्व को पाता है जब अमानी हो। अमानित्व बिना तो कोई गुरु के द्वार पर आराम से
बैठ भी नहीं सकेगा।
गुरु
के द्वार पर फायदा उठाना है तो शिष्य में अमानित्व और श्रद्धा - ये दो सद्गुण तो
नितांत आवश्यक हैं। इनके बिना तो कोई शिष्य हो ही नहीं सकता और सद्गुरु का फायदा
पूरा उठा नहीं सकता हालाँकि दर्शन से, वातावरण
से, स्पंदनों से थोडा-बहुत पुण्य हो जायेगा।
सैकडों
वर्ष के तीर्थाटन की अपेक्षा तो सद्गुरुओं से ज्यादा लाभ होता है लेकिन सत्शिष्यों
एवं शिष्यों को जो लाभ होता है, आम आदमी को उतना सारा लाभ नहीं होता है।
एक शिष्य बैठा है और दूसरा आम आदमी बैठा है तो आम आदमी को शब्द मिलेंगे, सूचनाएँ
मिलेंगी, थो‹डी
पुण्याई मिलेगी लेकिन शिष्य को शब्दों के साथ आनंद मिलेगा, हिम्मत, साहस
व सत्प्रेरणा मिलेगी।
शुकदेवजी
महाराज बोलते हैं तो राजा परीक्षित को उनकी वाणी से सब कुछ मिलता है लेकिन सबको सब
कुछ नहीं मिला। अगर सबको सब कुछ मिलता तो सबका ही वर्णन आता कि सबको मोक्ष हो गया, केवल
परीक्षित को ही हुआ। दूसरों को ५, १०, १५, २५
प्रतिशत अथवा किसीको ५० प्रतिशत लाभ हुआ होगा लेकिन शुकदेवजी की कृपा का पूर्ण लाभ
परीक्षित को ही हुआ - यह वर्णन आता है। अष्टावक्रजी ने राजा जनक को ब्रह्मज्ञान
सुनाया तो जनक ज्ञातज्ञेय हुए लेकिन अष्टावक्र संहिता में दूसरों का वर्णन नहीं
आता। तो जितना अमानित्व और श्रद्धा होगी, जितने
हमारे चित्त में सत्शिष्यत्व के लक्षण होंगे उतनी मेहनत कम और लाभ ज्यादा होगा।
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