जब सब सनातनी ही थे तो अन्य धर्मों का उद्भव कैसे हुआ ?

                                    आज नीतीश मिश्र जी ने मुझसे एक प्रश्न किया: आदरणीय भागवतानंद जी! आप बहुत अच्छे विद्वान् हैं। कई दिनों से एक प्रश्न मेरे हृदय में उबाल ले रहा है यदि आप उसका निराकरण करेंगे तो अतिकृपा होगी। जिस विषय पर आदरणीय महेश जी ने भी अपना मत रखा किन्तु उसमें जो तथ्य था वह सनातन को विरल नहीं रहने देता। नीतीश मिश्र का प्रश्न है कि जब सभी सनातनी ही थे तो अन्य धर्मों का उद्भव कैसे हुआ ??? अन्य धर्मों की उत्पत्ति कैसे हुई ? कैसे ईसाई , मुस्लिम आदि धर्म अस्तित्व में आये? जब गीता कहती है कोई भी कार्य भगवान् की इच्छा के विरुद्ध नहीं होता तो कैसे मुस्लिम अस्तित्व में आये? इन धर्मों के उद्भव के क्या कारण रहे होंगे ??
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                                     निःसन्देह ऐसे ही प्रश्न आपके मन में भी आते होंगे। तो इस पर मेरा निम्न उत्तर है :-

                                   दिन और रात, पाप और पुण्य ये मात्र खेल हैं। और अनिवार्य भी। सनातन न धर्म है, न अधर्म। सनातन सर्वांगीण है। यह निर्लेप है। यह किसी भी सीमा से परे हैं और यह सर्वथा द्वंद्वातीत है। जो धर्म का पालन करते हैं, वे सनातन धर्मी हैं। जो अधर्म का पालन करते हैं, वे सनातन अधर्मी हैं। सनातन से तो आप बच ही नहीं सकते। क्योंकि सनातन स्वयं महाकाल के द्वारा निर्मित काल है। जिस काल में अंधकार भी है, प्रकाश भी है। सत्य भी है, असत्य भी है। पाप भी है, पुण्य भी है। अपि च, आज म्लेच्छ बलात्कार कर रहे हैं, गोमांस आदि खा रहे हैं, तो ये नई बात है ? बिलकुल नहीं। यह उसी समय से चला आ रहा है, जिस समय से धर्म है। कहीं महिष मानुष धेनु खर अज खल निशाचर भक्षहीं। पहले भी होता था। क्या रावण सनातनी नहीं था ? बिल्कुल था। लेकिन सनातन अधर्मी था। कंस, शिशुपाल आदि सनातन अधर्मी थे। और अन्य पांडवादि सनातन धर्मी। अब रही बात उद्भव की। तो यह मात्र हमारी कल्पना है कि ये हिन्दू है, ये मुस्लिम है, ये जैन है आदि आदि। वास्तव में सभी सनातनी हैं। वास्तव में जितने भी प्राणी हवा पानी प्रकाश अन्न भूमि आदि के ऊपर आश्रित हैं, सभी सनातनी हैं। लेकिन बात वही है, इनमे से कौन सनातन धर्मी है, और कौन सनातन अधर्मी। कई ऐसे मुसलमान प्रेत हैं, जिनके उद्धार की घटनाएं आधुनिक जगत में भी सर्वविदित हैं। गीताप्रेस से निकली परलोक और पुनर्जन्मांक पढ़े। तो यदि अल्लाह ने मुसलमान को, गॉड ने ईसाई को, यहोवा ने यहूदी को और ईश्वर ने हिंदुओं को बनाया होता तो हम कह सकते थे कि सभी अपने अपने रचयिता की प्राकृतिक रचनाओं पर आश्रित रहेंगे। परंतु ऐसा तो दृष्टिगोचर नहीं होता। जब सभी सनातन अधर्मियो का हिसाब सनातन प्रणाली से ही होना है और होता है फिर कैसी शंका कि ये हमसे अलग कैसे हुए ? यह मात्र एक कपोल कल्पना है कि ये सनातन से अलग हैं। हाँ हिंदुत्व से अलग हो सकते हैं, सनातन से नहीं। कारण कि सनातन तो सर्वांगीण हैं और उसमे तो अच्छाई है, वह हिंदुत्व है। व्यष्टि हिंदुत्व है और समष्टि सनातन। पर प्रश्न है कि मुस्लिम ईसाई सिख धर्म कब अस्तित्त्व में आये? यदि ये पूर्व में थे तो इतनी विकृतता क्यों हो रही है? मुस्लिम जैन ईसाई यह हमारी कल्पना मात्र कैसे हो सकती है? मुस्लिम, जैन, आदि ये कल्पना नहीं। इनकी भिन्नता कल्पना है। कल्पना इसीलिए कि सनातन के अंतर्गत दो ही शब्द हैं। आर्य या हिन्दू और म्लेच्छ। अर्थात् श्रेष्ठ आचरण करने वाले और नीच आचरण करने वाले। यहाँ आर्य का अर्थ आर्य समाजी नहीं है। अब कालांतर में इसमें परिवर्तन आया। आज कलियुग के प्रभाव से इसमें संकरता दिखती है। यहाँ कई ऐसे हैं जो मांसाहार, यहाँ तक कि गोमांस भी खाते हैं, बलात्कार करते हैं और फिर भी स्वयं को हिन्दू कहते हैं। जबकि वे इसके लायक ही नहीं। जैसे ही उन्होंने हिंदुत्व के मापदंडों का अतिक्रमण किया, वे अधर्मी बन गए। हिन्दू कभी मांसाहार नहीं करता, और माँसाहारी कभी हिन्दू नहीं होता। परंतु लोगों को वास्तविक परिभाषा ज्ञात नहीं, सो भ्रमित हो जाते हैं। सिक्खों की बात अलग है। वे पूर्ण सनातन धर्मी हिन्दू हैं। उन्हें बाद में षड्यंत्र के तहत अलग घोषित कर दिया गया। गुरुगोविंद जी का चंडी चरित्र ग्रन्थ देखें। श्रीगुरुग्रन्थ साहिब मैंने पूरी पढ़ी है। वो भी उनकी मूल लिपि में। वैष्णव भक्तियोग का उत्कृष्टतम ग्रन्थ है। फिर वे भिन्न कैसे ? ये सभी सनातन के हिंदुत्व के पंथभेद हैं। सनातन के म्लेच्छत्व के अंतर्गत अन्य अधर्मी पंथ आये। ये तो आधुनिक नाममात्र हैं। विचारधारा तो हिरण्यकशिपु, महिषासुर और त्रिपुरादि की ही है। बस नाम बदल लिया। कार्य, विचार और शैली तो वही है। हिंदुत्व की परिभाषा, जो मेरु तंत्र, माधव दिग्विजय, पारिजात हरण आदि में दी है, उसके अनुसार देखा जाय, तो ही मेरी बात समझ में आएगी। इत्यलम्, ॐ ॐ ॐ लेखक :- श्रीभागवतानंद गुरु (Shri Bhagavatananda Guru)