सहनशील, निःस्पृह एवं गुरुआज्ञा-पालक : माँ महँगीबाजी
(ब्रह्मलीन मातुश्री श्री माँ महँगीबाजी महानिर्वाण दिवस : २६ अक्टूबर)
संत-माता पूजनीया माँ महँगीबाजी का जीवन सभीके लिए बडा प्रेरणाप्रद है । वे अत्यंत सरल स्वभाव और ऊँची समझ की धनी थीं । उनमें सहनशीलता भी बहुत गजब की थी । उनकी जेठानी उनको बहुत दुःख देती थी परंतु वे अपने पतिदेव श्री थाऊमलजी को कुछ नहीं बताती थीं । सेवा द्वारा सबको संतुष्ट रखना उनका स्वभाव था । उनमें परदुःखकातरता का सद्गुण भी था । वे स्वयं कष्ट सहकर भी गरीबों, जरूरतमंदों की सेवा करके उनके दुःख दूर करती थीं ।
इन्हीं सद्गुणों के पुण्य-प्रताप से अम्माजी ने अपनी कोख से समता, सहनशीलता व परदुःखकातरता की मूर्ति पूज्य बापूजी जैसे पुत्ररत्न को अवतरित करने का सौभाग्य पाया ।
अम्माजी के आखिरी श्वास चल रहे थे तब पूज्यश्री ने पूछा : ‘‘किसीमें मोह हो तो उसको बुलाऊँ ?
अम्माजी : ‘‘किसीमें भी मोह नहीं है ।
‘‘तुम अपनी छोटी बेटी को बहुत प्यार करती थीं, उसको बुलाता हूँ ।
‘‘नहीं, किसीको नहीं बुलाओ ।
‘‘तू तो ब्रह्म-ही-ब्रह्म है ।
‘‘हाँ, मैं ब्रह्म-ही-ब्रह्म हूँ । शरीर छूटने पर इसकी तस्वीर रखेंगे तो किसीको उसके आगे पैसे नहीं रखने देना । मुझे कुछ नहीं चाहिए ।
‘‘हाँ अम्मा ! मैं सूचना लिखवा दूँगा । कुछ संतोष हुआ ?
‘‘हाँ । फिर अम्माजी के प्राण निकल गये ।
आज भी अम्माजी की समाधि के आगे ऐसा सूचना-पट्ट देखा जा सकता है ।
बाँटने का स्वभाव अम्माजी का शुरू से रहा । वे बेराणी गाँव में रहती थीं उस समय जेठानी सेवा की सामग्री बाँटने नहीं देती थी तो भी उनसे किसी-न-किसी प्रकार बाँटे बिना नहीं रहा जाता था । उनको यदि दो रोटी खाने को मिली तो आधी कुत्ते के लिए तथा आधी कौए के लिए निकाल देती थीं, फिर एक रोटी वे स्वयं खाती थीं । बाँटना उनके जीवन का अभिन्न अंग था ।
बापूजी के श्रीमुख से निकले वचन अम्माजी के लिए पत्थर पर लकीर की तरह थे । एक बार पूज्यश्री ने अम्माजी को कहा था कि ‘‘आप बीच-बीच में ॐ ॐ ॐ... राम राम राम... बोलते हुए दोनों हाथ ऊपर करके देव-मानव हास्य-प्रयोग किया करो तो आपका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा ।
बापूजी की इस आज्ञा का अक्षरशः पालन करते हुए अम्माजी नित्य देव-मानव हास्य-प्रयोग करतीं और साधक-भक्तों को भी करवातीं ।
एक बार अम्माजी के दर्शन करने कुछ साधक उनके पास पहुँचे । अम्माजी ने हास्य-प्रयोग कराया । दो साधकों ने उनके श्रीचरणों के पास जाकर कहा : ‘‘अम्मा ! मैं आपका फलाना…
अम्माजी ने अन्य साधकों की तरफ हाथ का इशारा करते हुए बडे स्नेहसिक्त शब्दों में कहा : ‘‘बेटा ! फिर ये लोग कौन हैं ? ये भी तो अपने हैं ।... अम्माजी के हृदय में सबके प्रति आत्मीयता का भाव इतना प्रगा‹ढ हो गया था कि उसमें ‘मेरे-तेरे’ की संकुचितता को अंशमात्र भी स्थान मिलना असम्भव था । पुनः तालियों की गडगडाहट एवं भगवन्नाम की तुमुल ध्वनि गूँज उठी और हास्य-रस से पूरा माहौल चैतन्यमय हो गया ।
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