संकल्पशक्ति का विज्ञान

आपके मस्तिष्क के पीछे का भाग ग्रहणकर्ता (रिसीवर) का काम करता है और आगे का भाग आदेश देने का काम करता है । मस्तिष्क के आगे के हिस्से से तुम्हारे संकल्प निकलते हैं और पीछे के हिस्से से संकल्प झेले जाते हैं । आप २ मिनट के लिए प्रयोग करनादेखना कि अभी अंदर कौन-सा विचार चल रहा है ?अच्छाअभी जो विचार चल रहा हैउसके बाद कौन-सा विचार आता है इसका जरा विचार करना २-५ मिनट । यदि विचार को देखने बैठोगे तो विचार खो जायेंगे और आपका मन विश्रांति पायेगा ।
अभी जो विचार चल रहा है उसके बाद दूसरा कौन-सा विचार आयेगा यह जानना तुम्हारे-हमारे बस की बात नहीं फिर भी विचार आते-जाते हैं । तो आपके मस्तिष्क के पीछे का हिस्सा जो है वह अनंत ब्रह्मांड से जु‹डा है । यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे । जो आपके सजातीय आंदोलन हैं उनको आपका मस्तिष्क ग्रहण करता है । आपके जैसे संस्कार हैं, उन संस्कारों के अनुकूल जो संकल्प ब्रह्मांड में घूम रहे हैं, वे आपको प्रेरित करके आपसे क्रिया करवा लेते हैं... तो हम हैं कठपुतली । रामायण में आता है :
उमा दारु जोषित की नार्इं ।
सबहि नचावत रामु गोसार्इं ।।
‘हे उमा ! (सर्वव्यापक, रोम-रोम में रमनेवाले) राम सबको कठपुतली की तरह नचाते हैं ।’
हमारा तन, जिसको आज हम ‘मैं’ बोल रहे हैं, सचमुच में तो वह भाड़ूती (भाड़े की) कठपुतली है । जैसा अनंत में, विराट में संकल्पों का गुंजन (स्पंदन) होता है, उस प्रकार के संकल्पों के द्वारा हमारी माँग और स्वभाव सक्रिय होते हैं । और एक जन्म नहीं, सदियों से हमारी यही हालत रही, हम पराधीन-पराधीन होते चले आये क्योंकि हमने अपने-आपको तो जाना नहीं, हम इस साधन (शरीर) को ‘मैं’ मानते हैं । तो इस साधन का उपयोग करनेवाले जो संकल्पों के आंदोलन हैं वे इसका उपयोग कर जाते हैं और हमको अपना ठिकाना रहता नहीं । और मजे की बात है कि उपयोग तो आंदोलन करते हैं लेकिन कर्तृत्व के बंधन में हम लोग आ जाते हैं ।
स्वामी रामतीर्थ इस बात का दृष्टांत दिया करते थे । अभी तो मनोवैज्ञानिक भी इस बात पर अध्ययन करके साबित कर रहे हैं । मानो ‘ए’ आदमी ने ‘बी’ का खून कर दिया है तो ‘ए’ जवाबदार है ‘बी’ की हत्या करने में । लेकिन उसके पीछे गहराई से अध्ययन किया जाय तो ‘ए’ इतना जवाबदार नहीं है । ‘डी’ (अन्य व्यक्ति) का ऐसा ही कुछ संकल्प हुआ है, ऐसा ही कुछ विचार रहा है कि ‘यह (बी) तो मर जाय ! इसको तो कोई सवाया मिले ! कोई सवाया मिले !!...’ ऐसे ही संकल्प ‘बी’ के ऊपर बहुत सारे लोगों के लगे हैं और वे ही संकल्प जब ‘ए’ और ‘बी’ के संकल्पों के टकराव में आये तो उन सब संकल्पों ने और ‘ए’ के जरा-से संकल्प ने जोर पकड़ के ‘बी’ की हत्या करा दी । अब पकड़ा तो ‘ए’ गया लेकिन बाकी के लोगों के जो संकल्प हुए हैं वे दिखते नहीं ।
तो जैसे आपको गाडी दिखेगी, अंदर का गेयर बॉक्स नहीं दिखेगा, ऐसे ही ड्राइवर के हाथ दिखेंगे, उसके अंदर का संकल्प नहीं दिखेगा । जो दिखता है उसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, चलानेवाली सत्ता कोई और होती है । उसी सत्ता के बल पर सब कार्य होते हैं । तो आप उस सत्ता के मूल को जान लो तो बेडा पार हो जाय । स्नेहसहित उस सत्ता के मूल का स्मरण और उस सत्ता के मूल में शांति व आनंद पाने में लग जाओ । सारी सत्ताओं का मूल है आत्मा-परमात्मा ।