जब जहाज किनारे आकर लगा तो राजकुमार ने देखा कि वजीर का लड़का वहां उपस्थ था। राजकुमार ने पद्मिनी से उसका परिचय कराते हुए कहा, “यह मेरा साथी है। सागर की यात्रा आरंभ करने तक मेरे दु:ख-सुख में इसने बराबर मेरा साथ दिया।वजीर का लड़का पद्मिनी क गदगद् हो गया। उस दिन वहीं रहने के लिए उसने एक भवन की व्यवस्था कर रक्खी थी। वहां पहुंचने पर राजकुमार को मैना की बात याद आ गई। राजकुमार ने कहा, “हमें यहां नहीं ठहराना। और कोई भवन देखो।वजीर के लड़के ने कहा, “आपके आने से पहले मैं यहां के सारे भवन देख चुका हूं। यह सबसे अच्छा है।पर राजकुमार ने उसकी एक न सुनी। वजीर के लड़के ने दूसरे भवन की खोज की। दूसरा भवन उस भवन के पास ही मिल गया। वे लोग उसमें ठहर गये। बड़ी देर तक राजकुमार उसे अपनी कहानी सुनात फिर वे सो गये। आधी रात के बाद जोर की गड़गड़ाहट हुई। वजीर का लड़का उठकर बाहर आया तो देखा, पहला भवन गिरकर मिट्टी में मिल गया है। उसने राजकुमार की दूरंदेशी की भूरी- भूरी प्रशंसा की। पद्मिनी तो सो गई, लेकिन राजकुमार रात-भर तारे गिनता रहा। भोर होने से पहले देखता क्या है कि एक काला विषैला सांप आया और कुण्डली मारकर पद्मिनी के जूते में बैठ गया। राजकुमार तो चिंतित होकर उस घड़ी की प्रतीक्षा क जूते में बैठे सांप को मारा ही रहा थ उसने तलवार निकाल कर सांप के दो टुकड़े कर डाले और बाहर फैंक कर पद्मिनी के उठने की राह देखने लगा। थोड़ी देर में पद्मिनी उठी। उसकी थकान दूर हो गई थी और उसके चेहरे की कांति लौट आई थी। उसने मुस्करा कर राजकुमार की ओर देखा। राजकुमार भी मुस्कराकर उसे पास गया और कुछ देर तक उसके मुलायम बालों को सहलाता र पद्मिनी मन ही मन विभोर हो रही थी कि उसे अपने जीवन साथी के रूप में एक ऐसा सुन्दर और पराक्रमी व्यक्ति म गया। वजीर के लड़के ने आगे की यात्रा उड़नखटो से करने का विचार किया और एक उड़नखटोला मंगवा भ लेकिन राजकुमार ने उसमें बैठने से साफ इनकार कर दिया। वजीर के लड़के को बड़ा बुरा लगा, पर राजकुमार के आगे उसकी एक न चली। वे घोड़ों पर सवार होकर ही आगे बढ़े। उड़नखटोले में कुछ और लोग बैठ गये, लेकिन थोड़ी दूर जाकर उड़नखटोला धड़ाम से नीचे आ गिरा और उसमें बैठे सब लोगों की जाने चली गईं। राजकुमार ने अनुभव किया कि मैना की भ थी। मार्ग में मनमोहक दूश्यों को देखते हुए वे लोग आगे बढ़ते गये। अपने द्वीप से पद्मिनी कभी बाहर नहीं गई थी। अब लम्बी- चौड़ी दुनिया उसके सामने थी। तरह तरह के लोग थे, तरह-तरह की उनकी पोशाकें थीं, तरह-तरह के उनके आचार-विचार थे। राजकुमार ने कहा, “पद्मिनी, अब हम एक ऐसे बाबा के आश्रम में चल रहे हैं, जिनके हृदय में प्रेम का दरिया बहता है। जो भी उनके पास जाता है, उसका मन जीत लेते हैं। जिन खड़ाऊ को पहनकर मैंने सागर पार किया था, वे उन्होंने ही दिये थे।पद्मिनी आश्चर्य कर रही थी कि आखिर राजकुमार ने उस विशाल सागर को कैसे पार किया! अब उसका भेद खुल गया। पद्मिनी ने कहा, “राजकुमार, संत लोग मोह-माया से परे होते हैं, लेकिन कोई- कोई संत ऐसे भी होते हैं, जो लोगों के दु:ख- दर्द को अपने ऊपर ले लेते हैं।कहते-कहते पद्मिनी के भीतर जैसे करुणा का स्रोत फूट पड़ा। उसने उसकी वाणी को अवरू कर दिया। बाबा का आश्रम अब कुछ दूरी पर था। राजकुमार ने कहा, “हमें देर भले ही हो जाये, पर हम रुकेंगे बाबा के आश्रम में ही।रास्ता काटने के लिए राजकुमार पद्मिनी को अच्छे- अच्छे किस्से सुनाता रहा। वह उन्हें ध्यान से सुनती रही। अंत में आसमान जब टिमटिमाते तारों से जगमगा उठा, वे आश्रम में पहुंच गये। बाबा कई दिन से उनकी राह देख रहे थे। इतनी देर कैसे हो गई, यह सोचकर उनका मन व्याकुल हो उठता था। राजकुमार को पद्मिनी के साथ सामने देखकर उनका हृदय हर्ष से पुलकित हो उठा। उन्होंने बड़ी ममता से उनका स्वागत किया और आश्रम के सर्वोत्कृष्ट कक्ष में उन्हें ठहराया। उस कक्ष में कोई दीवार नहीं थी। हरी- भरी वल्लरियों ने एक-दूसरे से लिपट कर उस कक्ष का निर्माण किया था। पद्मिनी उस कक्ष को देखकर रोमांचित हो उठी। बाबा ने बड़े प्यार से कहा, “तुम लोग बड़ा सफर करके आये हो। थक गये होंगे। कुछ खा- पी लो और आराम से सो जाओ।रात बढ़ती जा रही थी, अंधकार गाढ़ा हो रहा था, पर उस घने अंधेरे में भी आश्रम की आत्मा अपनी माधु रही थी। आश्रम के अंतेवासियों ने अपने शाही मेहमानों के लिए नाना प्रकार के व्यंजन तैयार कर दिये थे। बड़े उल्लास के वातावरण में मेहमानों ने आश्रम का प्रसाद पाया। प्रत्येक वस्तु इतनी स्वादिष्ट थी कि राजकुमार और पद्मिनी ने अनुभव किया, मानों वह किसी देवलोक में आये हों। बाबा बराबर उनके नीचे रहे और उन्हें पुलकित देखकर स्वयं आनंद विभोर होते रहे। पद्मिनी ने कहा, “मैं तो सोच भी नहीं सकती थी क में इस प्रकार मंगल होगा। पर संतों की महिमा को जानता है।यह सुनकर बाबा से चुप नहीं रहा गया। बोले, “पद्मिनी, आनंद भीतर की चीज़ है। जब मनुष्य का अंतर प्रमुदित होता है तो बाहर सब कुछ हरा-भरा दिखाई देता है।पद्मिनी ने सिर हिला कर बाबा के कथन को स्वीकृति दी। प्रसाद ग्रहण करने के बाद सब सो गये। बाबा ब्रह्म मुहूर्त में उठ गये। उन्होंने आश्रम का एक चक्कर लगाया, गोशाला में जाकर गायों को प्यार किया। तबतक राजकुमार और पद्मिनी उठकर वहां आ गये। बाबा ने हंसकर कहा, “पद्मिनी, तुम इस आश्रम में एक भी बूढ़ा पेड़ नहीं पाओगी, और देखो जब हम गायों को पुचकारते हैं, उनकी पीठ पर हाथ फिरते हैं तो उनके थनों से दूध की धारा बहने लगती है। पेड़-पौधे और पशु- पक्षी भी प्यार के भूखे होते हैं।पद्मिनी ने आश्रम में निगाह डाली तो सचमुच उसे एक भी बूढ़ा पेड़ दिखाई नहीं दिया और बाबा ने जब गायों को दुधाया और उनकी पीठ पर हाथ फिराया तो उनके थनों से दूध की धाराएं बहने लगीं। पद्मिनी चकित रह गई। ऐसा दृश्य उसने पहले कभी नहीं देखा था। आश्रम में मेहमान एक दिन रहना चाहते थे। बाबा के प्रेम ने उन्हें चार दिन रोक लिया। वहां के वातावरण में पद्मिनी का मन इतना रम गया कि जब विदा होने का समय आया तो वह रोने लगी। बाबा का दिल भी भर आया। उन्होंने कहा, “पद्मिनी, आश्रम तुम्हारा है। जब जी में आये, फिर आ जाना।राजकुमार ने बाबा को खड़ाऊं लौटा दिये और उनका आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ चले। राजगढ़ अभी दूर बहुत दूर था। बाबा के आश्रम से निकलते ही अचानक राजकुमार को उस राजकन्या का ध्यान आया, जिसे उसने वृक्ष की जड़ से रोगमुक्त किया था। राजा ने उससे आग्रह किया था कि वह उनकी घोषणा के अनुसार पुत्री का वरण करे और उनका आधा राज्य ले ले। राजकुमार ने अपने घोड़े को उसी नगर की ओर मोड़ दिया और कुछ ही समय में राजकुमार और पद्मिनी उस नगर में पहुंच गए। राजा राजकुमार के आगमन से बहुत आनन्दित हुए और जब उन्होंने पद्मिनी को देखा उन गदगद् हो गया। उन्होंने राजकुमार और पद्मिनी का पूरे सम्मान के साथ स्वागत किया। राजा ने राजकुमार से राजकुमारी को साथ ले जाने का अनुरोध किया तो राजकुमार ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, लेकिन जब राजा ने अपना आधा राज्य देने का प्रस्ताव किया तो राजकुमार ने उसे लेने में असमर्थता प्रकट की। राजकुमार ने एक दिन वहां ठहर कर राजा का आतिथ्य स्वीकार किया और अगले दिन पद्मिनी और राजकुमारी को साथ लेकर राजगढ़ की ओर रवाना हो गया। उनका अगला पड़ाव अब भभूत वाले बाबा के यहां था। मेहमानों का काफिल उसी ओर बढ़ रहा था। सूर्य की बाल-किरणें सारे वातावरण को बड़ी स्निग्धता प् कर रही थीं। आकाश निर्मल था। पक्षी कलरव कर रहे थे। सबके मन उमंग से भरे थे। उन्हें राजगढ़ पहुंचने की जल्दी थी, पर मार्ग के अनुपम दूश्य उनके पैरों में जंजीर डाल रहे थे। पर्वत श्रृंखला पार करते हुए तो वे इतने अभिभूत हुए कि घोड़ों पर से उतर पड़े और उपत्यकाओं की हरियाली तथा प शिखरों पर सुहावनी धूप की सुनहरी चादर देखकर सबके मन आनंद से उछलने लगे। पद्मिनी ने प्रकृति की उस छटा का जी-भर कर पान करते हुए राजकुमार का हाथ पकड़ लिया। बोली, “राजकुमार, मनुष्य अगर इतना ऊंचा उठ जाये, इतना निर्मल हो जाये तो धरती पर स्वर्ग उतर आये।एक अलौकिक आभा से पद्मिनी का मुख- मुण्डल दीप्त हो रहा था। उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे इंद्रलोक की कोई देवांगना इस धरती पर आ गई हो। वह मुस्कराती थी तो प्य के धवल निर्झर बहने लगते थे। वह हंसती थी तो सारी पुष्पों से आच्छादित हो उठती थी। बड़े स्नेह से भीग कर राजकुमार बार-बार उस कोमलांगी की ओर देखता था। उस अनमोल सम्पदा को पाकर वह बार-बार अपने भाग्य को सराहता था। उसे लगा, पर्वतों के उतार-चढ़ाव से पद्मिनी थक जायेगी। किन्तु पद्मिनी तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसने भावुक होकर कहा, “पद्मिनी तुम अब घोड़े पर बैठ जाओ। तुम्हारे पैर दर्द करने लगेंगे।पद्मिनी ने बड़े उल्लास से कहा, “क्यों तुम मुझे इस आनंद से वंचित करना चाहते हो?” उसके इस उद्गार से ऊंचे-ऊंचे पर्वत शिखर निहाल हो गये, उपत्यकाएं मुस्करा उठीं और घने गगनचुम्बी वृक्षों की गहरी हो गई। जाते समय राजकुमार ने वह पर्वत- माला बिना इधर- उधर देखे योंही पार कर ली थी, किन्तु आज तो उसके साथ एक ऐसा प्रकाशपुंज था, जिसके आलोक में भीतर-बाहर कहीं भी अंधकार रह नहीं सकता था। वे लोग घोड़ों पर सवार हो गये। पर्वतों को लांघ कर फिर मैदान में आ गये। राजकुमार ने हंसकर कहा, “हम लोग भी कैसे हैं, जहां घोड़ों पर बैठना चाहिए था, वहां बैठे नहीं, लेकिन जहां पैदल चल सकते थे, वहां घोड़ों पर सवार हो गये हैं।पद्मिनी यह सुनकर चुप न रह सकी। बोली, “राजकुमार मनुष्य पैदल चलता है तो धरती को उसका जाता है। पहाड़ों में पैदल न चलना पहाड़ों का अप करना है।पद्मिनी की इस बुद्धिमत्ता से राजकुमार का रोम- रोम पुलकित हो उठा। वह क्षण भर उसकी ओर देखता रह गया। बाबा का आश्रम अब दूर नहीं था। राजकुमार ने कहा, “पद्मिनी, अब हम उन बाबा के आश्रम में पहुंच रहे हैं, जिन्होंने मुझे एक ऐसी चमत्कारी भभूत दी थी, जिसे खाकर मुझे कोई नहीं देख सकता था और मैं सबको देख सकता था।फिर कुछ रुककर बोला, “उसी भभूत को मुंह में डालकर मैंने तुम्हारे सिंहल द्वीप में प्रवेश किया था।पद्मिनी ने कहा, “तो तुम मेरे महल में भी आये होंगे।” “नहीं।राजकुमार बोला, “मैंने तुम्हारे महल को बाहर से देखा था।” “भीतर क्यों नहीं आये?” राजकुमारी ने थोड़ा व्यग्र होकर पूछा। महल में जाना चाहता था, लेकिन जाने क्या सोचकर मुझे डर लगा। फाटक बंद था। खोलने की हिम्मत नहीं हुई। नगर का एक चक्कर लगाकर लौट आया। तभी मुझे अचानक ध्यान आया कि मैं अदृश्य तो हो गया हू, पर अपने असली रूप में कैसे आऊंगा? जब मैं इस चिन्ता में डूबा था कि यही बा आ खड़े हुए। मैंने उन्हें अपनी चिन्ता बताई तो उन्होंने भभूत की एक डिब्बी और दी और कहा कि इसे खाओगे तो अपने असली रूप में आ जाओगे। यह कहकर बाबा अंतर्धान हो गये।पद्मिनी यह सुनकर हंस पड़ी।
                    बाबा का आश्रम आ गया। आश्रम से कुछ दूर वे घोड़ों से उतर गये और पैदल वहां पहुंचे। बाबा आश्रम के पौधे को पानी पिला रहे थे। राजकुमार और उसके साथ एक गौरांग महिला को देखकर समझ गये कि वही पद्मिनी है। एक दूसरी राजकुमारी औ थी। बड़ी आत्मीयता से उन्होंने उनका स्वागत किया और अंदर आश्रम मे ले गये। साधु- संतों के प्रति पद्मिनी के मन में सदा से बड़े आदर- सम्मान की भावना रही थी। वह बार-बार बाबा के तेजस्वी चेहरे को देखती थी। उनके सान्निध्य में सारा आश्रम बड़ा भव्य लग रहा था। पद्मिनी ने उल्लसित होकर सांस ली और अपने आसन पर बैठकर आश्रम की एक- एक चीज को निहारने लगी। थोड़ी देर में बाबा के भक्तगण आ गये। वे मेहमानों को देखकर चले गये और थोड़ी देर में सुगंधित रंग-बिरंगे पुष्पों की मंजूषा लाये उन पुष्पों का उपहार पाकर मेहमान आनंदविभोर हो उठे। बाबा ने कहा, “हमारी यही सम्पद बाबा के इस निश्छल व्यवहार से पद्मिनी ने सिर झुकाकर बाबा के चरणों में प्रणाम किया। बोली, “बाबा, इससे अधिक मूल्यवान धन-दौलत और क्या होगी!जाते समय राजकुमार ने उस आश्रम को सरसरी निगाह से देखा था। आज जी-भर कर देखा। पद्मिनी साथ थी। इससे उसे और भी आनंद आया। आश्रम की हर चीज से प्रेम टपक रहा था। वह एक अलौकिक संसार था। विषाद का वहां नाम नहीं था। उल्लास ही उल्लास था। राजकुमार ने कहा, “पद्मिनी, ऐसे ही हमारी प्राचीन तपोवन रहे होंगे और ऐसे होंगे उनके संचालक। बाबा को देखो। लगता है, उनके भीतर अमृत भरा है।पद्मिनी तो ऐसा पह से ही अनुभव कर रही थी। वह तो मानो अमृत से भरे सरोवर में अवगाहन कर रही थी। आश्रम में वे तीन दिन रहे। उस धर्मालय को छोड़ने को उनका मन नहीं हो रहा था, पर राजगढ़ का मार्ग बड़ी बेचैनी से उनकी बाट जोह रहा था। बाबा कुछ दूर तक उनके साथ आये और आश्रम के जलाशय पर उन्हें आशीर्वाद देकर चले गये। जाते- जाते कह गये, “किसी जमाने ने कण्व ऋषि ने इसी प्रकार राजा दुष्यंत को अपने आश्रम से विदाई दी थी।उनका मार्ग अभी निरापद नहीं था। कुछ रुकावटें और थीं, जिन्हें राजगढ़ पहुंचने से पहले पार करना था। अब आने वाली थी जादुई नगरी। राजकुमार ने चुपचाप उंगली की अंगूठी देखी उसे अचानक विचार आया, यह अंगूठी उसकी तो रक्ष लेगी लेकिन यदि पद्मिनी के सामने कोई संकट आ गया तो क्या होगा? उसने मन को समझाया कि अब तक की सारी बाधाएं दूर होती गई हैं तो आगे की बाधाएं उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकेंगी। वे लोग आगे बढ़ते गये। काफी चलने पर जब बस्ती की इमारतें दिखाई देने लगीं तो राजकुमार ने कहा, “यह लो, आ गई वह नगरी, जहा मैंने एक रात बिताई थी।उसने उसे सारी बात सुना दी। सुनकर पद्मिनी के चेहरे का रंग फीका पड़ गया। यह देखकर राजकुमार ने कहा, “पद्मिनी डरने की कोई बात नहीं है। तुम निश्चिंत रहो।नगरी में घुसकर वे सब जादूगरनी के घर पर गये। आज उस घर के बाहर बुढ़िया नहीं, युवती मिली। राजकुमार को देखते ही दौड़कर उसके पास आ गई। उसका चेहरा खिल रहा था। बोली, “मैं कब से तुम्हारी राह देख रही थी।फिर उसने पद्मिनी की ओर देखकर कहा, “वाह, यही हैं पद्मिनीजी। आओ बहन, अपने घर में आओ।दुसरी राजकुमारी क सम्मान किया। वह उन्हें बड़े प्यार और आदर से अंदर ले गई। घर के ठाठ-बाट देखकर पद्मिनी का सारा भ काफूर हो गया। वहा डरावना कुछ नहीं था। एक आरामदेह पलंग पर उसने राजकुमार और पद्मिनी को बिठा द फिर उनके लिए कुछ व्यंजन तैयार किये। सबने आनंद से खाना खाया। राजकुमार को अचंभा हो रहा थ यहां बंदी बन कर रहा था, तब यह घर कैसा था और यहां का वातावरण कैसा था! आज? आज सबकुछ बदल गया था। वह महल जैसा था। भोजन करके युवती ने कहा, “आप लोग थके होंगे। रातभर विश्राम कर लो। कल बड़े तड़के हम लोग यहां से रवाना हो जायेंगे।राजकुमार जब उसे बाल लौटाने लगा तो उसने कहा, “अब मुझे इनसे क्या लेना-देना! मेरी मनोकामना पूर मुझे अब और क्या चाहिए?” राजकुमार ने बालों को फैंका नहीं। उन्हीं की बदौलत तो उसे इतना बड़ा सौभाग्य प्राप्त हुआ था। उसने बड़े आदरभाव से उन्हें एके ओर को रख दिया। बड़े सवेरे उठकर युवती ने राजकुमार और पद्मिनी को जगाया। वे उठे और तैयार होकर घर के बाहर आये। युवती ने आंसू भरी आंखों से हाथ जोड़कर उस घर से अंतिम विदा ली और राजकुमार और पद्मिनी के साथ रवाना हो गई। चलते समय राजकुमार को वजीर के लड़के की याद आई, जिसने अपने प्राण मुंह में रखकर एक रात यहां बिताई थी। अब वह आज के खुशी के दिन के देखने के लिए वहां नहीं था। जहाज से उतरने के कुछ दिन बाद ही राजकुमार ने उसे राजगढ़ भेज दिया था, जिससे वहां उनके स्वागत की तैयारियां हो सकें वे सब आगे बढ़े। जादू की नगरी पीछे छूट गई। पद्मिनी और युवती के बीच बातें चल पड़ीं। पद्मिनी ने पूछा, “बहन, तुम इस काम में कैसे पड़ गई?” युवती ने उत्तर दिया, “यह हमारा पुश्तैनी धंधा कब से आरंभ हुआ, मैं नहीं जानती, पर मेरी मां ने मेरे पिता को उसी प्रका पकड़ा था, जिस प्रकार मैंने राजकुमार को पकड़ा। मेरे पिता भी धवनगढ़ के राजकुमार थे। मेरी मां को सिद्धि थी कि मनुष्य को जो चाहे वह बना दे, सबसे आसान मनुष्य को मक्खी बना रखना था। वह उड़ नहीं सकती थी। जहां चिपका दी, चिपकी रहती थी। मैंने अपनी मां से वह सिद्धि प्राप्त कर ली।पद्मिनी ने गंभीर होकर कहा, “यह अच्छा काम तो था नहीं।युवती ने इस पर क्रोध नहीं किया। सहज स्वर में बोली, “बहन, अच्छा हो या बुरा, पुश्तैनी धंधा तो चलत फिर वह थोड़ा चुप रहकर बोली, “तुम विश्वास नहीं करोगी, पर सच यह है कि मुझे भी वह अच्छा लगता था। रूप बदलते मनुष्य का शरीर सूख जाता था, उसका तेज मंद पड़ जाता था। जबतक वह वहां से निकल भागने का इरादा छोड़ नहीं देता था, हम भी अपने काम से बाज़ नहीं आते थे। मां उन्हें कुत्ता बना देती थी। बेचारे दिन-भर भौंकते रहते थे। अगर तुम उनकी हालत देखती तो तुम्हारा क जाता। पर हम लोगों की दया- ममता तो मर गई थी। मुझे खुशी है कि उस घिनौने धंधे से मेरा पिण्ड छूट गया।राजकुमार धीरे-धीरे कोई गीत गुनगुना रहा था। पद्मिनी ध्यान से सुनने लगी। उसके लिए यह एक नया अनुभव था। प्यार से बढ़कर जगत में और क्या है? नेह का नाता नहीं तो ज क्या है? हाट में सब कुछ तुम्हें मिल जायेगा, इस धारा का राज्य भी तुमको सुलभ हो जायेगा। किन्तु पा सकते नहीं तुमप्यार। है बड़ा अनमोल मानव का दुलार।। राजकुमार का कंठ सुरीला था। जब गीत समाप्त हुआ तो उसने देखा कि पद्मिनी मुग् भाव से उसे ताक रही है। वह हंसने लगा, पर पद्मिनी तो जाने किस लोक में विचरण कर रही थी। बड़े आनंद से यात्रा आगे बढ़ती रही। सूर्य के पैर भी उनके साथ चलते रहे। रास्ते में उन्हें जलाश्य मिला, जिसके निर्मल जल में पक्षी किलोल कर रहे थे। दोपहर हो चुकी थी। राजकुमार ने घोड़े को रोक दिया। बोला, “आगे तो घना जंगल आयेगा। हम लोग यहीं पर भोजन कर लें और थोड़ा विश्राम भी।एक छायाकार वृक्ष के नीचे उन्होंने डेरा डाला, भोजन किया पर पक्षियों के प्रमोद ने उन्हें आराम नहीं करने दिया। वे आगे बढ़ चले। राजकुमार का अनुमान था कि वे दिन ढलने तक जंगल को पार कर लेंगे। कुछ ही कदम चलने पर जंगल शुरू हो गया। जाते समय वहां के घोर अंधियारे में हाथ को हाथ नहीं सूझता था, दम घुटता था, पर इस समय तो उनके पास प्रकाश की अद्युत किरण थी। पद्मिनी ने ऐसा दृश्य पहले कभी नहीं देखा था। पर वह उससे भयभीत नहीं हुई, राजकुमार जिस गीत को गा रहा था, उसकी पहली दो कड़ि कोमल स्वर से दोहराती रही: प्यार से बढ़कर जगत में और क्या है? नेह का नाता न हो तो जिन्दगी का क्या है? अब उसे सुनने की बारी राजकुमार की थी। उसका रोम- रोम पुलकित होता रहा। व्यक्ति का सबसे बड़ा बल आत्मबल होता है। वह उसमें भरपूर था। राजकुमार को याद आया कि जाते समय उन्हें इस जंगल में एक बाघ मिला था, जिसका उसके साथी ने बिजली की गति से घोड़े से कूदकर काम तमाम कर दिया था। पर उसने वह घटना जानबूझ कर पद्मिनी को सुनाई नहीं। सूखे, धरती पर पड़े पत्तों से जब घोड़ों की टापें टकराती थीं तब ऐसा लगता था कि क खूंखार जानवर आया, परउस दिन एक छोटा जानवर भी उन्हें नहीं मिला। पद्मिनी को पता था चीते, भेड़िये, जंगली सूअर घने वनों में बड़े आनंद से रहते हैं। उसकी इच्छा ऐसे जानवरों को दखने की थी, पर एक भी जानवर नहीं आया। पद्मिनी को बड़ी नि जंगल पार हुआ। दिन ढलने को था। राजकुमार को अभी अपना एक और वचन पूरा करना था। वह बाग अधिक दूर नहीं था। वे लोग तेजी से आगे बढ़ते रहे। पद्मिनी को राजकुम ने उस रात की घटना बड़े रसपूर्वक सुना दी थी। पद्मिनी का मन वहां पहुंचने को बड़ा आतुर हो रहा था। थोड़ा आगे बढ़ने पर उन्हें बाग का विशाल फाटक दिखाई देने लगा। राजकुमार ने संकेत से पद्मिनी को बता दि बाग है। फाटक पहले की तरह खुला था। उनके अंदर घुसते ही बंद हो गया, पर आज राजकुमार को पिछली बार की तरह पेड़ पर छिपकर नहीं बैठना पड़ा वे सब मजे में खड़े-खड़े परियों के नजारे देखते रहे।
                             राजकुमारी जब सिंहासन पर आसीन हुई तो राजकुमार अपने आप पद्मिनी और दोनों अन्य सुन्दरियों को लेकर उसके सामने जा खड़ा हुआ। उन्हें देखकर राजकुमारी का रोम रोम हर्षित हो उठा। अब वह उसके लिए कोई अजनबी राजकुमार नहीं था। उसके जीवन का एक अंग था। राजकुमारी ने पद्मिनी को तत्काल पहचान लिया। बोली, “पद्मिनी बहन, तुम मेरे पास आ जाओ।इतना कहकर वह सिंहासन से उठी और बड़े प्यार से हाथ पकड़ कर उसने उसे अपने पास बिठा लिया। इसी बीच राजकुमार ने दूसरी राजकुमारियों करा दिया। राजकुमारी ने उनका भी स्वागत किया। वह बाग अब उन विशेष मेहमानों की उपस्थि कई गुना जगमगा उठा। राजकुमारी ने उनके ठहरने की व्यवस्था कर दी। उसने राजकुमार से कहा, “मुझसे मिलने और मुझे विदा देने के लिए मेरी सखियां बहुत आतुर हैं। कल वे सब यहां इकट्ठी होंगी। परसों हम लोग यहां से प्रस्थान कर देंगे।राजकुमार ने बड़ी प्रसन्नता से इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। अगले दिन उस बाग की शोभा देखते ही बनती थी। दूर- पास की, छोटी- बड़ी सारी परियां व उन्हें देखकर लगता था कि इंद्रलो धरती पर उतर आया। सबके हृदय उमंग से भरे थे। राजकुमार ने सबका मन मोह लिया था और पद्मिनी ने तो जैसे सब पर जादू कर दिया था। उसके सौंदर्य को देखकर परियों की गर्दन नीची हो गई थी। पद्मिनी उनके बीच आमोद भरी मुद्रा में घूम रही थी। उसके जीवन में अब पूरी तरह नया मोड़ आ गया था। वह रात और अगला दिन उनका बड़े आनंद से बीता। परियों की राजकुमा परिवार वहां जमा हो गया थ उन्होंने मेहमानों को नाना प् के मूल्यवान उपहार दिये। राजकुमारी के माता-पिता भी आ गये। वे जिस लोक के स्वामी थे, वहां की प्रजा भी अ उमड़ पड़ी। जिसने उस समारोह को देखा, धन्य हो गया। तीसरे दिन उन्होंने वहां से विदा ली। राजकुमारी के पिता ने विदाई के समय राजकुमार को अंक में भर लिया। उनकी आंखों से कई बूंदें टपक पड़ीं। ममता केवल मर्त्यलोक की थाती नहीं है। ब्रह्माण्ड के सभी लोकों में मोह- ममता के सागर लहराते हैं। सच यह है कि बिना प्यार- ममता के कोई रह नहीं सकता। जिसके पास हृदय है, उसके पास प्यार की अनमोल सम्पदा है। मां ने बेटी को इतने आभूषण दिये कि उनको देखकर राजकुमारी अपने सिंहल द्वीप के आभूषणों को भूल गयी। सबके जीवन का वह ऐसा अनुभव था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा अब उन लोगों ने राजगढ़ की ओर प्रस्थान किया। जब राजकुमार वजीर के लड़के के साथ वहां से चला था, उसका मन तरह-तरह की आशंकाओं से भरा था। सिंहल द्वीप का जो चित्र उसके सामने आया था, वह किसी भी साहसी के दिल को दहला सकता था, किन्तु राजकुमार तो प्रतिज्ञाबद्ध था। उसे वहां जाना और पद्मिनी को प्राप्त करना था। उसने अपना हौसला बनाये रक्खा। फिर भी उसके मन के एक कोने में थोड़ा डर छिपा था। वह वहा कैसे पहुंचेगा? किन्तु उसके बंद रास्ते एक के बाद एक खुलते गये। उसकी प्रतिज्ञा पूर् हुई। उसे वह बेशकीमती रत्न मिल गया, जिसे पाना बड़े भारी सौभाग्य की बात थी। पूरी टोली उत्साह से भरकर अपने गंतव्य की ओर जा रही थी। राजकुमार के आनंद की सीमा नहीं थी। कहावत है कि जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि सफलत यदि सफलता नहीं मि करता है, वह पराजित हो गया। राजकुमार ने पद्मिनी को लाने की प्रतिज्ञा की थी उसका सिंहल द्वीप पहुंच जाना और एक अभेद्य दुर्ग को बेध कर पद्मिनी को ले आना आश्चर्यजनक उपलब्धि थी, जिस पर सहज ही गर्व किया जा सकता था। राजकुमार को गर्व तो नहीं था पर उसे संतोष अवश्य था। राजगढ़ अब भी काफी दूर था। राजकुमार बहुत दिनों के बाद लौट रहा था। तरह-तरह के विचार उसके मन में उठ रहे थे। सबसे छोटा होने के कारण वह राजा का सबसे लाडला बेटा था। उसके चले जाने और इतने दिन कोई खोज- खबर न मिलने पर उनकी क्या हालत हुई होगी। कहीं कुछ अनहोनी न हो गयी हो! ‘‘राजगढ़ अभी दूर है।’’ इस विचार के आते ही राजकुमार का सिर चकराने लगा। ऐसी स्थिति होती है तो प्रियजन के अनिष्ट की कल्पना सहज ही मन में उठ आती है। राजकुमार ने बार- बार सिर झटका। मन ही मन बुदबुदाया, “नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। उसके पिता सकुशल हैं। जिस भाभी के कारण उसे इतने दिन का देशनिकाला मिल वह भी सानंद होंगी। उसके मन में उनके प्रति आक्रोश शांत हो गया था। कृतज्ञता का भाव उमड़ आया था। आखिर उन्हीं के उपालंभ से उसे पद्मिनी जैसी गुणवत रूपमती नारी-रत्न का उपहार मिला। राजकुमार को विचारमग्न देखकर पद्मिनी ने मुस्करा कर पूछा, “क्यों, क्या सोच रहे हैं? अब तो तुम्हारा मनचाह सपना साकार हो गया। कोई हैरानी है क्या?” राजकुमार अपने में लौट आया। बोला, “अब मुझे कोई हैरानी नहीं है। पद्मिनी, मनुष्य के सामने विशाद हो या हर्ष, वह विचारों में डूब जाता है। मेरा मन भी पिता के लम्बे बिछोह की कल्पना से कुछ दु:खी हो उठा था, पर अब तो मेरे अंदर आनंद का सागर लहरा रहा है। तुम मिल गई, मैं धन्य हो गया।पद्मिनी राजकुमार के अंदर से निकले उद्गगारों को सुनकर विभोर हो उठी। बोली, “माता- पिता की याद तो मुझे भी सता रही है, किन्तु जो सौभाग्य मुझे मिला है, उसे न साराहूं तो मुझसे बढ़कर कृतध्न कौन होगा।कहते-कहते पद्मिनी की आंखें चमक उठीं। चेहरा आभा- मंडित हो गया। उसके भावों तो ताड़कर राजकुमार अभिभूत हो गया। बोला, “पद्मिनी तुमसे कहीं अधिक भाग्य की सराहना मुझे करनी चाहिए। तुम्हें कोई भी राजकुमार मिल सकता था, पर पद्मिनी तो हर किसी के भाग्य में नहीं बदी थी।राजकुमार और पद्मिनी दोनों ही अ सब प्रकार के भार से मुक्त हो गये थे। उनके सामने अब भावी जीवन के मधुर सपने थे। चलते-चलते उन्हें एक विशाल सरोवर मिला। जाते समय राजकुमार इतना चिंतित था कि उसका ध्यान उस ओर नहीं था, पर अब उसके मन की दशा भिन्न थी। सरोवर में पक्षी क्रीड़ा कर रहे थे और नाना वर्ण के कमल खिले थे। पास ही एक सुन्दर बाग था। राजकुमार ने कहा, “हम लोग थोड़ी देर यहां ठहर जायें। सरोवर में स्नान कर लें और थोड़ा खा-पी लें। तरोताजा होकर राजगढ़ पहुंचेंगे तो हमारा आनंद और बढ़ जायेगा।राजकुमार के इस प्रस्ताव को पद्मिनी ने ही नहीं, सबने स्वीकार किया और वे वहां रुक गये। सरोवर में जब उन्होंने स्नान किया तो पक्षी भी भाग्य पर ईर्ष्या कर उठे, कमल के फूलों की चमक बढ़ गई और सरोवर तो जैसे धन्य हो गया। ऐसा सौभाग्य तो उसे पहले कभी नहीं मिला था। स्नान करके उन सबने मिलकर खाना खाया। उनके आमोद-प्रमोद में वहां के पशु- पक्षी भी शामिल हो गये। पद्मिनी ने अपने हाथ से उन्हें खिलाया। सूर्य सिर पर आ गया था। थोड़ी देर आराम करके वे आगे बढ़ चले। राजकुमार ने कहा, “दिन छिपने से पहले हमें राजगढ़ पहुंच जाना चाहिए। रास्ते के खेत- खलिहान कभी- कभी उनका ध्यान खींच लेते थे, कभी कभी उड़ते हुए उनके पास से गुजर जाते थे। एक जगह झाड़ियों से घिरे मैदान में हिरण और उनके शावक उछल-कूद करते दीखे। पद्मिनी को वे बड़े अच्छे लगे। उसने राजकुमार से कहा, “एक हिरण को हम साथ क्यों न ले चलें। देखो, कितने आकर्षक हैं।राजकुमार ने हंसकर कहा, “नहीं, मैं ऐसा नहीं करूंगा। मुझे अपनी सीता खोनी न पद्मिनी हंस पड़ी। वह सीता-हरण की कहानी कभी पहले सुन चुकी थी। बोली, “नहीं वह तो मैं नहीं चाहूंगी। कितनी साधना के बाद तो हम लोग मिल पाये हैं।थोड़ी देर में राजगढ़ की सीमा आ गई। सब रोमांचित हो उठे। वहां पर स्वयं राजा उपस्थित थे, सारी प्रजा उपस्थि थी। उन्होंने सारी टोली का स्वा किया। पिता-पुत्र का जब मिलन हुआ तो मारे खुशी के उनकी आंखों से आंखू निकल पड़े। राजा को अपना खोय गया था और बेटे को उस पर प्यार बरसाते पिता। गाजे-बाजे के साथ सबने नगर प्रवेश किया। सजी- धजी नगरी बाहें फैलाकर उनका अभिनंदन कर रही थी। मकानों की छतों और छज्जों पर खड़ी स्त्रियां और बच्चे उनपर फूलों की वर्षा कर रहे थे। महल में रानियां उनकी आरत के लिए आतुर हो रही थीं। बड़े उल्लास से राजकुमार ने अपनी वाग्दनाओं के साथ महल में पैर रक्खा। आरती के मंद- मंद प्रकाश और अगरू की महक से महल की शोभा में चार चांद लग गये। थोड़ी देर में राजदरबार खचाखच भर गया। प्रजा भी अपने राजसी मेहमानों का करना चाहती थी। राजकुमार जब चारों राजकुमारियों साथ वहां आया तो प्रजा अपने प्यार दुलार से उन्हें सराबोर कर दिया। छोटे राजकुमार के बिना जो राजदरबा सूना पड़ा था, फिर जगमगा उठा। राजदरबार में राजकुमार तथा राजकुमारियों महल को देखकर सारी राजकुमारियों अपने महल क्षण-भर के लिए याद आये, जिन्हें वे पीछे छोड़ आई थीं। तभी उन्हें ध्यान आया कि अब उन महलों से उनका सरोकार क्या है। वे अब राजकुमार से रिश्ता जुड़ जाने पर पराये हो गये हैं। छोटे भाभी को राजकुमार के सामने आने में थोड़ा संकोच हो रहा था। मिलने- जुलने से अवकाश मिलने पर राजकुमार स्वयं भाभी के कक्ष में गया और उनके पैर छूकर आशीर्वाद मांगा। दोनों की आंखें बहने लगीं। भाभी कुछ कहें कि उससे पहले राजकुमार ने कहा, “भाभी, मैं तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूल सकूंगा। यदि तुमने मुझे उलहना न दिया होता तो यह हीरे- सी राजकुमारियां कैसे मिलतीं।भाभी के मुंह से बस यही निकला, “तुमने पद्मिनी को लाकर महल को जगमगा दिया।शुभ मुहूर्त्त देखकर राजकुमार के विवाह की तैयारियां की गईं बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। राजकुमार को एक से बढ़कर एक राजकुमारियां मिल गईं। महल आलोक से भर गया। प्रजा आनंदित हुई, राजा सुखी हुआ। पर कहानी खत्म नहीं हुई, और होती भी कहा? वह तो चलती रहती है। जीवन स्वयं एक लम्बी कहानी है।