सद् बुद्धि न हो तो बडे पद से बडा पतन।

                                वृत्रासुर के साथ संधि करके भी उसको मारने के कारण देवराज इन्द्र विश्वासघातरूपी दोष से अभिभूत हो दुःखी हुए तथा ब्रह्महत्या के भय से पीड़ित होकर अदृश्य हो गये । तब धरती पर अकाल पड गया और सभी जीव दुःखी हो गये । सभी देवताओं व ऋषियों ने राजा नहुष को इन्द्र-पद पर बैठाने का निर्णय किया व राजा को शासन-शक्ति प्रदान करने हेतु एक वर दिया : ‘‘जो भी आपके नेत्रों के सामने आयेगा, आप उसका तेज हर लेंगे तथा बलवान हो जायेंगे । परंतु इन्द्र-पद पाकर नहुष कामभोग में आसक्त हो गया ।
                                एक दिन नहुष की दृष्टि इन्द्र-पत्नी शची पर पडी तो वह दुष्टात्मा बोला : ‘‘सभासदो ! शची मेरी सेवा में क्यों उपस्थित नहीं होती ?
                                शची दुःखी होकर देवगुरु बृहस्पतिजी की शरण गयी । उनके बताये उपायानुसार शची ने नहुष से कुछ समय माँगा । अश्वमेध यज्ञ करके इन्द्र को लगा ब्रह्महत्या का दोष दूर किया गया ।
                                इन्द्र अपना स्थान ग्रहण करने स्वर्ग में आये किन्तु नहुष को मिले वरदान को जानकर पुनः अदृश्य हो गये । शची इन्द्र का पता लगाकर उनके पास पहुँची तो उन्होंने एक उपाय बताया । तदनुसार शची ने जाकर नहुष से कहा : ‘‘देवेश्वर !  आपका वाहन पहले जो इन्द्र थे, उनसे तथा भगवान विष्णु, रुद्र, असुरों व राक्षसों से सर्वथा भिन्न हो ऐसी मेरी इच्छा है । सप्तर्षि एकत्र होकर पालकी द्वारा आपका वहन करें ।
                                नहुष प्रसन्नता से बोला : ‘‘सुंदरी ! तुमने तो यह अपूर्व वाहन बताया । सप्तर्षि मेरी पालकी ढोयेंगे । मेरे माहात्म्य, समृद्धि को तुम प्रत्यक्ष देख लो ।
                                दुष्टात्मा नहुष ने यम-नियम का पालन करनेवाले बडे-बडे ऋषि-मुनियों का अपमान करके उन्हें अपनी पालकी में जोत दिया । वह संतद्रोही, स्वेच्छाचारी राजा बल के मद से उन्मत्त हो गया था ।
                                इन्द्राणी बृहस्पतिजी के पास जाकर बोली : ‘‘गुरुदेव ! गर्वित नहुष ने मेरे लिए जो समय निश्चित किया है उसमें थोडा ही शेष रह गया है । मैं आपकी भक्त हूँ । मुझ पर दया कीजिये ।
‘‘देवी! यह पापी धर्म को नहीं जानता अतः महर्षियों को अपना वाहन बनाने के कारण शीघ्र नीचे गिरेगा । मैं भी इसके विनाश के लिए यज्ञ करूँगा । और उन्होंने यज्ञ किया ।
                                घमंडी नहुष का बोझ ढोते-ढोते देवर्षि तथा ब्रह्मर्षि जब परिश्रम से थक गये थे तब वह मुनियों के साथ विवाद करने लगा और बोला : ‘‘मैं वेदमंत्रों को प्रमाण नहीं मानता । उस पापाचारी ने अगस्त्य ऋषि के मस्तक पर पैर से प्रहार किया । इससे उसका सारा तेज नष्ट हो गया और वह श्रीहीन हो गया ।
                                अगस्त्यजी बोले : ‘‘हे पापात्मा ! मूढ ! पूर्वकाल के ब्रह्मर्षियों ने जिसका अनुष्ठान किया है, जिसे प्रमाणभूत माना है, उस निर्दोष वेद-मत को तू सदोष तथा अप्रामाणिक मानता है ! इसके अलावा तूने जो मेरे सिर पर लात मारी है, जो तू ब्रह्माजी के समान दुर्धर्ष (जिन्हें हराना कठिन हो) तेजस्वी ऋषियों को वाहन बनाकर उनसे अपनी पालकी ढुलवा रहा है, इससे तू तेजोहीन हो गया है, तेरा पुण्य क्षीण हो गया है । अतः स्वर्ग से भ्रष्ट होकर धरती पर गिर । वहाँ १०,००० वर्षों तक सर्प होकर भटकेगा ।
इन्द्र ऐरावत पर आरूढ हो स्वर्ग में आये ।
                                दुरात्मा नहुष ने ब्रह्मवेत्ताओं से दुष्ट व्यवहार किया तो उसे स्वर्ग के राज्य से भ्रष्ट होना पडा और सर्पयोनि में भटकना पडा । ऐसे ही जो दुरात्मा, संतद्रोही लोग ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों को कष्ट पहुँचाते हैं, उनका अपमान करते हैं, वे भी इस जन्म में तो तेज-बल-सत्ताहीन होकर अंत तक कष्ट पाते ही हैं और न जाने कैसी-कैसी योनियों, कितने-कितने नरकों में यात्रा करते हुए कष्ट पाने का दुर्भाग्य बना लेते हैं !