कैसे सम, अनासक्त, धर्मश्रेष्ठ अवतार हैं श्रीकृष्ण !
पूर्णावतार श्रीकृष्ण

            भगवान श्रीकृष्ण का जीवन हमारे मानुषी जीवन को सर्वांगीण उन्नत करने के लिए पूर्ण अवतार माना गया है । माँ का प्रेम झेलते समय, मक्खन-लीला करते समय, ओखली से बँधने के समय श्रीकृष्ण को देखो तो बाललीला में पूरे-के-पूरे ! योद्धाओं में योद्धा भी पूरे, ज्ञानियों में ज्ञानी भी पूरे ! गीता ऐसी गायी कि विश्वविख्यात ग्रंथ हो गया । और एकांतवासी तपस्वियों में भी ऐसे कि 13 साल गुरु के द्वार पर जाकर अचल तत्त्व में विश्रांति पायी । पढ़ने में भी पूरे एकाग्रचित्त विद्यार्थी ! मित्रता निभाने में ऐसे उदार कि सुदामा गरीब सहपाठी थे, उनके पैर धोने में भी संकोच नहीं करते, उनके द्वारा स्नेह से लाये तंदुल (चावल) भी आदर से लेते हैं ।
            तो जन्माष्टमी के दिन तुम भी अपने किसी बचपन के मित्र को, किसी सुदामा को अपने घर आमंत्रित करो । उसकी सूखी-रूखी तंदुल जैसी कोई चीज हो तो प्रेम से स्वीकार करो और अपना अतिथि बनाकर उस पर प्रेम बरसाओ । यह बात भी श्रीकृष्ण ने नहीं छोड़ी है, यह भी दिखा दिया । जो प्रेम से पुकारते हैं और विनम्र भाव से, सच्चे हृदय से बुलाते हैं उनके आगे श्रीकृष्ण छछियाभर छाछ पर नाचने को तैयार हैं लेकिन जो चतुराई करके, छल-कपट करके अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं, श्रीकृष्ण को बुला के छप्पन भोग खिलाकर अपना नाम, अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं, उनके यहाँ श्रीकृष्ण नहीं गये ।

अपने-पराये नहीं, धर्म-प्रधान...
            श्रीकृष्ण के जीवन में वातावरण का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । युद्ध के संधिदूत होकर गये हैं और संधि कराने में सफल नहीं हुए फिर भी भीष्म को मान देते हैं । जिनका मुख कभी मलिन नहीं हुआ, मुख की प्रसन्नता कभी गयी नहीं, जो भय से कभी दिशाशून्य नहीं हुए, जो चिंता से कभी विमोहित (भ्रमित) नहीं हुए, जिन्होंने कुटुम्ब और परिवार के मोह में अपने धर्मकार्य या लोकोत्थान के कार्य में कभी गड़बड़ नहीं की, ऐसे हैं श्रीकृष्ण ! श्रीकृष्ण को न माननेवाला भी अगर धर्म के अनुसार चलता है तो भी श्रीकृष्ण उसको प्यार करते हैं और अगर अपने कुटुम्बी भी धर्म के प्रतिकूल चलते हैं तो अपने सामने ही कुटुम्बियों को सबक सिखाने का आयोजन करने का सामर्थ्य भी श्रीकृष्ण में है !
            यदुवंशियों को धन-सम्पत्ति मिल गयी थी और उसे हाथियों, घोड़ों, गधों, खच्चरों पर लादकर ले जा रहे थे । श्रीकृष्ण ने देखा कि इन्हें मुफ्त की राजकीय सम्पत्ति मिल गयी है, इससे इनकी बुद्धि भ्रष्ट होगी, शरीर रोगी होगा, मन मलिन होगा, चित्त ग्लानि से भर जायेगा । तो उन्होंने उसी वक्त जरासंध को छेड़ दिया । जरासंध ने आक्रमण कर दिया । श्रीकृष्ण का वहाँ से जाना जरूरी था, नहीं तो जरासंध वह सम्पत्ति कैसे लूट के ले जा पाता ? रणछोड़राय (श्रीकृष्ण) भाग गये और वह जरासंध माल ले गया । तब यदुवंशियों को संयमी जीवन गुजारना पड़ा । श्रीकृष्ण के जीवन में कभी ग्लानि नहीं, कभी हताशा नहीं, कभी निराशा नहीं, कभी उद्वेग नहीं । युद्ध के मैदान में भी समत्वयोग में स्थित हैं ।

समता-सम्राट श्रीकृष्ण

            श्रीकृष्ण को देखो तो सदा समता के साम्राज्य में स्थित । उनका चित्त इतना सम है, इतना शांत है कि सत्राजित राजा ने स्यमंतक मणि की चोरी का लांछन लगाया है, भाई बलराम ने भी संदेह जताया है फिर भी श्रीकृष्ण उद्विग्न नहीं होते हैं, उनको क्षोभ नहीं होता है । श्रीकृष्ण तो साधु-संतों का, एकांतवास का आदर करते थे, पवित्र वातावरण के लिए तो श्रीकृष्ण की स्वाभाविक चेष्टा होती थी लेकिन उनके पुत्र-पौत्र बिल्कुल विपरीत थे । एक भी बेटा उनकी आज्ञा में नहीं चला, एक भी पोता उनका आज्ञाकारी नहीं निकला, एक भी पुत्र या पौत्र श्रीकृष्ण जैसा खानपान स्वीकार नहीं करता था । श्रीकृष्ण सात्त्विक भोजन करते थे और साधु-संतों में श्रद्धा रखते थे तो यदुवंशी सोमपान (मादक रसपान) करते थे और उनकी ऐसी बुद्धि हो गयी थी कि साधुओं का मजाक उड़ाते थे, अपमान करते थे । जिस कुल में साधु-महापुरुषों का अनादर होता है  वह मेरा कुल कैसे ? उस कुल का नाश हो जाय तो मुझे कोई परवाह नहीं ।’ - इतनी अनासक्ति भी श्रीकृष्ण के जीवन में दिखती है । धर्म के लिए परिवार और कुटुम्ब की भी परवाह नहीं थी, ऐसे धर्मश्रेष्ठ हैं !


            श्रीकृष्ण का प्रयाण भी कोई समाधि लगाकर अथवा बड़े राजसिंहासन पर बैठ के या आराम से या वैद्यों, हकीमों से घिरे हुए नहीं हुआ है । कारागृह में तो जन्म हुआ है और कभी नंगे पैर भी भागना पड़ा है, ऋषियों के आश्रम में भिक्षा माँग के खानी पड़ी है । फिर भी भगवान श्रीकृष्ण सदैव अपने सनातन सत्यस्वरूप में प्रतिष्ठित रहे, मुस्कराते रहे । वे निराश या हताश बिल्कुल नहीं होते वरन् मुसीबतें उनके जीवन को चमकाने, प्रसिद्धि दिलाने एवं उन्हें पूजनीय बनाने में सहयोगी बन जाती हैं ।

लोकनायक हो तो ऐसा !

                श्रीकृष्ण एक ऐसे उदार लोकनायक थे कि जिन्होंने लोकमत (जनमत) की खूब रक्षा की । बड़े-बड़े अहंकारी प्रजाशोषकों का जहाँ बोलबाला था, वहाँ उनसे विरोध मोल लेकर भी गरीब, पिछड़ी हुई जनता का मान बढ़ाते हुए, उनके हृदय में प्रेम, शौर्य और बल जगाते हुए, अपने स्वरूप की तरफ इशारा करते हुए श्रीकृष्ण ने जो लोकजीवन बिताया है, ऐसा लोकजीवन बिताने के लिए लोकनायकों को, लोकनेताओं को श्रीकृष्ण के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए ।
            श्रीकृष्ण के अवतार-कार्यों को अगर हम लोग ठीक से समझ पाते और उनके अनुसार आचरण करते तो विश्व की महान सत्ताओं में इतने वर्षों तक हम पिछड़े हुए नहीं रहते । अगर श्रीकृष्ण की स्थितप्रज्ञता हमारे देश में आती तो विश्व की महान सत्ताओं में हमारा अव्वल दर्जा होता ।
            श्रीकृष्ण ने लीलापुरुषोत्तम जीवन बिताकर कैसे समाज का उत्थान किया, इसको याद करके, उन बातों का फायदा उठाकर अपने जीवन को और अपने इर्द-गिर्द आये समाज को उन्नत करने का संकल्प करने तथा अपने तन को तंदुरुस्त, मन को प्रसन्न, बुद्धि को आत्मज्ञान में प्रतिष्ठित करके अपना जीवन बिताने का संदेश तुम्हें जन्माष्टमी दिया करती है । हर साल जन्माष्टमी आती है और तुम्हारे में उत्साह, ताजगी, प्रसन्नता, स्नेह और साहस भर जाती है ।
जन्माष्टमी उत्सव की पूर्णता


            जन्माष्टमी अनूठा उत्सव है । जो अजन्मा है, निराकार है, निरंजन है, जो कर्षित और आकर्षित कर रहा है वह अंतर्यामी कृष्ण तुम्हारे हृदय में छलकने लग जाय, तब समझो कि उत्सव पूर्ण हो गया । उसी दिन आपने ठीक से जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जिस दिन आपको कृष्ण-तत्त्व का साक्षात्कार हुआ । हमारा प्रयत्न होते, होते... काश ! वह प्रयत्न पूरा हो जाय ताकि कृष्ण-जन्म हो जाय ! 5242 वर्ष पहले कृष्णावतार हुआ यह तो ठीक है लेकिन अब भी हर श्वास में तुम्हारे उस कृष्ण-तत्त्व का अवतरण हो रहा है और तभी तुम्हारी बुद्धि, तुम्हारा मन, तुम्हारी इन्द्रियाँ जी रही हैं । लेकिन अवतरण थोड़ा करते हो इसलिए सिकुड़े-सिकुड़े, दबे-दबे, मारे-मारे जीते हो । अगर पूर्ण अवतरण करो तो तुम भी पूर्ण कृष्णरूप हो जाओगे । अभी भी तत्त्वरूप से आप, हम - सभी वही हैं, अनुभूति की आवश्यकता है ।