भक्त कौन कहलाता है?
                     भक्त उसका नाम नहीं जो भागता रहे। भक्त उसका नाम नहीं जो कायर हो जाय। भक्त उसका नाम नहीं जो मार खाता रहे। किसी संत ने कहा थाः 'तुम्हें कोई एक थप्पड़ मार दे तो दूसरा गाल धर देना, क्योंकि उसकी इच्छा पूरी हो। उसमें भी भगवान है।' संत ने यह कहा, ठीक है। इसलिए कहा था कि कोई आवेश में आ गया हो तो तुम थोड़ी सहन शक्ति जुटा लो, शायद उसका द्वेष मिट जाय, हृदय का परिवर्तन हो जाये। उस संत का एक प्यारा शिष्य था। किसी गुंडा तत्त्व ने उसका तमाचा ठोक दिया। फिर पूछाः "दूसरा गाल कहाँ है?" शिष्य ने दूसरा गाल धर दिया। उस दुष्ट ने यहाँ भी तमाचा जमा दिया। फिर भी उस असुर को संतोष नहीं हुआ। उसने कहाः "अब तीसरा कहाँ रखूँ?" संत के शिष्य ने उस दुष्ट के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया और बोलाः "तीसरा गाल यह है।" "तुम्हारे गुरु ने तो मना किया था। उनका उपदेश नहीं मानते?" "गुरु ने इसलिए मना किया था कि अहिंसा की सुरक्षा हो। हिंसा न हो। लेकिन तुम्हें दो बार अवसर मिला फिर भी तुम्हारा हिंसक स्वभाव नहीं मिटा। तुम असुर हो। सबक सिखाये बिना सीधे नहीं होओगे।" अनुशासन के बिना आसुरी तत्त्व नियंत्रण में नहीं रहते। रावण और दुर्योधन को ऐसे ही छोड़ देते तो आज हम लोगों का समाज शायद इस अवस्था में न जी पाता। नैतिक और सामाजिक अन्धाधूंधी हो जाती। जब-जब समाज में ऐसा वैसा हो जाय तब सात्त्विक लोगों को सतर्क होकर, साहसी बनकर तेजस्वी जीवन बिताने का यत्न करना चाहिए। आप निर्भय रहे, दूसरों को निर्भय करे। सत्त्वगुण की वृद्धि करे। जीवन में दैवी बल चाहिए, आध्यात्मिक बल चाहिए। केवल व्यर्थ विलाप नहीं करना चाहिए कि, 'हे मेरे भगवान ! हे मेरे प्रभु " मेरी रक्षा करो... रक्षा करो...।

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