सेवा कैसे करें ?
            आपके मन में दूसरों की सेवा करने की आकांक्षा अवश्य है क्योंकि आप दूसरे से सेवा लिये बिना रह भी तो नहीं सकते ! विचारणीय यह है कि आप दूसरों की कैसी सेवा करना चाहते हैं - अपने मन की पसंद की या उसके मन की पसंद की ? सुख पहुँचाना चाहते हैं या हित करना चाहते हैं ? ये दोनों अलग-अलग वस्तु हैं, कभी-कभी एक होते हैं । विवेक करना कठिन है ! अपनी वासना सेवा में जुड जाती है । आप सूक्ष्म दृष्टि से देखिये, अपने द्वारा की हुई सेवा से आप अपने को गौरवान्वित करते हैं कि नहीं ? यदि ईश्वर की, सर्वात्मा की, मानवता, समाज, जाति, मजहब, वर्ग या किसीकी भी सेवा करके आपको यह अनुभव होता है कि मैंने एक बहुत बडा काम किया तो वह सेवा दूसरे की न होकर आपकी अपनी सेवा हो जाती है । इसमें सावधान रहने की बात इतनी ही है कि सेवा में अभिमान का उदय न हो जाय ।

            विश्व बहुत बडा है । उसकी आवश्यकताएँ और माँग बहुत बडी है । आपकी सेवा समुद्र में एक सीकर (जलकण) के समान भी नहीं है । आप अपने ही भीतर बैठे हुए ईश्वर के ज्ञान, उसकी शक्ति और उसके अद्भुत क्रियाकलाप का अनुभव कीजिये । देखेंगे कि ईश्वर से अलग आपका कोई सत्त्व-महत्त्व नहीं है । आप ईश्वर के यंत्र के रूप में बस सेवा करते रहिये, परम आनंद की उपलब्धि होगी ।