सबरीमला मंदिर किसकी
आंखों में खटक रहा है और क्यों ?
केरल
में सबरीमला के मशहूर स्वामी अयप्पा मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के नाम पर चल रहे
विवाद के बीच लगातार यह सवाल उठ रहा है कि आखिर इस मंदिर में ऐसा क्या है कि ईसाई
और इस्लाम धर्मों को मानने वाले तथाकथित एक्टिविस्ट भी कम से कम एक बार यहां घुसने
को बेताब हैं।
इस
बात को समझने के लिये हमें केरल के इतिहास और यहां इस्लामी और राज्य में बीते 4-5
दशक से चल रही ईसाई धर्मांतरण की कोशिशों को भी समझना होगा। मंदिर में प्रवेश पाने
के पीछे नीयत धार्मिक नहीं, बल्कि यहां के लोगों की सदियों पुरानी
धार्मिक आस्था को तोड़ना है, ताकि इस पूरे इलाके में बसे लाखों
हिंदुओं को ईसाई और इस्लाम जैसे अब्राहमिक धर्मों में लाया जा सके। केरल में चल
रहे धर्मांतरण अभियानों में सबरीमला मंदिर बहुत बड़ी रुकावट बनकर खड़ा है।
पिछले
कुछ समय से इसकी पवित्रता और इसे लेकर स्थानीय लोगों की आस्था को चोट पहुंचाने का
काम चल रहा था। लेकिन हर कोशिश नाकाम हो रही थी। लेकिन आखिरकार महिलाओं के मुद्दे
पर ईसाई मिशनरियों ने न सिर्फ सबरीमला के अयप्पा मंदिर बल्कि पूरे केरल में हिंदू
धर्म के खात्मे के लिए सबसे बड़ी चाल चल दी है। 1980 से
पहले तक सबरीमला के स्वामी अयप्पा मंदिर के बारे में ज्यादा लोगों को नहीं पता था।
केरल और कुछ आसपास के इलाकों में बसने वाले लोग यहां के भक्त थे।
70 और
80 के दशक का यही वो समय था जब केरल में ईसाई
मिशनरियों ने सबसे मजबूती के साथ पैर जमाने शुरू कर दिये थे। उन्होंने सबसे पहला
निशाना गरीबों और अनुसूचित जाति के लोगों को बनाया। इस दौरान बड़े पैमाने पर यहां
लोगों को ईसाई बनाया गया। इसके बावजूद लोगों की मंदिर में आस्था बनी रही। इसका
बड़ा कारण यह था कि मंदिर में पूजा की एक तय विधि थी जिसके तहत दीक्षा आधारित व्रत
रखना जरूरी था।
सबरीमला
उन मंदिरों में से है जहां पूजा पर किसी जाति का विशेषाधिकार नहीं है किसी भी जाति
का हिंदू पूरे विधि-विधान के साथ व्रत का पालन करके मंदिर में प्रवेश पा सकता है।
सबरीमला
में स्वामी अयप्पा को जागृत देवता माना जाता है। यहां पूजा में जाति विहीन
व्यवस्था का नतीजा है कि इलाके के दलितों और आदिवासियों के बीच मंदिर को लेकर अटूट
आस्था है। मान्यता है कि मंदिर में पूरे विधि-विधान से पूजा करने वालों को मकर
संक्रांति के दिन एक विशेष चंद्रमा के दर्शन होते हैं जो लोग व्रत को ठीक ढंग से
नहीं पूरा करते उन्हें यह दर्शन नहीं होते।
जिसे
एक बार इस चंद्रमा के दर्शन हो गए माना जाता है कि उसके पिछले सभी पाप धुल जाते
हैं।
सबरीमला
मंदिर की पूजा विधि देश के बाकी मंदिरों से काफी अलग और कठिन है। यहां दो मुट्ठी
चावल के साथ दीक्षा दी जाती है इस दौरान रुद्राक्ष जैसी एक माला पहननी होती है।
साधक को रोज मंत्रों का जाप करना होता
है।
इस दौरान वो काले कपड़े पहनता है और
जमीन पर सोता है।
जिस किसी को यह दीक्षा दी जाती है उसे
स्वामी कहा जाता है।
यानी
अगर कोई रिक्शावाला दीक्षा ले तो उसे रिक्शेवाला बुलाना पाप होगा इसके बजाय वो
स्वामी कहलायेगा।
इस
परंपरा ने एक तरह से सामाजिक क्रांति का रूप ले लिया। मेहनतकश मजदूरी करने वाले और
कमजोर तबकों के लाखों-करोड़ों लोगों ने मंदिर में दीक्षा ली और वो स्वामी कहलाये।
ऐसे लोगों का समाज में बहुत ऊंचा स्थान
माना जाता है।
यानी
यह मंदिर एक तरह से जाति-पाति को तोड़कर भगवान के हर साधक को वो उच्च स्थान देने
का काम कर रहा था जो कोई दूसरी संवैधानिक व्यवस्था कभी नहीं कर सकती है।
ईसाई मिशनरियों के लिये मुश्किल
सबरीमला
मंदिर में समाज के कमजोर तबकों की एंट्री और वहां से हो रहे सामाजिक बदलाव ने ईसाई
मिशनरियों के कान खड़े कर दिये उन्होंने पाया कि जिन लोगों को उन्होंने धर्मांतरित
करके ईसाई बना लिया वो भी स्वामी अयप्पा में आस्था रखते हैं और कई ने ईसाई धर्म को
त्यागकर वापस सबरीमला मंदिर में ‘स्वामी’ के
तौर पर दीक्षा ले ली।
यही
कारण है कि ये मंदिर ईसाई मिशनरियों की आंखों में लंबे समय से खटक रहा था।
अमिताभ
बच्चन, येशुदास जैसे कई बड़े लोगों ने भी स्वामी
अयप्पा की दीक्षा ली है।
इन
सभी ने भी मंदिर में रहकर दो मुट्ठी चावल के साथ दीक्षा ली है इस दौरान उन्होंने
चप्पल पहनना मना होता था और उन्हें भी उन्हीं रास्तों से गुजरना होता था जहां उनके
साथ कोई रिक्शेवाला, कोई जूते-चप्पल बनाने वाला स्वामी चल
रहा होता था।
नतीजा
यह हुआ कि ईसाई संगठनों ने सबरीमला मंदिर के आसपास चर्च में भी मकर संक्रांति के
दिन फर्जी तौर पर ‘चंद्र दर्शन’ कार्यक्रम
आयोजित कराए जाने लगे। ईसाई धर्म के इस फर्जीवाड़े के बावजूद सबरीमला मंदिर की
लोकप्रियता दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती रही थी।
इसीलिए
उन्होंने मंदिर में 10 से 50
साल तक की महिलाओं के प्रवेश पर लगी रोक को मुद्दा बनाकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका
डाल दी। यह याचिका कोर्ट में एक हिंदू नाम वाले कुछ ईसाइयों और एक मुसलमान की तरफ
से डलवाई गई।
1980
में सबरीमला मंदिर के बागीचे में ईसाई मिशनरियों ने रातों रात एक क्रॉस गाड़ दिया
था। फिर उन्होंने इलाके में परचे बांट कर दावा किया कि यह 2000
साल पुराना सेंट थॉमस का क्रॉस है इसलिये यहां पर एक चर्च बनाया जाना चाहिये।
उस समय
आरएसएस के नेता जे शिशुपालन ने इस क्रॉस को हटाने के लिए आंदोलन छेड़ा था और वो
इसमें सफल भी हुये थे।
इस
आंदोलन के बदले में राज्य सरकार ने उन्हें सरकारी नौकरी से निकाल दिया था।
केरल
के हिंदुओं के लिए यह इतना बड़ा मसला इसलिये है क्योंकि वो समझ रहे हैं कि इस पूरे
विवाद की जड़ में नीयत क्या है। राज्य में हिंदू धर्म को बचाने का उनके लिये यह
आखिरी मौका है। केरल में गैर-हिंदू आबादी तेज़ी के साथ बढ़ते हुए 35
फीसदी से भी अधिक हो चुकी है। अगर सबरीमला की पुरानी परंपराओं को तोड़ दिया गया तो
ईसाई मिशनरियां प्रचार करेंगी कि भगवान अयप्पा में कोई शक्ति नहीं है और वो अब
अशुद्ध हो चुके हैं।
ऐसे
में ‘चंद्र दर्शन’ कराने
वाली उनकी नकली दुकानों में भीड़ बढ़ेगी। नतीजा धर्मांतरण के रूप में सामने आएगा।
यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि जिन तथाकथित महिला एक्टिविस्टों ने अब तक
मंदिर में प्रवेश की कोशिश की है वो सभी ईसाई मिशनरियों की करीबी मानी जाती हैं।
जबकि जिन हिंदू महिलाओं की बराबरी के नाम पर यह अभियान चलाया जा रहा है वो खुद ही
उन्हें रोकने के लिये मंदिर के बाहर दीवार बनकर खड़ी हैं।
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