महिलाओं को क्यों नहीं है श्मशान जाने की अनुमति..?
भारतीय
संस्कृति की परम्पराओं को कुछ बुद्धिजीवी अंधविश्वास बोलते हैं पर हिन्दू धर्म में
मृत्यु के बाद की विधि भी किनती कल्याणकारी और वैज्ञानिक ढंग से सही है वे जानिए ।
मृत्युपरान्त
की जाने वाली हिन्दू विधियों के विषय में उठाए गए कुछ बहुत ही प्रचलित प्रश्न एवं
शंकाओं को नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं ।
1. मृत व्यक्ति के मुख में
गंगाजल डाल कर तुलसीपत्र क्यों रखते हैं ?
जब
प्राण निकलते हैं तब कई बार व्यक्ति का मुख खुल जाता है तथा शरीर से बाहर
निष्कासन-योग्य तरंगों का वातावरण में प्रक्षेपण होता है । मुख में गंगाजल डालने
से एवं तुलसीपत्र रखने से, उनकी ओर आकर्षित ब्रह्मांड की
सात्त्विक तरंगों की सहायता से, मुख से वातावरण में प्रक्षेपित दूषित
तरंगों का विघटन होता है । इस कारण वायुमंडल निरंतर शुद्ध रखा जाता है । उसी
प्रकार, गंगाजल एवं तुलसीपत्र के कारण मृतदेह
के आंतरिक कोषों की शुद्धि होती है एवं मुख से प्रवेश करने का प्रयत्न करने वाली
अनिष्ट शक्तियों को भी रोका जाता है ।
2. मृतदेह के कान एवं नाक
में तुलसीदल क्यों रखते हैं ?
मृतदेह
के कान एवं नाक में कपास रखने के स्थान पर तुलसीदल रखें । तुलसीदल के कारण कान तथा
नाक द्वारा सूक्ष्म वायु को तुलसी के कारण वातावरण में फैलने से रोका जा सकता है, साथ
ही वातावरण की शुद्धि भी होती है ।
3. महिलाओं को क्यों नही
है श्मशान जाने की अनुमति ?
प्राचीन
शास्त्रों के अनुसार, महिलाएं कोमल ह्रदयी होती है। किसी भी
बात पर वह सहज ही भावनात्मक हो जाती है। अंतिम संस्कार करते समय मृत शरीर कई बार
अकड़ने की आवाजें करता हुआ जलने लगता है, जिससे
उनके मन पर इसका गहरा प्रभाव पड सकता है। इसके अतिरिक्त वहां पर मृतक का कपाल
फोड़ने की क्रिया की जाती है, जो किसी को भी डरा सकती है ।
साथ
ही श्मशान में अतृप्त मृत आत्माएं घूमती रहती हैं। ये आत्माएं जीवित प्राणियों के
शरीर पर कब्जा करने का अवसर ढूंढती रहती है । इनके लिए छोटे बच्चे तथा रजस्वला
स्त्रियां सहज शिकार होती हैं । इनसे बचाने के लिए भी महिलाओं तथा छोटे बच्चों को
श्मशान जाने की अनुमती नहीं होती है ।
4. व्यक्ति की मृत्यु पर
घर में दीप किस दिशा में व क्यों लगाना चाहिए ?
प्राणत्याग
के समय व्यक्ति की देह से उपप्राण तथा अन्य निष्कासन योग्य सूक्ष्म-वायु वातावरण
में छोड़े जाते हैं और मृत्युस्थल पर बद्ध होते हैं । तत्पश्चात व्यक्ति की देह
निष्प्राण हो जाती है । इसलिए व्यक्ति के वासनामयकोष से संबंधित रज-तमात्मक तरंगों
का गोलाकार वेगवान भ्रमण, व्यक्ति के मृत्युस्थान पर आरंभ हो जाता
है और इस भ्रमणकक्षा में प्रवेश करने वाले अन्य जीवों को कष्ट की संभावना अधिक
होती है । इस प्रकार के कष्ट से बचने हेतु, व्यक्ति
के मृत्यु स्थान पर दीप जलाना चाहिए । दीप की ज्योति का मुख दक्षिण दिशा की ओर, अर्थात
यम दिशा की ओर रखकर जलाएं; क्योंकि इस दिशा में मृत्यु के देवता ‘यम’ वास
करते हैं । दीया जलाने के उपरांत यमदेवता से प्रार्थना करें, ‘आप
से आने वाली तेज तत्त्वात्मक तरंगें इस दीप की ज्योति की ओर आकर्षित हों व उससे
प्रक्षेपित तरंगों से वास्तु में मृत देह की रजतमात्मक तरंगों के संचार पर अंकुश
लगे और उन का विघटन हो ।’ प्रार्थना से दीप की ज्योति कार्यरत
होती है व उस स्थान पर गोलाकार भ्रमण करने वाली रज-तमात्मक तरंगों का समूल उच्चाटन
करती है । इस कारण पहले पांच दिन ज्योति में हलचल अधिक होती है । इस से ज्योति की
कार्यमान अवस्था का बोध होता है । तत्पश्चात लगभग सातवें दिन के उपरांत ज्योति
शांति से जलती है । ज्योति का शांति से जलना, रज-तमात्मक
तरंगों की मात्रा के अल्प होने एवं उनके विघटन का प्रतीक है ।
5. गेहूं के आटे पर दीप
क्यों जलाते हैं ?
गेहूं
के आटे के गोले पर दीप जला कर रखते हैं । आटे के कारण ज्योति की ओर आकर्षित तेज
तत्त्वात्मक तरंगें दीर्घकाल तक दीप में टिकी रहती हैं एवं धीरे-धीरे
आवश्यकतानुसार उन का दूर तक प्रक्षेपण होता है । इससे तेजतत्त्वात्मक तरंगों का
भूमि पर सूक्ष्म-आच्छादन बनता है और रज-तमात्मक तरंगों का विघटन होता है, जिससे
पाताल की अनिष्ट शक्तियों द्वारा बाधाएं न्यून होती हैं और यह प्रक्रिया निर्विघ्न
संपन्न होती है । रज-तमात्मक तरंगों के समूल उच्चाटन के कारण मृत व्यक्ति के भूलोक
में अटकने की संभावना न्यून होती है ।
6. दीप में एक ही बाती
क्यों लगाते हैं ?
व्यक्ति
की मृत्यु हो जाने पर उसका पंच महाभौतिक शरीर अचेतन हो जाता है; केवल
आत्मज्योति ही प्रज्वलित रहती है । इसके प्रतीक स्वरूप एक ही बाती लगाते हैं ।
7. मृत व्यक्ति को नहलाकर
नए वस्त्र क्यों पहनाए जाते हैं ?
‘श्री गुरुदेव दत्त ।’ के
नामजप का उच्चारण ऊंची अवाज में करते हुए मृत व्यक्ति को नहलाएं । नामजप का
उच्चारण करते हुए नहलाने वाले जीव के हाथों से संक्रमित सात्त्विक तरंगों से जल
अभिमंत्रित होता है और वातावरण भी शुद्ध हो जाता है । ऐसे वातावरण में सात्त्विक
तरंगों से युक्त जल द्वारा मृतदेह को नहलाने पर, उसकी
देह के रज-तम कणों का आवरण नष्ट होता है और देह में शेष निष्कासन योग्य सूक्ष्म
वायु के निकलने में सहायता मिलती है । मृतदेह को ऐसे नहलाने का अर्थ है, एक
प्रकार से उसकी आंतर्-बाह्य शुद्धि करना । नहलाने के उपरांत मृतक को नए कपड़े
पहनाएं । इन कपड़ों को धूप (सुगंधित द्रव्य) दिखाकर अथवा उन पर गौमूत्र या तीर्थ का
जल छिड़क कर उन्हें शुद्ध करें । ऐसा करने से नए कपड़ों के माध्यम से मृतक की चारों
ओर सुरक्षा-कवच निर्माण होता है ।
8. मृतदेह का दहन अधिकतर
दिन के समय क्यों करना चाहिए ?
मृतदेह
का दहन अधिकतर दिन के समय करना चाहिए; क्योंकि
दहनकर्म एक तमोगुणी प्रक्रिया है । रात तमोगुण से संबंधित होती है । इस कारण इस
समय तमोगुणी अनिष्ट शक्तियों की मात्रा अधिक होती है । यह समय अनिष्ट शक्तियों के
तमोगुणी आक्रमणों को गति देने वाला होता है; इसलिए
इस समय दहन प्रक्रिया करने से लिंगदेह को मृत्युपरांत गति प्राप्त करने में बाधा
उत्पन्न हो सकती है तथा लिंगदेह पर होने वाले अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण बढने के
कारण वह अनिष्ट शक्तियों के नियंत्रण में जा सकती है; इसलिए
संभवतः रात्रि के समय मृतदेह के दहन की प्रक्रिया को अयोग्य समझा जाता है ।
9. अर्थी के लिए केवल बांस
का ही उपयोग क्यों करते हैं ?
बांस
के खोखल में गोलाकार घूमती नादशक्ति से प्रक्षेपित नादतरंगों के प्रभाव से
वायुमंडल में सूक्ष्म अग्नि की ज्वाला निर्माण होती है । इन तरंगों से अभिमंत्रित
वायुमंडल की कक्षा में, अर्थात अर्थी पर मृतदेह रखने से उसकी
चारों ओर सुरक्षाकवच निर्माण होता है । भूमि पर उक्त तरंगों का सूक्ष्म-आच्छादन
निर्माण होने से, अर्थी पर अधिकांश समय तक रखी मृतदेह
पाताल से प्रक्षेपित कष्टदायक स्पंदनों से सुरक्षित रहती है । इससे मृतदेह के पास
आने वाली अनिष्ट शक्तियों पर अंकुश लगाना संभव हो जाता है ।
10. दहनविधि के लिए जाने से
पूर्व मृत देह को पीठ के बल लिटाकर उसके दोनों पैर के अंगूठों को एक-दूसरे से
बांधने का अध्यात्मशास्त्र क्या है ?
दहनविधि
के लिए ले जाने से पूर्व मृतदेह को पीठ के बल लिटा कर उसके पैरों के अंगूठों को
बांधने से उसके शरीर की दाहिनी व बार्इं नाड़ी का संयोग होता है और शरीर की तरंगों
का शरीर में ही गोलाकार भ्रमण आरंभ होता है । इससे मृत्यु के समय शरीर में शेष
सूक्ष्म-ऊर्जा के बल पर हो रहे तरंगों के प्रक्षेपण पर पूर्णतः अंकुश लगता है व
संक्रमण प्रक्रिया गति पकड़ लेती है । इस अवस्था में मृतदेह के दोनों भागों से
तरंगों का संक्रमण समान मात्रा में आरंभ होता है व शरीर के केंद्रबिंदु पर, अर्थात
नाभिचक्र पर दबाव पडता है । इससे आकर आंतर्-खोखल में शेष निष्कासन योग्य सूक्ष्म
वायु जोर से ऊर्ध्व दिशा में धकेली जाती है; वह
मुख अथवा नाक से निकलती है अथवा मस्तिष्क खोखल में स्थिर हो कर दहन विधि के समय
कपाल फूटने की प्रक्रिया में निकलती है ।
11. श्मशान जाते समय मृतदेह
के साथ मटकी क्यों ले जाते हैं ?
‘मटकी में घनीभूत नाद शक्ति द्वारा
प्रक्षेपित नाद तरंगों के स्त्रोत के कारण, मृतदेह
के आस पास निर्मित रज-तमात्मक तरंगों का निरंतर उच्चाटन होता है । इस कारण अनिष्ट
शक्तियों के आक्रमण से मृत देह का निरंतर रक्षण होता है । मटकी की अग्नि के
अंगारों से प्रक्षेपित तेजतत्त्वात्मक तरंगों के कारण मटकी में निर्मित नादतरंगें
कार्यरत हो जाती हैं और वातावरण में उनका वेगवान प्रक्षेपण आरंभ हो जाता है । मटकी
की अग्नि से प्रक्षेपित तेज संबंधी तरंगों के कारण, वायुमंडल
में रज तम तरंगों का निरंतर विघटन होता है एवं प्रक्षेपित नाद तरंगों के कारण, रज-तमात्मक
तरंगों के घर्षण से उत्पन्न तप्त सूक्ष्म वायु के संचार पर भी अंकुश लगाने में
सहायता मिलती है । इस कारण मृत देह के आसपास के वायुमंडल की निरंतर शुद्धि होती है
और मृतदेह के साथ चलने वाले व्यक्तियों को अनिष्ट शक्तियों द्वारा कष्ट की संभावना
बहुत अल्प हो जाती है ।
12. मृतदेह को श्मशान ले
जाते समय उस की अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने वाले ऊंची आवाज में ‘श्री गुरुदेव दत्त ।’ का नामजप क्यों करें ?
पूर्वजों
को गति देना’ दत्त तत्त्व का कार्य ही है, इसलिए
दत्तात्रेय देवता के नामजप से अल्प कालावधि में लिंगदेह को व वातावरण-कक्षा में
अटके हुए उसके अन्य पूर्वजों को गति प्राप्त होती है ।
13. मृत व्यक्ति द्वारा
प्रयुक्त वस्तुओं का क्या करें ?
जब
व्यक्ति मर जाता है, तब उसके जीवनकाल में पहने हुए उसके सभी
कपड़े, वस्तु आदि का उपयोग घर के अन्य सदस्य करें अथवा
किसी बाहरी व्यक्ति को दान कर दें, इस
संबंधी स्पष्ट जानकारी धर्मशास्त्रों में नहीं मिलती । अध्यात्मशास्त्र के अनुसार
साधारण व्यक्ति के नित्य
उपयोग
की वस्तुओं में उसकी आसक्ति रह सकती है । यदि ऐसा हुआ, तो
मृत व्यक्ति का लिंगदेह उन वस्तुओं में फंसा रहेगा, जिससे
उसे मृत्यु के पश्चात गति नहीं मिलेगी । अतः मृत व्यक्ति के परिजनों को आगे दिए
अनुसार आचरण करना चाहिए ।
अ.
मृत व्यक्ति ने अंतिम दिन जो कपड़े पहने थे अथवा जो ओढा-बिछाया था, उसे
अंतिम यात्रा के साथ ले जाकर चिता में रख देना चाहिए । मृत व्यक्ति ने जो कपड़े
पहले कभी पहने थे अथवा जो ओढ़ना-बिछौना पहले कभी ओढ़ा-बिछाया था, वह
सब एकत्र कर अंतिम यात्रा में ले
जाना
बहुधा नहीं हो पाता । ऐसी वस्तुओं को कुछ दिन पश्चात अग्नि में जला देना चाहिए ।
आ.
मृत व्यक्ति ने जिन कपड़ों को कभी नहीं पहना था, वे
(कोरे) कपडे उसके परिजन अथवा अन्य व्यक्ति पहन सकते हैं ।
इ. ‘व्यक्ति
की मृत्यु जिस खाट पर हुई हो, वह खाट अथवा पलंग ब्राह्मण को दान करना
चाहिए’, ऐसा धर्मशास्त्र कहता है । यदि वह पलंग दान
नहीं कर सकते, तब मृत व्यक्ति के परिजन अपनी आर्थिक
क्षमतानुसार नया पलंग बनाने का लागत मूल्य ब्राह्मण को दान कर सकते हैं ।
ई.
मृत व्यक्ति की घड़ी, भ्रमणभाषी (मोबाइल), लेखन-सामग्री, पुस्तकें, ‘झोले
(बैग)’ आदि वस्तुओं को गोमूत्र से अथवा तीर्थ से शुद्ध
कर लें । इनपर यज्ञ की विभूति की अथवा सात्त्विक अगरबत्ती की विभूति की फूंक मारें
। पश्चात इन वस्तुओं पर दत्तात्रेय भगवान के सात्त्विक चित्र चिपकाएं, इनके
चारों ओर दत्तात्रेय के सात्त्विक नामजप-पट्टियों का मंडल अथवा चौखटा बनाएं ।
(सनातन-निर्मित ‘दत्तात्रेयके चित्र और नामजप-पट्टियां’ बहुत
सात्त्विक होते हैं ।) परिजन यदि इन वस्तुओं का उपयोग करना चाहें, तो
मृत्य के 6 सप्ताह पश्चात दत्तात्रेय भगवान से
प्रार्थना कर, ऐसा कर सकते हैं ।
उ.
संतों का शरीर चैतन्यमय होता है । इसलिए उनकी वस्तुओं में देहत्याग के पश्चात भी
चैतन्य रहता है । इस चैतन्य का लाभ सबको मिले, इसके
लिए उन्हें धरोहर की भांति संभालकर रखना चाहिए ।
14. पिंडदान कर्म नदी के तट
पर अथवा घाट पर क्यों किया जाता है ?
‘मृत्यु के उपरांत स्थूल देहत्याग के
कारण लिंगदेह के आसपास विद्यमान कोष में पृथ्वीतत्त्व अर्थात जड़ता की मात्रा घटती
है और आपतत्त्व की मात्रा बढ़ जाती है । लिंग देह की चारों ओर विद्यमान कोष में
सूक्ष्म आद्रता की मात्रा सर्वाधिक होती है । पिंडदान कर्म लिंगदेह से संबंधित
होता है, इस कारण लिंगदेह के लिए पृथ्वी की
वातावरण-कक्षा में प्रवेश करना सरल बनाने हेतु, अधिकतर
ऐसी विधियां नदी के तट पर अथवा घाट पर की जाती हैं । ऐसे स्थानों में आपतत्त्व के
कणों की प्रबलता होती है और वातावरण आद्रता (नमी) दर्शक होता है । अन्य जड़तादर्शक
वातावरण की अपेक्षा उक्त प्रकार का वातावरण लिंगदेह को निकट का एवं परिचित का लगता
है और उसकी ओर वह तुरंत आकर्षित होता है । इसलिए पिंडदान जैसी विधि को नदी के तट
पर अथवा घाट पर ही किया जाता है ।
14 अ. पिंडदान कर्म नदी
के तट पर अथवा घाट पर शिवजी के अथवा कनिष्ठ देवताओं के मंदिरों में क्यों किया
जाता है ?
सामान्यतः
नदी के तट पर अथवा घाट पर बने मंदिरों में पिंडदान कर्म किया जाता है । इस के लिए
अधिकांशतः शिवजी के अथवा कनिष्ठ देवता के मंदिरों का उपयोग किया जाता है; क्योंकि
उस स्थान की अनिष्ट शक्तियां इन देवताओं के वश में होती हैं । इससे पिंडदान में
किए आवाहनानुसार पृथ्वी की वातावरण कक्षा में प्रवेश करने वाले लिंगदेह की यात्रा
में बाधाएं निर्माण नहीं होती हैं । अन्यथा पिंडदान कर्म के समय अनिष्ट शक्तियां
वातावरण-कक्षा में प्रवेश करने वाले लिंगदेह पर आक्रमण कर उसे अपने वश में कर सकती
हैं । इसलिए पिंडदान कर्म से पहले उस मंदिर के देवता से अनुमति लेकर व उनसे
प्रार्थना करके ही यह विधि की जाती है ।
15. अंत्यसंस्कार उपरांत
तीसरे दिन ही अस्थिसंचय क्यों करते हैं ?
मंत्रोच्चार
की सहायता से मृतदेह को दी गई अग्नि की धधक अर्थात अस्थियों में आकाश एवं तेज
तत्त्वों की संयुक्त तरंगों का संक्रमण । यह तीन दिन के उपरांत न्यून होने लगता है
। इस कारण अस्थियों की चारों ओर निर्मित सुरक्षा कवच की क्षमता भी अल्प होने लगती
है । ऐसे में अस्थियों पर विधि कर, अनिष्ट
शक्तियां उस जीव के लिंगदेह को कष्ट दे सकती हैं और उसके माध्यम से परिजनों को भी
कष्ट दे सकती हैं । इस कारण परिजन तीसरे दिन ही श्मशान जैसे रज-तमात्मक वातावरण
में से अस्थियों को इकट्ठा कर वापस ले आते हैं ।
16. दसवें दिन पिंड को कौवे
द्वारा छुआ जान महत्त्वपूर्ण क्यों माना जाता है ?
‘काकगति’ पिंडदान
में किए गए आवाहनानुसार पृथ्वी की वातावरण-कक्षा में प्रवेश करने वाले लिंगदेह की
गति से साधम्र्य दर्शाता है । कौवे का काला रंग रज-तम का दर्शक है, इसलिए
वह ‘पिंडदान’ के
रज-तमात्मक कार्य की विधि से साधम्र्यदर्शाता है । कौवे के आसपास सूक्ष्मकोष में
भी लिंगदेह के कोष समान ही ‘आप’ कणों
की प्रबलता होती है, इसलिए लिंगदेह के लिए कौवे की देह में
प्रवेश करना बहुत सरल हो जाता है । वासना में अटके लिंगदेह भूलोक, मर्त्यलोक
(भूलोक व भुवलोक के बीच का लोक), भुवलोक व स्वर्गलोक में अटके होते हैं
। ऐसे लिंगदेह पृथ्वी की वातावरण-कक्षा में प्रवेश करने के उपरांत कौवे की देह में
प्रवेश कर पिंड के अन्न का भक्षण करते हैं । बीच का पिंड मुख्य लिंगदेह से संबंधित
होता है, इस कारण इस पिंड को कौवे द्वारा छुआ
जाना महत्त्वपूर्ण माना जाता है । प्रत्यक्ष में कौवे के माध्यम से पिंड के अन्न
का भक्षण कर (स्थूल स्तर पर) तथा अन्न से प्रक्षेपित सूक्ष्म-वायु ग्रहण कर
(सूक्ष्म स्तर पर), ऐसे दोनों माध्यमों से लिंगदेह की
तृप्ति होती है व इस अन्न से पृथ्वी की कक्षा को भेद कर आगे जाने की उसे स्थूल व
सूक्ष्म स्तरों पर ऊर्जा प्राप्त होती है । स्थूल ऊर्जा लिंगदेह के बाहर के
वासनात्मक कोष का पोषण करती है व सूक्ष्म-वायुरूपी ऊर्जा लिंगदेह को आगे जाने के
लिए आंतरिक बल प्राप्त करवाती है ।’
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ, ‘मृत्युपरांत
के शास्त्रोक्त क्रियाकर्म’
0 टिप्पणियाँ