शिक्षा प्रणाली में बदलाव की जरूरत - पूनम नेगी।

                   व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास के लिए गुलामी के जमाने से चली आ रही शिक्षा प्रणाली में बदलाव आज वक्त की सबसे जरूरी मांग है। इसके लिए महत्वपूर्ण है शिक्षक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास। विकास सिर्फ पढ़ाने की क्षमता को लेकर ही नहीं बल्कि एक बेहतर इंसान के तौर पर भी। जरा गहराई से सोचिए कि क्या वाकई आजकल के बच्चों को स्कूलों में सही शिक्षा, सही वातावरण मिल रहा है ? या फिर हमारे घर के संस्कारों में ही कुछ कमी है जो आजकल के बच्चे जरा-जरा सी बात पर मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। समाज को एक बेहतर पीढ़ी सौपने की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है। अगर वे इस सामाजिक दायित्व का निर्वहन सही तरीके के नहीं करते तो यह मानवता के प्रति एक अपराध ही है।
                   आज आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के साथ एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें सुनने को मिलती हैं। तमाम जागरूकता के बाद भी जातिगत भेदभाव प्राइमरी स्तर के स्कूलों में आम बात है। नैतिक मर्यादायें तोड़कर शिक्षकों के अश्लील कार्यों में लिप्त होने घटनाएं भी आम हैं। घोर व्यवसायीकरण ने शिक्षा को धंधा बना दिया है। संस्कारों की बजाय धन महत्वपूर्ण हो गया है। शिक्षण संस्थाएं केवल डिग्रीधारक पैदा करने की मशीन हो गयी हैं। आज नौकरी पाने की शैक्षणिक योग्यता तय कर दी गई है कि यदि आप ग्रेजुएट हैं तभी यह फॉर्म भर सकते हैं और पोस्ट ग्रेजुएट हैं तभी अमुक पद के योग्य। आज शैक्षणिक योग्यता शब्द के साथ प्रतिस्पर्धा जुड़ गयी है। इसी होड़ ने जीवन हो पूर्ण यांत्रिक बना दिया है। फिर क्या इस बात की कोई गारंटी है कि यदि आपके पास यह डिग्री है तो आप उस पद के योग्य हों ही। फिर आज इन डिग्रीधारियों की शैक्षिक गुणवत्ता भी सबके समाने उजागर है।
                   भारत में गुरू-शिष्य की लम्बी परम्परा रही है। प्राचीनकाल में राजकुमार भी गुरूकुल में ही जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और विद्यार्जन के साथ-साथ गुरू की सेवा भी करते थे। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनि, अर्जुन-द्रोणाचार्य से लेकर चन्द्रगुप्त मौर्य-चाणक्य एवं विवेकानंद-रामकृष्ण परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श एवं दीर्घ परम्परा रही है। उस एकलव्य को भला कौन भूल सकता है, जिसने द्रोणाचार्य की मूर्ति स्थापित कर धनुर्विद्या सीखी और गुरूदक्षिणा के रूप में द्रोणाचार्य को अपना हाथ का अंगूठा ही सौंप दिया। मगर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो हमारी गौरवशाली शिक्षक-शिष्य की परंपरा कलंकित हो रही है। ऐसे में आज देश में शिक्षकों के आंतरिक विकास के लिए बड़े पैमाने पर बदलाव की जरूरत है, वरना देश में प्रेरणादायक शिक्षक तैयार नहीं हो पाएंगे। जरा गहराई से विचार कीजिए हम उसी पावन धरती के निवासी हैं जहां के लोग गुरु व शिक्षक को विद्या का वरदान देने वाले भगवान का दर्जा देते आये हैं। ज्यादा पुरानी बात नहीं, दो तीन दशक पुरानी बात करें तो हमारे समाज में शिक्षकों के प्रति प्रति खासा मान-सम्मान व आदर हुआ करता था। पर बीते कुछ सालों में तेजी से उभरी हाईटेक तकनीक ने शिक्षा ही नहीं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र की वैश्विक जानकारियों का जखीरा इंटरनेट पर परोसकर ग्लोबल विलेज का सपना साकार किया है पर इस हाइटेक तकनीक के दुष्परिणाम भी कम नहीं हैं। खुलेआम परोसी जाने वाली अवांछनीय सामग्रियों से बुरी तरह मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा है। वर्जनाएं टूट रही हैं। आयेदिन स्कूलों में शिक्षकों द्वारा बच्चों को मारने पीटने की घटनाएं हों या शिक्षकों के अनैतिक आचरण के काले कारनामें; समाज पर एक बदनुमा दाग हैं ये कुकृत्य। ऐसे मामलों पर अंकुश लगे बिना देश की भावी पीढ़ी न सुशिक्षित हो सकती है न सुसंस्कारी।
                   वर्तमान शिक्षा प्रणाली के बारे में सद्गुरु एक बहुत प्रेरक बात कहते हैं, "आप चाहे जितना बोलना चाहें, बोल लें, कोई भी आपसे प्रेरित नहीं होने वाला। आपको किसी न किसी न रूप में एक उदाहरण बनना होगा। अगर शिक्षक का भीतरी विकास नहीं होगा तो आज के दौर में जब सारी सूचना और जानकारी इंटरनेट के एक क्लिक पर उपलब्ध हैं; ऐसे में महज किताबी जानकारी देने के रूप में शिक्षक का कोई महत्व नहीं। कारण कि जानकारी आज हर जगह उपलब्ध है। ऐसे में आज शिक्षक को जानकारी का पुलिंदा नहीं वरन प्रेरक शक्ति बनने की जरूरत है और इसके लिए उसे खुद का विकास इस तरह करना होगा कि लोग स्वाभाविक रूप से आपका आदर करें वर्ना आज के समय में आप पुस्तकीय ज्ञान चाहे जितना बघार लें, कोई भी विद्यार्थी आपसे प्रेरित होने वाला नहीं।"
                   ऐसे में सबसे ज्यादा जरूरी है गुलाम भारत में मैकाले प्रणीत नौकरशाह तैयार करने वाली शिक्षा प्रणाली को बदलने की। अंग्रेजों ने एक साजिश के तहत इस तरह की शिक्षा प्रणाली विकसित की थी ताकि शिक्षित होने पर भी उनकी मानसिकता गुलामी की बनी रहे। यह सच है कि बीते कुछ समय में हमने अपनी शिक्षा प्रणाली में छोटे-छोटे कई बदलाव किए हैं, लेकिन वास्तव में अपनी शिक्षा पर पुनर्विचार नहीं किया। हमें शिक्षा में कुछ नया करने की जरूरत है। हमारी धरती सदियों से जिज्ञासुओं की धरती रही है। यही वजह है कि हमने अभी भी अपनी संस्कृति को बनाए रखा है। हम पर बार-बार आक्रमण हुए, कई लोगों ने हम पर शासन किया, लेकिन कोई भी हमारी चिरंतन संस्कृति को नष्ट नहीं कर पाया। जिज्ञासु अर्थात एक सक्रिय बुद्धि जहां आपकी शिक्षा कभी रुकती नहीं है, एक सतत चलने वाली प्रक्रिया; हमारे भीतर सुसंस्कारिता का बीजारोपण करने वाली प्रक्रिया जो मनुष्य को मानवता के पथ पर चलने का पाठ पढाती है।
                   गुरु-शिष्य की अहमियत को उजागर करने वाला एक रोचक प्रसंग विश्व विजेता सिकंदर और उसके गुरु अरस्तु के जीवन का है। एक बार एक उफनायी तूफानी नदी पार करने सिकंदर और अरस्तु साथ खड़े थे। अरस्तु ने कहा पहले मैं नदी पार कर दूसरे किनारे पहुंच जाऊं तब तुम पार करना क्योंकि यदि कोई खतरा होगा कम से कम देश का सम्राट तो बच जाएगा। इस पर सिकंदर उत्तर दिया। नहीं! नदी पहले मैं ही पार करूंगा गुरुदेव क्योंकि मैं जानता हूं कि यदि मुझे कुछ भी हो जाएगा तो महान अरस्तु में मुझसे ज्यादा बेहतर सिकंदर बनाने की क्षमता विद्यमान है किन्तु गुरु की अनुपस्थिति में राष्ट्र बिखर जाएगा उसकी आत्मा चली जाएगी। कहा जाता है कि सिकंदर जब विश्वविजय के लिए निकला तो उसके गुरु अरस्तु ने कहा था, "भारत में अनेक शिक्षक हैं; उनमे एक महान शिक्षक है विष्णुगुप्त यानी चाणक्य। वह काला ब्राह्मण प्रकाश पुंज बन कर भारत की धरा को आलोकित कर रहे हैं। विनाश और निर्माण उसकी गोद में खेला करते है, तुम्हें उससे बचना होगा! " शिक्षक की महत्ता से जुड़ा ऐसा ही एक शिक्षाप्रद वाकया मुगल काल का भी है। कहा जाता है कि क्रूर मुगल बादशाह ने जब अपने पिता शाहजहाँ को बंदी बनाकर कैदखाने डाला तो उसने अपने पिता से कहा कि कोई तीन चीजें जिनसे तुम्हारी जरूरत पूरी होती हो, मांग लो। तब शाहजहाँ ने कहा- मुझे खाने के लिए चने, पीने के लिए पानी और काम करने के लिए शिक्षण कार्य दे दो। इस मांग पर औरंगजेब कुटिलता से मुस्कुराया और कहा पहली दो चीजें मैं तुम्हें देता हूँ लेकिन शिक्षा देने का कार्य यदि मैंने तुम्हें दिया तो आने वाले दिनों में औरंगजेब कैद में होगा और शाहजहाँ अपने सिंहासन पर।"
                   आज जरूरत इस बात की है कि शिक्षक और शिष्य दोनों ही इस पवित्र संबंध की मर्यादा की रक्षा के लिए आगे आयें ताकि इस सुदीर्घ परंपरा को सांस्कारिक रूप में आगे बढ़ाया जा सके। 21वीं सदी के डेढ दशक बाद आज हमारा समाज जिस उत्तर आधुनिकता की किशोरवय लांघ चुका है, उसमें यह बात यह शिद्दत से महसूस की जा रही है कि मानसिक जड़ता को मिटाने के लिए एक नयी बौद्धिक व्यवस्था की जरूरत है। पिछले एक दशक से यह आवाज जोर पकड़ने लगी है कि वास्तविक रूप में समाज के सभी अंगों में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एक नयी शिक्षा क्रांति की जरूरत है।
                   सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे कि शिक्षक ही मनुष्य जीवन में अनेक संभावनाओं के द्वार खोलता है। शिक्षक तब गौरवशाली होता है जब उसके ज्ञान के आलोक में राष्ट्र का गौरव बढ़ता है और राष्ट्र अपने जीवन मूल्यों, राष्ट्र की संस्कृति व उत्कृष्ट परम्पराओं को नवजीवन देता है। कोई भी राष्ट्र तब सफल होता हैं जब उसका शिक्षक अपने उत्तरदायित्वों का; अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन करता है। वही शिक्षक सफल माना जाता है जब वह अपने विद्यार्थियों में चरित्र निर्माण, राष्ट्रीयता, करुणा, संवेदनशीलता व सहभागिता का निर्माण करने में सफल होता है। एक बार डॉ. राधाकृष्णन विदेश में दर्शनशास्त्र पर भाषण देने गये हुए थे। भोज के समय एक अँग्रेज ने भारतीयों पर व्यंग्य करते हुए डॉ. राधाकृष्णन से कहा - हिन्दू संस्कृति कोई संस्कृति है? कोई गोरा है, कोई काला, कोई बौना है, कोई टोपी पहनता है तो कोई पायजामा। हमें देखिए हम सभी गोरे-गोरे, लाल-लाल। इस पर डॉ. राधाकृष्णन तपाक से बोले- ठीक कहते हैं आप। घोड़े सभी अलग-अलग रंगों के होते हैं जबकि गधे सारे एक ही रंग। अलग-अलग रंग एवं पहनावा तो विकास की निशानी है। ऐसा था उनका राष्ट्रप्रेम और हाजिरजवाबी।
                   शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन योगदान निश्चय ही अविस्मरणीय है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी हमारे पूर्व राष्ट्रपति राधाकृष्णन एक जाने-माने विद्वान, प्रखर वक्ता, कुशल प्रशासक, सफल राजनयिक होने के साथ एक बेहद लोकप्रिय शिक्षक भी थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी वे शिक्षा के क्षेत्र में आजीवन सतत योगदान करते रहे। उनका कहना था कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। 1962 में जब डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वालों ने उनका जन्मदिन मनाने की इच्छा जाहिर की। डा. राधाकृष्णन ने कहा कि यदि आप मेरे जन्मदिन को "शिक्षक दिवस" के रूप में मनाएंगे तो मैं खुद को काफी गौरवान्वित महसूस करूंगा। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डा.राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, व सांस्कृतिक मूल्यों को विकसित करने की टकसाल के रूप में गढ़ना चाहते थे। यह डा. राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे। डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनंददायी अभिव्यक्ति और हंसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।

                   डॉ. राधाकृष्णन कहा करते थे कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व होता है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी होना काफी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में संतुलित बौद्धिक विकास और लोकतांत्रिक भावना बहुत जरूरी है। यही गुण व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का मूल लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य है। वे कहते थे कि शिक्षक जब तक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षों तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनना जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान,सहृदय व धैर्यवान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है। शिक्षक का काम है ज्ञान को एकत्र करना या प्राप्त करना और फिर उसे बांटना। उसे ज्ञान का दीपक बनकर चारों तरफ अपना प्रकाश विकीर्ण करना चाहिए।