संस्कृत भाषा को बढावा देने के लिए ऑटो चालक के बेटों ने उठाया संस्कृत के प्रसार का बीड़ा

उज्जैन : राघव और माधव दोनों जुड़वा भाई हैं । इनकी विशेषता यह है कि, ये आज के आम युवाओं से जुदा हैं । दोनों ने एक मिशन अपने हाथ में लिया है, जो अनूठा है । राघव और माधव की इच्छा है कि, देवभाषा संस्कृत का विस्तार हो और आगामी पीढ़ी इसमें संवाद करना सीखे । जुड़वा भाइयों ने इसके लिए दस दिन का कोर्स डिजाइन किया है । दोनों गांव-गांव जाकर देवभाषा का विस्तार करना चाहते हैं ।

राघव और माधव के पिता अनूप पंडित व इनकी माता आशा भी संस्कृत में एमए हैं । अनूप पहले बैंक में नौकरी करते थे । अब ऑटो रिक्शा चलाते हैं । अनूप बताते हैं कि, राघव और माधव की बचपन से ही संस्कृत में रूचि थी । दोनों घर पर संवाद भी इसी भाषा में करते हैं । इनकी रूचि को देखते हुए पहले बाल गंगाधर तिलक वेद विद्या प्रतिष्ठान मालीपुरा में दाखिला दिलाया । प्रारंभिक शिक्षा के बाद इन्हें श्री राज राजेश्वरी धाम धामनोद भेजा गया । यहां दोनों भाइयों ने राघवानंदजी महाराज से वेद और संस्कृत का ज्ञान लिया । पश्चात उज्जैन के पं. जगदीश चंद्र भट्ट ने दोनों को इस विद्या को प्रयोग में लाना सिखाया ।

फिलहाल दोनों भाई संस्कृत महाविद्यालय से शास्त्री की उपाधि प्राप्त कर रहे हैं । साथ ही बच्चों को निशुल्क संस्कृत की शिक्षा देते हैं । राघव और माधव ने बताया कि, उनकी इच्छा देवभाषा संस्कृत को देश के हर गांव तक ले जाने की है । वे चाहते हैं कि, देश का हर बच्चा अपनी मूल भाषा को जाने । इसके लिए दस दिन का एक कोर्स भी डिजाइन किया है । दस दिन में कोई भी व्यक्ति आसानी से संस्कृत में संवाद करना सीख सकता है । उपाधि प्राप्त होते ही देशभर में मिशन की शुरुआत कर दी जाएगी ।


बता दें कि, देवभाषा संस्कृत का विस्तार करने के लिए देश विदेश में बडी मात्रा में प्रयास जारी है । यूरोप के प्रमुख देश जर्मनी में पिछले कुछ वर्षों से संस्कृत को लेकर जो रूचि उत्पन्न होनी शुरू हुई थी, वह अब लगभग सच्चार्इ में परिवर्तित हो चुकी है ! सरलता से विश्वास नहीं होता, परन्तु यही सच है कि, वर्तमान में जर्मनी के १४ विश्वविद्यालयों में संस्कृत और भारतीय विद्याओं पर न केवल पढ़ाई चल रही है, बल्कि इसके लिए बाकायदा अलग से विभाग गठित किए गए हैं। इसी प्रकार ब्रिटेन के चार विश्वविद्यालय संस्कृत की पढ़ाई जारी रखे हुए हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ हेडेलबर्ग के प्रोफ़ेसर अक्सेल माइकल्स बताते हैं कि, जब १५ वर्ष पहले हमने संस्कृत विभाग शुरू किया था, तो दो-तीन वर्षों में ही उसे बन्द करने के बारे में सोचने लगे थे। जबकि आज की स्थिति यह है कि, संस्कृत की पढ़ाई करने के इच्छुक यूरोपीय देशों से हमें इतने आवेदन मिल रहे हैं कि, हमें उन्हें मना करना पड़ रहा है कि, स्थान खाली नहीं है ! अभी तक ३४ देशों के २५४ छात्र संस्कृत का कोर्स कर रहे हैं और यह संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती ही जा रही है !