पत्तल में भोजन करने के होने वाले अद्भुत स्वास्थ्य और सामाजिक लाभ को।
पत्तल में खाना
खाना हमारी पुरानी संस्कृति का हिस्सा रहा हैं। ये कोई दकियानूसी बात नहीं थी
बल्कि ये स्वस्थ्य के हिसाब से बहुत ही उंच था। आज भी आदिवासी लोग इनका उपयोग करते
थे।
भारत में पत्तल
बनाने और इस पर भोजन करने की परंपरा कब शुरू हुई, इसका कोई
प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं है लेकिन यह परंपरा सदियों से चली आ रही है।पत्तों
से खाना खाने हेतु प्लेट, प्यालियाँ आदि बनाना समूचे भारत में
प्रचलन में है। हलवाइयों की दुकानों चाट एवं मिठाइयां पत्तों से बने दोनों में ही
ग्राहकों को बेची जाती रही हैं। गांवों में विवाह एवं सामूहिक भोज दोना-पत्तलों
में ही परोसे जाते रहे हैं। इस प्रकार के बर्तनों के प्रयोग में छुआछूत प्रथा एवं
जाति प्रथा का भी योगदान रहा है। इनके उपयोग में सबसे सुविधाजनक बात तो यह है कि
उपयोग के बाद इन्हें फेंका जा सकता है। यह आसानी से स्वतः नष्ट हो जाते हैं। इनसे
पर्यावरण की भी हानि नहीं होती।
भारत में सदियों
से विभिन्न वनस्पतियों के पत्तों से बने पत्तल संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा रहे
हैं। ये पत्तल अब भले विदेशों में लोकप्रिय हो रहा है भारत में तो कोई भी
सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक उत्सव इनके बिना पूरा नहीं हो सकता था। इन
समारोहों में आने वाले अतिथियों को इन पत्तलों पर ही भोजन परोसा जाता था।
ग्रामीण अंचलों
में शादी-ब्याह में खाखरे/पलाश के पत्ते से बने दोना और पत्तल में बारातियों और
रिश्तेदारों को भोजन कराया जाता था ।आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे देश मे
अनेक वनस्पतियों की पत्तियों से तैयार किये जाने वाले पत्तलों और उनसे होने वाले
लाभों के विषय मे पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान उपलब्ध है पर मुश्किल से पाँच प्रकार
की वनस्पतियों का प्रयोग हम अपनी दिनचर्या मे करते है।
पत्तल का
सामान्य अर्थ पत्तों को जोड़कर बनाया हुआ थाली के समान वह बड़ा गोलाकार आधार जिस
पर भोजन आदि के लिए चीज़ें रखी जाती हैं।पलाश,महुए आदि के
पत्तों को छोटी छोटी सीकों की सहायता से जोड़कर थाली के सदृश बनाया हुआ गोलाकार
आधार को पत्तल कहा जाता हैं।
हमारे समाज मे
बहुत समय से शुभ मंगल कार्यो और विवाह आदि में पत्तल में भोजन करने एवम कराने की
परंपरा चली आती रही है, पर अब समय के साथ-साथ यह चलन कम हो
गया। पत्तल पर खाना न केवल सुविधा की दृष्टि से लाभप्रद है, बल्कि
सेहत के लिए भी फयदेमंद है।यूं तो दोने-पत्तल बनाने और बेचने का कार्य सालभर चलता
है परन्तु दशहरा त्यौहार के आस-पास अक्टूबर-नवम्बर माह में यह काम बहुत चलता है।
इस समय नवरात्री और दशहरा के अवसर पर यहाँ व्यापक पैमाने पर भंडारे आयोजत किये
जाते हैं जिनमे लाखों लोग खाना खाते हैं। इस कारण बड़ी मात्रा में दोने-पत्तल की
आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त चैत्र नवरात्रों, मृत्यु भोज तथा
शादियों के मौसम में भी इनकी अच्छी खासी बिक्री होती है।
आम तौर पर केले
की पत्तियो मे खाना परोसा जाता है। प्राचीन ग्रंथों मे केले की पत्तियो पर परोसे
गये भोजन को स्वास्थ्य के लिये लाभदायक बताया गया है।
पत्तल पर खाने
की आदत न केवल पैसों की बचत करेगी, बल्कि पानी भी
बचाएगी क्योंकि आपको इसे धोने की जरूररत नहीं होगी और इन्हें जमीन में डालकर खाद
बनाई जा सकती है।पत्तल यानि पत्तों से बनी हुई प्लेट जिस पर आप भोजन कर सकते हैं।
आजकल महंगे होटलों और रिसोर्ट मे भी केले की पत्तियों का यह प्रयोग होने लगा है।
नीचे चित्र में
सुपारी के पत्तों से बनाई गई प्लेट, कटोरी व ट्रे
दर्शाई गई हैं , जिनमे भोजन करना स्वास्थ्य के लिए भी बहुत लाभदायक है जिसे प्लास्टिक, थर्माकोल
के ऑप्शन में उतरा गया है क्योंकि थर्माकोल व प्लास्टिक के उपयोग से स्वास्थ्य को बहुत
हानि भी पहुँच रही है ।पत्तल पर भोजन करने से आपको भोजन के साथ ही संबंधित वृक्षों
के औषधीय गुण भी प्राप्त होते हैं और मानसिक शांति भी प्राप्त होती है।
सुपारी के
पत्तों यह पत्तल केरला में बनाई जा रही हैं और कीमत भी ज्यादा नही है , तक़रीबन
1.5, 2, रुपये साइज और क्वांटिटी के हिसाब से अलग अलग है
पलाश के पत्तों
की थाली पत्तलों में भोजन करने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है।
कृमि, कफ, खांसी, अपच व पेट संबंधी व रक्त संबंधी अन्य बीमारियां होने की संभावना कम
होती है। पलाश के पत्तल में भोजन करने से स्वर्ण के बर्तन में भोजन करने का पुण्य
व आरोग्य मिलता है ।
बेहतर सेहत और
उससे जुड़े कई फायदों के लिए केले के पत्ते पर भोजन करना लाभकारी माना जाता है, यही
कारण है कि दक्षिण भारत में आज भी ज्यादातर स्थानों पर केले के पत्ते पर खाना
परोसा जाता है। केले के पत्तल में भोजन करने से चांदी के बर्तन में भोजन करने का
पुण्य व आरोग्य मिलता है।
रक्त की
अशुद्धता के कारण होने वाली बीमारियों के लिये पलाश से तैयार पत्तल को उपयोगी माना
जाता है। पाचन तंत्र सम्बन्धी रोगों के लिये भी इसका उपयोग होता है। आम तौर पर लाल
फूलो वाले पलाश को हम जानते हैं पर सफेद फूलों वाला पलाश भी उपलब्ध है। इस दुर्लभ
पलाश से तैयार पत्तल को बवासिर (पाइल्स) के रोगियों के लिये उपयोगी माना जाता है।
पलाश के पत्तों की थाली पत्तलों में खाना खाने से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में
वृद्धि होती है। कृमि, कफ, खांसी, अपच
व पेट संबंधी व रक्त संबंधी अन्य बीमारियां होने की संभावना कम होती है।
जोडो के दर्द के
लिये करंज की पत्तियों से तैयार पत्तल उपयोगी माना जाता है। पुरानी पत्तियों को
नयी पत्तियों की तुलना मे अधिक उपयोगी माना जाता है।
लकवा
(पैरालिसिस) होने पर अमलतास की पत्तियों से तैयार पत्तलो को उपयोगी माना जाता है।
जानिए पत्तलों से होने वाले
अन्य लाभ —
1. सबसे
पहले तो उसे धोना नहीं पड़ेगा, इसको हम सीधा मिटटी में दबा सकते है।
2. न
पानी नष्ट होगा।
3. न
ही कामवाली रखनी पड़ेगी, मासिक खर्च भी बचेगा।
4. न
केमिकल उपयोग करने पड़ेंगे l
5. न
केमिकल द्वारा शरीर को आंतरिक हानि पहुंचेगी।
6. अधिक
से अधिक वृक्ष उगाये जायेंगे, जिससे कि अधिक आक्सीजन भी मिलेगी।
7. प्रदूषण
भी घटेगा।
8. सबसे
महत्वपूर्ण झूठे पत्तलों को एक जगह गाड़ने पर, खाद का निर्माण
किया जा सकता है, एवं मिटटी की उपजाऊ क्षमता को भी बढ़ाया जा सकता है।
9. पत्तल
बनाने वालों को भी रोजगार प्राप्त होगा।
10. सबसे
मुख्य लाभ, आप नदियों को दूषित होने से बहुत बड़े स्तर पर बचा सकते हैं, जैसे
कि आप जानते ही हैं कि जो पानी आप बर्तन धोने में उपयोग कर रहे हो, वो
केमिकल वाला पानी, पहले नाले में जायेगा, फिर आगे जाकर
नदियों में ही छोड़ दिया जायेगा। जो जल प्रदूषण में आपको सहयोगी बनाता है।
आम लोगों को हर
जगह होने वाले भंडारे, विवाह या शादियों के साथ साथ जन्मोत्सव
की पार्टियों में भी डिस्पोजल की जगह इन पत्तलों का उपयोग करना चाहिए।
सरकार भी कर रही है पहल —
पश्चिम बंगाल
में शाल के पत्तों से बने पत्तल के कारोबार को बचाने के लिए मांग की गई हैं। जिससे
सरकार भी इस काम को बचाने के लिए प्रयास कर रही हैं। यह सस्ता होने के साथ
पर्यावरण व शरीर दोनों के लिए बहुत ही लाभदायक होता है। इतना ही नहीं यह पानी की
बचत करने में काफी मददगार होती है। क्योंकि इसे प्रयोग कर फेंक दिया जाता हैं।
आधुनिक व्यापार का असर —
पत्तल की प्लेट
न केवल हमारे पर्यावरण के लिए बल्कि लाखों मजदूरों की आजीविका से जुड़ी हुई हैं।
इससे बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड
व राजस्थान जैसे राज्यों के लोगों को रोजगार मिलता था। लेकिन धीरे धीरे पत्तल के
कम होते प्रयोग के कारण इनका व्यापार भी कम होता गया।असंगठित क्षेत्र के पत्तल
उद्योग से लाखों मजदूरों की आजीविका जुड़ी है। बिहार, उत्तर
प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड और राजस्थान जैसे राज्यों में
भी अब पत्तों से बने पत्तलों का चलन धीरे-धीरे कम होने लगा है। यह शायद अकेला ऐसा
उद्योग है जिस पर नोटबंदी की मार नहीं पड़ी है। यह कहना सही होगा कि यह उद्योग
नोटबंदी नहीं बल्कि आधुनिकता की मार से परेशान है। ग्रामीण इलाकों में तो पत्तलों
पर भोजन की परंपरा अब भी कुछ हद तक बरकरार है लेकिन शहरों में इसकी जगह कांच या
चीनी मिट्टी की प्लेटों ने ले ली है। विभिन्न समारोहों में बुफे पार्टी का प्रचलन
बढ़ने की वजह से भी पत्तों से बने पत्तल अप्रासंगिक होते जा रहे हैं।
कृपया इसकी
जानकारी अन्य लोगों को भी दें। जिससे हर कोई स्वदेशी वस्तुओं का प्रचार प्रसार करे
और हमारा देश प्लास्टिक या थर्माकोल से बने डिस्पोजेबल से होने वाले प्रदूषण से
मुक्त हो सके।
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