झालरापाटन का सूर्य
मंदिर।
`अतीत में झालरों
के नगर के नाम से जाना पहचाना झालरापाटन हैं। जिसका हृदय स्थल यहाँ का सूर्य मंदिर
हैं। इस मंदिर का निर्माण नवीं सदी में हुआ था। यह मंदिर अपनी प्राचीनता और
स्थापत्य वैभव के कारण कोर्णाक के सूर्य मंदिर और ग्वालियर के विवस्वान मंदिर का
स्मरण कराता हैं। कर्नल टॉड ने इस मंदिर को चार भूजा (चतुर्भज) मंदिर माना हैं
वर्तमान में मंदिर के गर्भग्रह में चतुर्भज नारायण की मूर्ति प्रतिष्ठित हैं।
पुराणों में सूर्य की उपासना चतुर्भुज नारायण के रूप में की गई हैं। राजस्थान गजेटियर
झालावाड़ के अनुसार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, भारत सरकार
द्वारा यहाँ के संरक्षित महत्वपूर्ण स्मारकों की सूची में सूर्य (पद्मनाथ) मंदिर
का प्रथम स्थान हैं। सूचना व जनसम्पर्क विभाग द्वारा प्रकाशित राजस्थान झालावाड़
दर्शन (पृष्ठ 13) तथा जिला झालावाड़ प्रगति के 3 वर्ष (पृष्ठ 5) संदर्भ
ग्रन्थेां में भी सूर्य मंदिर को पद्मनाथ तथा सात सहेलियों का मंदिर कहा गया हैं।
पर्यटन और सांस्कृतिक विभाग राजस्थान द्वारा प्रकाशित राजस्थान दर्शन एवं गाइड में
इस प्राचीन मंदिर को झालरापाटन नगर का प्रमुख आकर्षण केन्द्र माना हैं। (पृष्ठ 56) तथा
देश में सूर्य की सबसे अच्छी एवं सुरक्षित प्रतिमा के रूप में मान्यता प्रदान की
हैं।
दौ सौ वर्ष (11
वीं सदी ) पश्चात् सूर्य मंदिर शैली में यंहा निर्मित शान्तिनाथ जैन मंदिर को
देखकर पर्यटकों को सूर्य मंदिर में जैन मंदिर का भ्रम होने लगता हें। किन्तु
चतुर्भुज नारायण की स्थापित प्रतिमा, भारतीय स्थापत्य
कला का चरम उत्कर्ष एवं मंदिर का रथ शैली का आधार ये सब निर्विवाद रूप से सूर्य
मंदिर प्रमाणित करते हें। वरिष्ठ इतिहासकार बलवंत सिंह हाड़ा द्वारा सूर्य मंदिर
में प्राप्त शोधपूर्ण शिलालेख के अनुसार संवत् 872 (9 वीं सदी ) में
नाग भट्ट द्वितीय द्वारा मंदिर का निर्माण कराया गया था। झालरापाटन का विशाल सूर्य
मंदिर पद्मनाथजी मंदिर, बड़ा मंदिर ,सात
सहेलियों का मंदिर आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध हैं। यह मंदिर दसवी शताब्दी का
बताया जाता हैं। मंदिर का निर्माण खुजराहों एवं कोणार्क शैली में हुआ हैं। यह शैली
ईसा की दसवीं से तेरहवीं सदी के बीच विकसित हुई हैं। रथ शैली में बना यह मंदिर इस
धारणा को पुष्ट करता हें, भगवान सूर्य सात अश्वों वाले रथ पर
आसीन हैं। मंदिर की आधारशिला सात धोड़े जुते हुए रथ से मेल खाती हैं। मंदिर के अंदर
शिखर स्तंभ एवं मूर्तियों में वास्तुकला उत्कीर्णता की चरम परिणति को देखकर दर्शक
आश्चर्य से चकित होने लगता हैं।
शिल्प सौन्दर्य
की दृष्ठि से मंदिर की बाहरी व भीतरी मूर्तियां वास्तुकला की चरम ऊँचाईयों को छूती
हैं। मंदिर का ऊर्घ्वमुखी कलात्मक अष्ट दल कमल अत्यन्त सुन्दर जीवंत और आकर्षक
हैं। मदिर का उर्ध्वमुखी अष्टदल कमल आठ पत्थरों को संयोजित कर इस कलात्मक ढंग से
उत्कीर्ण किया गया हैं, जैसे यह मंदिर कमल का पुष्प हैं। मंदिर
का गगन स्पर्शी सर्वोच्च शिखर 97 फीट ऊँचा हैं। मंदिर में अन्य उपशिखर
भी हैं। शिखरों के कलश और गुम्बज अत्यन्त मनमोहक है। गुम्बदों की आकृति को देखकर
मुगलकालीन वास्तुकला का स्मरण हो जाता हैं। सम्पूर्ण मंदिर तोरण द्वार , मण्डप, निज
मंदिर, गर्भ ग्रह आदि बाहरी भीतरी भागों में विभक्त हैं। समय समय पर मंदिर
के जीर्ण ध्वजों का पुनरोद्धार एवं ध्वजाराहण हुआ हैं। संवत् 1632, 1871 एवं
257 के ध्वज उत्सव उल्लेखनीय हैं। मण्डप की छत पर साधुओं की कलात्मक जीती
जागती मूर्तियां देखते बनती हैं। देवस्थान विभाग से जुड़ा यह मंदिर विशेष देखभाल की
अपेक्षा रखता हें। मंदिर के परिसर में बढ़ता अतिक्रमण और व्यावसायिक दुकानों का
अस्तित्व मंदिर के पुरा एतिहासिक स्वरूप व इसकी भव्यता के बाधक हैं। झालावाड़ जिला
विकास की बहुआयामी संभावनाओं से भरा हैं। यह पर्यटन के राष्ट्रीय फलक पर तेजी से
उभर रहा हैं। भविष्य में यह सूर्य मंदिर राष्ट्रीय स्तर की संस्कृतिक निधि के रूप
में मान्यता प्राप्त करेगा और नगर की समृद्धि में सहायक होगा, ऐसा
दृढ़ विश्वास हैं।
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