संत की जयजयकार, निंदक को दुत्कार।
एक बार भरी सभा
में ज्ञानेश्वर जी ने अद्वैत वेदांत की ऊंची बात सुनायी। तब एक सुज्ञ व्यक्ति ने
कहाः "ये तो सचमुच ज्ञानेश्वर हैं।" परंतु 12 वर्ष
के बाल ज्ञानेश्वर के मुँह से इतनी ऊँची बात सुनकर स्थूल बुद्धिवाले समाजकंटक
लोगों ने उनका मजाक उड़ाया। उसी समय सभा-मंडप के बाहर रास्ते पर एक भैंसा दिखाई
दिया। उसकी ओर देखते हुए कोई बोल उठाः "अजी यह भैंसा जा रहा है। इसका नाम
भी ज्ञानेश्वर है " यह बात सुनते ही बाल ज्ञानेश्वर ने कहाः "हाँ, ठीक
ही तो है। इसमें और हममें कोई भेद नहीं है। यह भैंसा भी मेरा ही आत्मा है। यदि आप
ज्ञान की सच्ची आँख से देखेंगे तो भैंसे में और हममें किंचित भी भेद नहीं दिखेगा।
सब देहों में, प्राणिमात्र में समान रूप
से वही आत्मा व्याप्त है। असंख्य घड़ों में जल भरा हुआ है और उन सबमें एक ही चाँद
चमक रहा है, उसी प्रकार सब प्राणियों में समान रूप से भगवान व्याप्त हैं। अलग-अलग
प्रकार की वनस्पतियाँ हैं पर सबके मूल में एक ही जल व्याप रहा है, वैसे
ही सब जीवों में रमापति परमात्मा ही व्याप रहे हैं।
जब ये बातें हो
रही थीं तभी उस निंदक ने भैंसे की पीठ पर सटाक-से तीन चाबुक लगाये। ज्ञानेश्वर
महाराज समझ गये कि यह लोगों की श्रद्धा तोड़ना चाहता है। उनके हृदय में ईश्वर की
सर्वसमर्थता को प्रकट कर लोगों की श्रद्धा की रक्षा करने का संकल्प उदित हुआ और
उसी समय उनकी पीठ पर रक्तमय लाल निशान दिखने लगे सैंकड़ों लोगों ने देखा कि
चाबुक तो लगी भैंसे की पीठ पर यह देखते ही लोगों ने उस निंदक को खूब दुत्कारा और
जयघोष करने लगेः ज्ञानेश्वर महाराज की जय सर्वसमर्थ भगवान की जय सत्य सनातन
संस्कृति की जय महापुरुषों की ब्रह्मभाव से पूर्ण वाणी में कुछ हलकट एवं नीच
मति के लोग दोष देखते हैं और उसे स्थूल अर्थ में एवं विकृत रूप में प्रस्तुत कर
समाज को भ्रमित करके पथभ्रष्ट करने की घृणित कोशिश करते हैं।
इसके
मूल में कभी उनकी नास्तिकता से ओतप्रोत संतद्वेषी मति होती है तो कभी समाज-विघातक
ताकतों से मिलने वाले धन का लोभ परंतु जिस प्रकार रात-दिन बदबू का ही फैलाव करने
वाले नाली के कीड़ों के भाग्य में आखिर डी.डी.टी. (कीटनाशक) का छिड़काव ही लिखा
होता है, उसी प्रकार समाज की श्रद्धा व सुख-शांति को नष्ट-भ्रष्ट करने में लगे
हुए समाजद्रोही निंदकों के भाग्य में समाज की फटकार व दुत्कार ही लिखी होती है।
ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की भक्ति, योग, ज्ञान
एक सत्कर्म की गंगा तो बहती ही रहती है और लोगों द्वारा उनकी जयजयकार होती ही रहती
है। स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2011, पृष्ठ संख्या 8, अंक
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