५१ शक्तिपीठों में से एक श्री त्रिपुरसुंदरी देवी का त्रिपुरा स्थित
जागृत मंदिर, वहां का इतिहास एवं विशेषताएं
अभिषेक एवं यज्ञ के पश्चात
पूर्ण आभूषण धारण किया हुआ देवी का यह रूप
मंदिर स्थापना का इतिहास
अभिषेक
एवं यज्ञ के पश्चात पूर्ण आभूषण धारण किया हुआ देवी का यह रूप त्रिपुरा राज्य के
अगरतला से २ घंटों की दूरीपर स्थित उदयपुर नामक गांव में त्रिपुरसुंदरी देवी का
शक्तिपीठ है । त्रिपुरसुंदरी देवी का मंदिर कुछए की आकारवाली टिलीपर होने से इस
स्थान को कूर्मपीठ भी कहा जाता है । मंदिर में देवी की २ मूर्तियां हैं । बडी
मूर्ति त्रिपुरसुंदरी देवी की है तथा छोटी मूर्ति छोटी मां देवी की है ।
एक
मान्यता के अनुसार महाराज ज्ञान माणिक्य (वर्तमान में बांग्ला देश) को चट्टग्राम
(चित्तगांव) से देवी की मूर्ति त्रिपुरा लाकर उसकी स्थापना करने के संदर्भ में
दृष्टांत हुआ था । महाराज ज्ञान माणिक्य ने वर्ष १५०१ में उस समय में जानेवाले
रंगमती नामक स्थानपर अर्थात आज की इस टिलीपर त्रिपुरसुंदरी देवी की स्थापना की ।
उसके पश्चात महाराज कल्याण माणिक्य ने मंदिर परिसर में एक बडा तालाब बनाया, जिसे
कल्याण सागर के नाम से जाजना जाता है ।
तालाब के लिए खुदाई करते समय वहां छोटी मां देवी की मूर्ति मिली, जिसकी
मंदिर में स्थापना की गई ।
मंदिर
के पौराणिक संदर्भ के अनुसार त्रिपुरा मगधेश्वरी राज्य की राजधानी थी । ‘शाक्त’
ग्रंथ के अनुसार इस स्थान को शक्तिपीठ के नाम से भी जाना जाता है । इसी स्थानपर
त्रिपुरसुंदरी देवी ने त्रिपुरासुर नामक असुर का वध किया था ।
देवी के चरणों के पास
प्राणत्यागनेवाले कछुए !
त्रिपुरसुंदरी देवी का मंदिर
एवं मंदिर के सामने का तालाब
मंदिर
के सामने के तालाब में १०० वर्षों से भी अधिक वयस्क कछुए हैं । इनमें से किसी
कछुवे को उसकी मृत्यु निकट आने का भान हो जाता है, तब वह कछुआ
तालाब से बाहर निकलकर मंदिर की सीढीयां चढकर मंदिर में जाता है । उसके पश्चात
मंदिर की परिक्रमा कर अपना देह त्याग देता है । मंदिर परिसर में देहत्याग किए गए
कछुओं की समाधि है ।
शक्तिपीठ का इतिहास
दक्ष
प्रजापति की पुत्री देवी सती उसके पिता द्वारा आयोजित यज्ञ समारोह में अपने पति
शिव का अपमान सहन नहीं कर सकी और उसने उसी यज्ञवेदी में छलांग लगाकर अपना जीवन
त्याग दिया । भगवान शिवजी को अपने अपमानपर जितना क्रोध नहीं आया, उससे
अधिक दुख उन्हें सती की मृत्यु के कारण हुआ । इस दुर्घटना से भगवान शिवजी अस्वस्थ
हुए । उन्होंने सती के मृत शरीर को अपने कंधेपर लेकर प्रलयकारी तांडव नृत्य आरंभ
किया । उसके कारण समस्त विश्व ही विनाश की कगारपर आ पहुंचा । इस स्थिति को देखकर
सभी देवता श्रीविष्णुजी के पास गए और उनसे इस प्रलय को रोकने की प्रार्थना की ।
देवताओं की प्रार्थना के कारण भगवान विष्णुजी ने अपने सुदर्शन चक्र से सती का शरीर
५१ भागों में धीरे-धीरे खण्डित किया । तब जिस स्थानपर देवी के शरीर का अंश गिर रहा
था, वहां शक्तिपीठ स्थापन होता गया । त्रिपुरा के इस स्थानपर देवी के पैर
की उंगलियां गिरी थीं ।
नवरात्रि में श्री
दुर्गादेवी का नामजप करना चाहिए !
नवरात्रि के समय
में वायुमंडल में श्री दुर्गादेवी का तत्त्व सामान्य की अपेक्षा १ सहस्र गुना अधिक
कार्यरत होता है । अतः इस समय में देवी की आराधना करने से, साथ
ही निरंतर एवं भावपूर्ण ‘श्री दुर्गादेव्यै नमः’ का नामजप करने से हमें इस बढे हुए
देवीतत्त्व का बहुत लाभ मिलता है ।
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