पहली बात है कि
निर्भय रहो शादी-विवाह में इतना खर्च नहीं करूँगा तो बेईज्जती होगी… उधार लेकर भी
फर्नीचर नहीं खरीदूँगा तो लोग क्या कहेंगे….ʹ इस प्रकार के कई
भय मनुष्य को सताते रहते हैं। जिस काम से तुम्हारे चित्त भयभीत होता हो एवं दूसरों
की खुशामद करने में लगता हो, उसे छोड़ दो। तुम तो केवल अपने
अंतर्यामी परमात्मा को राजी करने का प्रयत्न करो। पफ-पाउडर, लाली-लिपस्टिक
आदि से शरीर को नहीं सजायेंगे तो लोग क्या कहेंगे इसकी परवाह न करो। जीवन में
निर्भयता लाओ। शराबी कहता है कि ʹचलो मित्र ! शराब पियें।ʹ अब
यदि तुम शराब नहीं पीते हो तो मित्र नाराज हो जाते हैं और यदि पीते हो तो तुम्हारी
बरबादी होती है। फिर क्या करें ? अरे, मित्र नाराज
होते हैं तो होने दो परंतु शराब नहीं पीनी है यह निश्चय दृढ़ रखो। जो लोग तुम्हें
खराब काम, हलकी संगति और हलकी प्रवृत्तियों की तरफ घसीटते हैं उनसे निर्भय हो
जाओ लेकिन माता-पिता, गुरू, शास्त्र एवं
भगवान क्या कहेंगे, इस बात का डर रखो। ऐसा डर रखने से चित्त पवित्र होने लगता है क्योंकि
ऐसा डर हलके कामों, हलकी प्रवृत्तियों एवं हलकी संगति से बचाने वाला होता है। हरि डर
गुरु डर जगत डर, डर करनी में सार। रज्जब डरिया सो उबरिया, गाफिल
खायी मार।। जीवन में निर्भयता आनी ही चाहिए। झूठे आडम्बरों से बचने के लिए भी
निर्भय बनो। आप मेहमानों को भिन्न-भिन्न प्रकार के अच्छे-अच्छे एवं तले हुए व्यंजन
न खिला सको तो कोई बात नहीं, चिंता मत करो। परंतु यदि तुम सच्चे दिल
से, एक प्रेमभरी नजर से, पानी के एक प्याले से भी मेहमान का
आदर-सत्कार कर सको तो वह तुम्हारे यहाँ से उन्नत होकर जायेगा। तुम लोगों की परवाह
मत करो कि ʹऐसा नहीं करेंगे तो लोग क्या कहेंगे….ʹ अरे ! तुम अपनी
नाक से श्वास लेते हो कि लोगों की नाक से ? अपने जीवन का
आयुष्य खर्चते हो कि लोगों केजीवन का ? हम एक-दूसरे से
ऐसे बँध गयें हैं, ऐसे बंध गये हैं कि शराब-कबाब आदि की पार्टियों से भले अपना व दूसरों
का सत्यानाश होता हो फिर भी ʹलोग क्या कहेंगे ?ʹ के
भूत से ग्रस्त हो जाते हैं एवं अपनी हानि करते रहते हैं। इसीलिए ʹगीताʹ में
कहा गया हैःअभयं सत्त्वसंशुद्धिः।निर्भय एवं सत्त्वगुणी बनो। कायर, डरपोक
एवं रजो-तमोगुणी मत बनो।
दूसरी बात है कि हृदय शुद्ध रहे ऐसा आहार-विहार
और चिंतन करो:- कहा भी गया है कि “जैसा खाओ अन्न, वैसा बनता मन।”
साधक को अपने आहार पर खूब ध्यान देना चाहिए। ʹआहारʹ शब्द
केवल भोजन के लिए ही नहीं है वरन् आँखों से, कानों से, नाक
से, त्वचा से जो ग्रहण किया जाता है, वह भी आहार के
ही अंतर्गत आता है। अतः उसमें सात्त्विकता का ध्यान रखना चाहिए।
तीसरी बात है तप। हमारे जीवन में
तपस्या भी होनी चाहिए। सुबह भले ठंड लगे फिर भी सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नान कर
लो। देखो, इससे हृदय में कितनी प्रसन्नता और सत्त्वगुण बढ़ता है। फिर थोड़ा
ध्यान करो। यह तप हो जाता है। सत्संग अथवा सत्कर्म के समय थोड़ा तन-मन-धन तो अवश्य
खर्च होता है किंतु वह तुम्हारी तपस्या बन जाती है।
चौथी बात है मौन प्रतिदिन 2-4 घंटे
का मौन रखो। इससे तुम्हारी आंतरिक शक्ति बढ़ेगी, तुम्हारी वाणी
में आकर्षण आयेगा। जो पतंगे की तरह इधर-उधर भटकते रहते हैं एवं व्यर्थ की बक-बक
करते रहते हैं उनके चित्त में न शांति होती है, न क्षमा, न
विचारशक्ति होती है और न ही अनुमान शक्ति। वे बिखर जाते हैं। स्त्रियों को तो मानो
ज्यादा बोलने का ठेका ही मिला हुआ है। सास-बहू में, अड़ोस-पड़ोस में
व्यर्थ की गप्पें मारकर वे स्वयं ही झगड़े पैदा कर लेती हैं। यदि झगड़े न भी होते
हों तो फालतू बातें तो होती ही हैं। उन बेचारियों को पता ही नहीं होता कि व्यर्थ
की बातें करने से प्राणशक्ति एवं वाक्शक्ति का ह्रास होता है। अतः साधक को चाहिए
कि वह मौन रखे। मौन से बहुत लाभ होता है। यदि एक बार भी तुम लम्बे समय तक मौन रखो
तो अंदर का आनंद प्रकट होने लगेगा। विचारशक्ति, अनुमान शक्ति के
अलावा धैर्य, क्षमा, शांति आदि सदगुण भी आने लगेंगे।
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