श्रीनाथ जी मंदिर नाथद्वारा राजस्थान।
भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य :- भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों की विनती पर आशीर्वाद दिया, समस्त दैवीय जीवों के कल्याण के लिये कलयुग में मैं ब्रजलोक में श्रीनाथजी के नाम से प्रकट होउंगा । उसी भावना को पूर्ण करने ब्रजलोक में मथुरा के निकट जतीपुरा ग्राम में श्री गोवर्धन पर्वत पर भगवान श्रीनाथजी प्रकट हुये । प्राकट्य का समय ज्यों ज्यों निकट आया श्रीनाथजी की लीलाएँ शुरु हो गई । आस पास के ब्रजवासियों की गायें घास चरने श्रीगोवेर्धन पर्वत पर जाती उन्हीं में से सद्द् पाण्डे की घूमर नाम की गाय अपना कुछ दूध श्रीनाथजी के लीला स्थल पर अर्पित कर आती । कई समय तक यह् सिलसिला चलता रहा तो ब्रजवासियों को कौतुहल जगा कि आखिर ये क्या लीला है, उन्होंने खोजबीन की, उन्हें श्रीगिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी की उर्ध्व वाम भुजा के दर्शन हुये। वहीं गौमाताएं अपना दूध चढा आती थी।उन्हें यह् दैवीय चमत्कार लगा और प्रभु की भविष्यवाणी सत्य प्रतीत होती नजर आयी । उन्होंने उर्ध्व भुजा की पुजा आराधना शुरु कर दी। कुछ समय उपरांत संवत् 1535 में वैशाख कृष्ण 11 को गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी के मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ और तदुपरांत सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ। ब्रजवासीगण अपनी श्रद्धानुसार सेवा आराधना करते रहे।
भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य :- भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्तों की विनती पर आशीर्वाद दिया, समस्त दैवीय जीवों के कल्याण के लिये कलयुग में मैं ब्रजलोक में श्रीनाथजी के नाम से प्रकट होउंगा । उसी भावना को पूर्ण करने ब्रजलोक में मथुरा के निकट जतीपुरा ग्राम में श्री गोवर्धन पर्वत पर भगवान श्रीनाथजी प्रकट हुये । प्राकट्य का समय ज्यों ज्यों निकट आया श्रीनाथजी की लीलाएँ शुरु हो गई । आस पास के ब्रजवासियों की गायें घास चरने श्रीगोवेर्धन पर्वत पर जाती उन्हीं में से सद्द् पाण्डे की घूमर नाम की गाय अपना कुछ दूध श्रीनाथजी के लीला स्थल पर अर्पित कर आती । कई समय तक यह् सिलसिला चलता रहा तो ब्रजवासियों को कौतुहल जगा कि आखिर ये क्या लीला है, उन्होंने खोजबीन की, उन्हें श्रीगिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी की उर्ध्व वाम भुजा के दर्शन हुये। वहीं गौमाताएं अपना दूध चढा आती थी।उन्हें यह् दैवीय चमत्कार लगा और प्रभु की भविष्यवाणी सत्य प्रतीत होती नजर आयी । उन्होंने उर्ध्व भुजा की पुजा आराधना शुरु कर दी। कुछ समय उपरांत संवत् 1535 में वैशाख कृष्ण 11 को गिरिराज पर्वत पर श्रीनाथजी के मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ और तदुपरांत सम्पूर्ण स्वरूप का प्राकट्य हुआ। ब्रजवासीगण अपनी श्रद्धानुसार सेवा आराधना करते रहे।
इधर प्रभु की
ब्रजलोक में लीलायें चल रही थी, उधर
श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी संवत 1549 की फ़ाल्गुन
शुक्ल 11 को झारखण्ड की
यात्रा पर शुद्वाद्वैत का प्रचार कर रहे थे। श्रीनाथजी ने उन्हें स्वप्न में दर्शन
दे आदेश प्रदान किया कि ब्रजलोक में मेरा प्राकट्य हो चुका है, आप यहाँ आयें और मुझे प्रतिष्ठित करें। श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी
प्रभु की लीला से पुर्व में ही अवगत हो चुके थे,
वे झारखण्ड की यात्रा बीच में ही छोड मथुरा होते हुये जतीपुरा पहँचे
। जतीपुरा में सददू पाण्डे एवं अन्य ब्रजवासियों ने उन्हें देवदमन के श्रीगोवर्धन
पर्वत पर प्रकट होने की बात बताई । श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी ने सब ब्रजवासियों
बताया की लीला अवतार भगवान श्रीनाथजी का प्राकट्य हुआ है, इस पर सब ब्रजवासी बडे हर्षित हुये।
श्रीमहाप्रभुवल्लभाचार्यजी
सभी को साथ ले श्रीगोवर्धन पर्वत पर पहँचे और श्रीनाथजी का भव्य मंदिर निर्माण
कराया और ब्रजवासियों को श्रीनाथजी की सेवा आराधना की विधिवत जानकारी प्रदान कर
उन्हें श्रीनाथजी की सेवा में नियुक्त किया।
मुगलों के शासन
का दौर था, समय अपनी गति से
चल रहा था प्रभु को कुछ और लीलाएं करनी थी। दूसरी और उस समय का मुगल सम्राट औरंगजेब
हिन्दू आस्थाओं एवं मंदिरों को नष्ट करने पर आमदा था। मेवाड में प्रभु श्रीनाथजी
को अपनी परम भक्त मेवाड राजघराने की राजकुमारी अजबकुँवरबाई को दिये वचन को पूरा
करने पधारना था। प्रभु ने लीला रची। श्री विट्ठलनाथजी के पोत्र श्री दामोदर जी
उनके काका श्री गोविन्दजी, श्री बालकृष्णजी
व श्रीवल्लभजी ने औरंगजेब के अत्याचारों की बात सुन चिंतित हो श्रीनाथजी को
सुरक्षित स्थान पर बिराजमान कराने का निर्णय किया। प्रभु से आज्ञा प्राप्त कर निकल
पडे।
प्रभु का रथ
भक्तों के साथ चल पडा, मार्ग में पडने
वाली सभी रियासतों (आगरा, किशनगढ कोटा, जोधपुर आदि) के राजाओं से, इन्होने
प्रभु को अपने राज्य में प्रतिष्ठित कराने का आग्रह किया, कोई भी राजा मुगल सम्राट ओरंगजेब से दुश्मनी लेने का साहस नही कर सके, सभी ने कुछ समय के लिये, स्थायी
व्यवस्था होने तक गुप्त रूप से बिराजने कि विनती की,
प्रभु की लीला एवं उपयुक्त समय नही आया मानकर सभी प्रभु के साथ आगे
निकल पडे।
मेवाड में
पधारने पर रथ का पहिया सिंहाड ग्राम (वर्तमान श्रीनाथद्वारा) में आकर धंस गया, बहुतेरे प्रयत्नों के पश्चात भी पहिया नहीं निकाला जा सका, प्रभु की ऎसी ही लीला जान और सभी प्रयत्न निश्फल मान, प्रभु को यहीं बिराजमान कराने का निश्चय किया गया तत्कालीन महाराणा
श्री राजसिंह जी ने प्रभु की भव्य अगवानी कर वचन दिया कि मैं पभु को अपने राज्य
में पधारता हूँ, प्रभु के स्वरूप
की सुरक्षा की पूर्ण जिम्मेदारी लेता हूँ आप प्रभु को यही बिराजमान करावें संवत
१७२८ फाल्गुन कृष्ण ७ को प्रभु श्रीनाथजी वर्तमान मंदिर मे पधारे एवं भव्य
पाटोत्सव का मनोरथ हुआ और सिंहाड ग्राम श्रीनाथद्वारा के नाम से प्रसिद्ध हुआ तब
से प्रभु श्रीनाथजी के लाखों, करोंडो भक्त
प्रतिवर्ष श्रीनाथद्वारा आते हैं एवं अपने आराध्य के दर्शन पा धन्य हो जाते
हैं।श्रीनाथजी के दर्शन : प्रात - १. मंगला २. श्रृंगार ३. ग्वाल ४. राजभोग सायं
५. उत्थापन ६. भोग ७. आरती ८. शयन (शयन के दर्शन आश्विन शुक्ल १० से मार्गशीर्ष
शुक्ल ७ तक एवं माघ शुक्ल ५ से रामनवमी तक, शेष
समय निज मंदिर के अंदर ही खुलते हैं, भक्तों
के दर्शनार्थ नहीं खुलते हैं ।)
श्रीनाथजी मंदिर
एक प्राचीन धार्मिक स्थल है जो 12वीं शताब्दी में
बनाया गया था। यह मंदिर हिन्दुओं के भगवान कृष्ण को समर्पित है। भगवान की मूर्ती
काले मार्बल से काट कर बनायी गयी थी। रोचक बात यह है कि आंध्र प्रदेश के तिरुपति
मंदिर के बाद श्रीनाथजी मंदिर को दूसरा सबसे धनी भारतीय मंदिर माना जाता है।
पर्यटकों में अगर कोई श्रद्धालु है तो वह इस मंदिर को देखने ज़रूर आता है।
वैष्णव धर्म के
वल्लभ सम्प्रदाय के प्रमुख तीर्थ स्थानों, मैं नाथद्वारा
धाम का स्थान सर्वोपरि माना जाता है। नाथद्वारा दर्शन करने का फल भी सर्वोपरि है।
नाथद्वारा धाम का यय स्थान भारत के राजय राजस्थान के उदयपुर, सुरम्य
झीलो की नगरी से लगभग 48 किलोमीटर दूर राजसमंद जिले मे बनास
नदी के तट पर स्थित हैं। यहाँ पर भगवान श्रीकृष्ण के स्वरुप श्री नाथजी का भव्य व
विश्व प्रसिद्ध नाथद्वारा मंदिर स्थित है।
श्रीनाथ जी की मूर्ति पहले मथुरा के
निकट गोकुल में स्थित थी। परंतु
जब औरंगजेब ने इसे तोडना चाहा, तो वल्लभ गोस्वामी जी ने इसे राजपूताना
(राजस्थान) ले गए। जिस स्थान पर मूर्ति की पुनः स्थापना हुई, उस
स्थान को नाथद्वारा कहा जाने लगा। नाथद्वारा
शब्द दो शब्दों को मिलाकर बनता है नाथ+द्वार, जिसमे नाथ का
अर्थ भगवान से है। और द्वार का अर्थ चौखट या आम भाषा मे कहा जाए तो गेट से है। तो
इस प्रकार नाथद्वारा का अर्थ “भगवान का द्वार हुआ।
इस पवित्र पावन
स्थान के बारे में कहा जाता है, कि एक बार भगवान श्रीनाथजी ने स्वयं
अपने भक्तों को प्रेरणा दी थी कि, बस! यहीं वह स्थान है जहाँ मैं बसना
चाहता हूँ। फिर क्या था डेरे और तंबू गाड़ दिए गए। राजमाता
की प्रेरणा से उदयपुर के महाराणा राजसिंह ने एक लाख सैनिक श्रीनाथजी की सेवा मैं
सुरक्षा के लिए तैनात कर दिये। महाराणा का आश्रय पाकर नाथ नगरी भी बस गई इसी से
इसका नाम नाथद्वारा पड़ गया।
नाथद्वारा दर्शन
मे यहाँ का मुख्य मंदिर श्रीनाथजी मंदिर है। यह वल्लभ संप्रदाय का प्रधान पीठ है।
भारत के प्रमुख वैष्णव पीठों मैं इसकी गणना की जाती है। यहाँ के आचार्य श्री
वल्लभाचार्य जी के वंशजों मे तिलकायित माने जाते है। यह मूर्ति गोवर्धन पर्वत पर
व्रज मे थी।
श्रीनाथजी का
मंदिर बहुत बडा है, परंतु मंदिर मैं किसी विशिष्ट स्थापत्य कला शैली के दर्शन नही होते।
वल्लभ संप्रदाय के लोग अपने मंदिर को नांदरायजी का घर मानते है। मंदिर पर कोई शिखर
नही हैं। मंदिर बहुत ही साधारण तरीके से बना हुआ है। जहाँ श्रीनाथजी की की मूर्ति
सथापित है, वहां की छत भी साधारण खपरैलो से बनी हुई हैं।
नाथद्वारा दर्शन टाइम और तरीका
नाथद्वारा दर्शन
करने का स्थान अत्यधिक संकरा है।इसलिए दर्शनार्थियों को बारी बारी से दर्शन कराया
जाता है। श्रीनाथजी के यूं तो आठ दर्शन होते है। परंतु कभी कभी विषेश अवसरो और
उत्सवो पर एक आध बढ़ भी जाते है।
जो अपने
निरधारित नाथद्वारा दर्शन टाइम टेबल पर आयोजित किये जाते है। इन आठ दर्शनों के नाम
इस प्रकार है।
1- मंगला
2- श्रृंगार
3- ग्वाल
4- राजभोग
5- उत्थान
6- भोग
7- संध्या आरती
8- शयन
श्रीनाथजी के दर्शन के अतिरिक्त मंदिर
में कुछ ऐसे भी स्थल है, जिनमें कोई विशेष मूर्ति नही है। फिर
भी वह भक्तों के आकर्षण का केंद्र हैं। उन विशेष स्थानों के नाम इस प्रकार है— 1- फूलघर, 2- पानघर, 3- शाकघर, 4- घी
घर, 5- दूध घर, 6 मेवाघर आदि।
इन स्थानों की
विशेषता यह है, कि फूलघर मैं इतने अधिक फूल होते है , कि हर प्रकार के
फूलो के छोटे बडे पहाड से बन जाते हैं। यही बात पान, शाक, घी, मेवा, आदि
सथानो के संबंध मे भी देखी जाती है।
नाथद्वारा दर्शन
व नाथद्वारा धाम मैं श्रीनाथ मंदिर के अतिरिक्त और भी कई मंदिर है। जिनमे नवनीत
प्रीयजी और श्री बिट्ठलनाथ जी के दो मंदिर प्रसिद्ध हैं। इसके
अलावा श्री नाथजी की एक अत्यंत विशाल गौशाला यहाँ यात्रियों के आकर्षण का केन्द्र
बनी रहती है। जिसे नाथद्वारा गौशाला के नाम से जाना जाता है। नाथद्धारा की यह
गौशाला सम्पूर्ण भारत की सबसे बडी गौशाला मैं से एक है।
द्वारकाधीश
का मंदिर
नाथद्वारा धाम से कुछ
दूरी पर ही कांकरोली मे मुखय मंदिर श्री द्वारकाधीश का है। कहा जाता हैं कि
महाराज आम्बरीक इसी मूर्ति की आराधना करते थे। यहा मंदिर में यात्री भी ठहर सकते
है।
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यात्रा
धाम
कांकरोली मैं वैष्णव
संप्रदाय का एक महत्वपूर्ण यात्रा धाम है। यह स्थान प्राकृतिक सौंदर्य से
सुशोभित होने के कारण पर्यटन स्थल भी बन गया है। इसकी गणना वैष्णवो के सात
यात्रा धामों में होती हैं।
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राजसमंद
मंदिर के अगले भाग मैं एक
विशाल सरोवर है। इस सरोवर का नाम राजसमंद है। सरोवर के आगे नौ छतरीयां बनी है।
प्रत्येक छतरी विश्राम स्थल है। यहाँ यात्री आराम कर सकते है।
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विद्या
भवन
यह विद्या भवन कांकरोली
मैं है। पुष्टिमार्ग के प्राचीन ग्रंथो की महत्वपूर्ण खोज एवं प्रकाशन होता हैं।
यहा आस पास लाल बाबा आदि के मंदिर भी है।
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।। क्लीं कृष्णाय
गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय नम: ।।
।। श्री कृष्ण
शरणम् मम: ।।
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