धर्मनिरपेक्षता या कायरता ... ???
कुछ हजार साल पहले गांधार की गांधारी हस्तिनापुर की रानी हुआ करती थी, फिर उसी भौगोलिक क्षेत्र से गजनी आता है, हमारे मंदिरों को लूटता है और आज उसी भौगोलिक क्षेत्र में एक इस्लामिक राज्य है, जिसे अफगानिस्तान के नाम से हम जानते हैं।
कुछ ७४ साल पहले लाहौर, करांची, सिंध, ढाका
भारत का अभिन्न अंग हुआ करता था पर आज वहां इस्लामिक राज्य है।
कुछ ३० साल पहले काश्मीर में काश्मीरी पंडितों
के हंसते खेलते परिवारों का एक समृद्ध संस्कृति का विस्तार हुआ करता था, आज
वहां भी अघोषित इस्लामिक राज्य है।
देश के विभिन्न कोने में ना जाने कितने छोटे
छोटे अघोषित इस्लामिक राज्य हैं (जहाँ हम बसने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकते हैं), इसका
हम बस अनुमान हीं लगा सकते हैं।
जब मैं इन पंक्तियों को लिख रहा हूँ, इस
बात का भान है मुझे कि मेरे कई प्रिय दोस्त हैं जो इस्लाम के मानने वाले हैं।
पर सत्य से आँखे मोड लेने मात्र से
वस्तु स्थिति बदल जाएगी ऐसा तो होता है नहीं।
“और बात करने से
बात बनती है” इस विचार को केंद्र में रखकर मैं लिख रहा हूँ कि मैं भी सोचूं और आप
भी सोचिये कि कहाँ चूक हुई, किससे चूक हुई? विचारिए
कि क्या ऐसी चूक आज भी करने की कोशीश कर
रहे हैं? क्या इतिहास इसी तरह दुहराया जाता रहेगा तबतक जबतक हमारे पास खोने के
लिए कुछ भी बचा नहीं रहेगा?
मैं खुद से पूछता हूँ और औरों से भी, क्या
कोई बता सकता है कि ऐसा कौन सा एक कारण है कि धर्मनिरपेक्षता के तथाकथित पुजारिओं
के रहते हुए भी:
१। हम गांधारी से गजनी के रस्ते चलकर
एक इस्लामिक राज्य अफगानिस्तान तक कैसे पहुँच गए?
२। ऋषि कश्यप के काश्मीर से कौल, रैना
और टिक्कू के बलात्कार और हत्या वाले काश्मीर तक कैसे चले आए?
3। शनैःशनैः सनातन
धर्मियों का भौगोलिक सिकुड़ाव क्यूँ होता रहा और क्यूँ उन भौगोलिक क्षेत्रों में
इस्लामिक राज्यों का गठन होता चला गया?
मुग़ल आए और हमारे बीच में से गुमराह
किये जा सकने वाले तत्वों के साथ मिलकर हमारे शिक्षा, सभ्यता
और संस्कृती के तमाम धरोहरों को लूटते, तोड़ते और जलाते
चले गए, चाहे वो सोमनाथ का मंदिर हो या नालंदा का विशाल विश्वविद्यालय और
पुस्तकालय।
अंग्रेज आए और हमें आपस में लड़ा भिड़ाकर
हम पर शासन किया।
अब जब देश तमाम कुर्बानियों और नुकसान
के बाद आजाद हुआ है तो एक बार फिर भ्रमित किया जा रहा है कि हम असहिष्णु हैं, हम
धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं।
पर सनद रहे कि जब-जब देशहित पर
राजनीतिक हित भारी पड़ा है, देश और सनातन को हीं नुकसान उठाना पड़ा
है, इतिहास साक्षी है। नजर उठाकर मूल्याङ्कन कर लीजिए।
मैं आप तथाकथित धर्मनिरपेक्ष नागरिकों
से समझना चाहता हूँ कि आखिर कौन सा धर्मनिरपेक्षता काम कर रहा था तब जब:
मो अली जिन्ना एक अलग इस्लामिक राज्य
“पाकिस्तान” की मांग कर रहे थे और सड़कों पर खून की नदियाँ बहाई जा रही थी। दोनों
धर्मों के लोगों को हिंसा और प्रति हिंसा
की आग में झोंक दिया गया था?
क्या धर्मनिरपेक्ष लोगों की उस वक्त एक
भी चली थी? क्या वे समझा पाए जिन्ना को कि धार्मिक आधार पर राष्ट्र माँगना
धर्मनिरपेक्षता और इस्लामिक मूल्यों के खिलाफ है?
क्या कोई शाहिनबाग, कोई जामियाँ, कोई जे एन यू , कोई
कन्हैया, कोई उमर खालिद, कोई स्वरा, कोई
नसीरुद्दीन राष्ट्रव्यापी आंदोंलन खड़ा कर पाए कि धर्म के आधार पर देश को नहीं
बंटने देंगे?
क्या आज भी उन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष
बुद्धिजीवियों की सुनी जाएगी?
चलो मानते हैं गलती हो जाया करती है? फिर
हम उससे सबक लेते हैं और भविष्य में ऐसी गलतियों से बचते हैं।
तो बताओ तो भला कि आप कहाँ सो रहे थे
जब धरती के स्वर्ग में मस्जिदों से अल्लाह की अजान की जगह यह ऐलान हो रहा था कि
कश्मीरी पंडित अपनी औरतों को छोड़कर काश्मीर से चले जाएं या मरने के लिए तैयार रहें?
आपकी धर्मनिरपेक्षता कहाँ घास चार रही
थी जब गिरिजा टिक्कू को उसके मुस्लिम दोस्त के घर से अपहृत कर लिया गया और कोई कुछ
नहीं बोला? गिरिजा टिक्कू के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और लकड़ी काटने वाले
आरा मशीन में डालकर दो भाग में जिन्दा चीर दिया गया था।
आपकी धर्मनिरपेक्षता को लकवा मार गया
था क्या जब टेलिकॉम अभियंता बी के गंजू को चावल के कंटेनर में छूपे होने का राज
आतंकियों को उसके पडोसी मुस्लिम परिवार ने बताया था और फिर उस बदनसीब को उसके
परिवार के सामने उसी कंटेनर में गोलियों से भून दिया गया और परिवार वालों को उसके
खून से सने चावल को खाने को कहा गया था?
उस धर्मनिरपेक्षता का हम क्या करें
जिसके क्रूर छांह में भूषण लाल रैना को इसा मसीह की तरह पेड़ में शूली चढ़ाकर इंच दर
इंच मार दिया गया था और वे तड़प तड़प कर
गोली मार देने की भीख माँगते रहे थे?
आप जिस धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, सर्वानन्द
कॉल प्रेमी उसी के पुजारी थे। वे पूजागृह में हिन्दू ग्रंथों के साथ कुरान
भी रखते थे। लेकिन सर्वानन्द जी को तिलक लगाने वाले जगह पर लोहे की छड घुसा
कर मारा गया। उनके शरीर से चमड़े को छील कर निकाल दिया गया था?
ये सब लिखने का मेरा एक मात्र उद्देश्य
यह है कि हमें धर्मनिरपेक्ष होने का प्रमाण देने की जरुरत नहीं है, इतिहास
अटा पड़ा हुआ है ऐसे उदाहरणों से कि हम अपने मां बहनों के इज्जत-अस्मत , अपने जान, अपनी
सम्पति गंवाकर भी और अपने देश का धार्मिक
आधार पर बंटबारा होने के बाबजूद भी असहिष्णु नहीं हुए।
हाँ आप तथाकथित धर्मनिर्पेक्ष बुद्धिजीवियों
को एक बार अवश्य सोचने की जरुरत है
कि ऐसा क्यूँ है कि:
अलग अलग कालखंड में हमसे अलग होकर एक
इस्लामिक राज्य पैदा होता है और हमारे जमीं में भविष्य के लिए एक इस्लामिक राज्य
का बीज छोड़ जाता है। जो निकलते समय के साथ अंकुरित, पुष्पित एवं
पल्लवित होता है और फिर एक नए इलामिक राज्य की आहट सुनाई देने लगता है।
पर मौन समुद्र कब तक मौन रहे? जब
आप दीवाल तक धकेल दिए जाते हों, आपके पास और पीछे जाने की जगह नहीं
होती तो फिर आपके पास दो हीं विकल्प होते हैं या तो प्रतिरोध कर अपना अस्तित्व
बचाए रखें या फिर साल दर साल काल के गाल में समाते चले जाएँ।
अरे जरा सोचिये तो सही, हम
इतिहास में हमारे साथ हुए तमाम अत्याचारों को याद भी करें तो हम असहिष्णु कहला दिए
जाते हैं
और वहां महीनों से दिल्ली के एक
खास क्षेत्र को सिर्फ इसलिए पंगु बनाकर रखा गया है क्यूँकि उन्हें आशंका है कि
उनके साथ कुछ गलत हो सकता है (जिस आशंका का कोई आधार नहीं है)।
और इनके सुर में कौन सुर मिला रहा है?
क्या हमें भी अपने अस्तित्व की चिंता
करने का हक है?
ऐसे में आप हीं बताएं भविष्य किसका
दासी बनेगा? उसका जो अपने ऊपर हुए सैकड़ों अत्याचारों को भूलकर आज फिर शुतुरमुर्ग
बना हुआ है या फिर उसका जो अपने अस्तित्व पे आने वाले हर आशंका को भी जड़ मूल से
मिटाने के लिए अपनी नौकरी, रोजगार, घर परिवार सब
छोड़कर सड़कों निकल पड़ा है?
हो सकता है आपमें से कई लोग कहेंगे कि
आज जब हमें उद्योग धंधा, रोजगार और शिक्षा की बात करनी चाहिए
वैसे में आजाद हिंदुस्तान में ऐसी बात करना सिर्फ धर्मान्धता की बात है।
तो आपको बता दूँ कि आप ऐसे पहले
हिन्दुस्तानी हैं, इस मुगालते में मत रहिएगा। गांधारी से चलते हुए गजनी से लेकर गिरिजा
टिक्कू तक पहुँचने में हर मोड, हर गली, हर चौराहे में
मुझे आप जैसे लोगों से दो चार होना पड़ा है और आपकी बातों को मानते हुए हीं यहाँ तक
की यात्रा तय की है। कश्मीरी पंडितों के पास धन दौलत, ज्ञान, रोजगार
सब कुछ तो था पर लाखों कश्मीरियों द्वारा अपना नौकरी-पेशा, धन
संपत्ति, मान सम्मान छोड़कर अपनी हीं जन्म भूमि से भागना पड़ा। आज उनका धर्म
निरपेक्ष सरकार और आपके जैसे ज्ञानी गुणी जनता के नाक के ठीक सामने अपने हीं देश
में शरणार्थी बने रहना आपके वाले धर्मनिरपेक्षता का हर पल चीर हरण कर रहा है और आप
हैं कि शुतुरमुर्ग बने रहने में अपना बड़प्पन समझते हैं। आपको आपका शुतुर्मुगी चलन
मुबारक हो लेकिन हम सिर्फ तब तक धर्म
निरपेक्ष हैं जब तक हमारे धर्म के ऊपर आक्रमण नहीं होता।
0 टिप्पणियाँ