आनन्द का उदगम स्थान क्या है ?
                            संतोष, सुमति, सादगी बक्ष करो भगवान। सबका बेड़ा पार हो दीजिए भक्ति ज्ञान।। समझदार लोग समझते हैं कि दुनिया के विषयों में, पदार्थों में, वास्तविक सुख नहीं है। तो वास्तविक सुख कहाँ है? हम जब प्रगाढ़ निद्रा में से जागते हैं तब आनन्द भासता है। इससे सिद्ध होता है कि सुख अथवा आनन्द के विषयों के, पदार्थों के बिना भी विद्यमान है। प्रगाढ़ निद्रा में कोई भी पदार्थ उपस्थित नहीं है फिर भी सुखानुभूति है। नींद में से उठने के बाद जब आप कहते हो कि 'खूब शांति से सोया' तब आपका कथन यह बताता है कि गहरी नींद अथवा सुषुप्ति अवस्था में आनन्द है। उस अवस्था में आनन्द क्यों लगता है? क्योंकि उस अवस्था में मन एकाग्र हो जाता है और अन्तःकरण की उस अवस्था में आत्मा की छाया पड़ती है तब सुख मिलता है अथवा आनन्द की अनुभूति होती है। जब हमें कोई इच्छित वस्तु मिलती है अथवा कोई सगे-सम्बन्धी मिलते हैं तब हमें आनन्द होता है। उस समय हम समझते हैं कि वह आनन्द या प्रसन्नता वस्तु अथवा सगे-सम्बन्धियों के मिलने से प्राप्त हुई, परन्तु वास्तव में वह आनन्द उनमें से नहीं मिलता। कई बार हम महसूस करते हैं कि जब हम स्वस्थ नहीं होते तब उस वस्तु अथवा सगे-सम्बन्धी मिलने पर आनन्द नहीं मिलता। स्वस्थ व्यक्ति को इच्छित वस्तु अथवा सगे-सम्बन्धी मिलने पर खुशी इसलिए होती है कि उस समय उसका मन बीमार अवस्था की अपेक्षा ज्यादा स्थिर और एकाग्र होता है। बीमार अवस्था में मन ठीक से स्थिर और एकाग्र नहीं होता, चंचल होता है इसलिए वे चीजें मिलने के बावजूद भी आनन्द नहीं मिलता। इससे हम समझ सकते हैं कि रमणीय वस्तु अथवा सगे-सम्बन्धियों में आनन्द नहीं है। यदि उनमें आनन्द होता तो अस्वस्थता एवं नीरोगता दोनों अवस्थाओं में वह आनन्द समानरूप से मिलना चाहिए था। याद रखो कि आनन्द तो भगवदस्वरूप आत्मा में है। मन एकाग्र बनता है तब उसमें आत्मा की छाया पड़ती है इसलिए आनन्द मिलता है। चंचल मन में आत्मा की छाया ठीक से नहीं पड़ती इसलिए आनन्द नहीं मिलता। आत्मा के संयोग से आनन्द मिलता है। आनन्द मन में अथवा वस्तु में नहीं है, परन्तु आत्मा में है और जो आनन्द होता है वह आत्मा का स्पन्दन मात्र है। आनन्द बाहर नहीं है। जिन विषयों में आनन्द भासित होता है वह आनन्द तो कृत्रिम है। उदाहरणार्थः फोड़ा हुआ और उस पर पट्टी बाँधी तो मलहम अथवा पट्टी अथवा फोड़े में से नहीं निकला। फोड़ा होने के पहले जो सुख था वह सुख ओझल हो गया था जो अब पुनः प्रगट हुआ। कोई नया सुख नहीं मिला। किन्तु दुःख देखे बिना सुख समझ में नहीं आता, सुख की कद्र नहीं होती, अन्यथा आत्मा का सुख तो निरन्तर बना हुआ है। दूसरा उदाहरण देखें- जब तालाब का जल स्थिर और तुच्छ होता है उसके तले की रेती दिखती है किन्तु पानी अगर चंचल और मैला होता है तो तालाब का तल नहीं दिखाई देता। मनरूपी जल स्थिर और स्वच्छ होता है तो तलरूपी आनन्द तो विद्यमान है ही। इच्छाओं के कारण मटमैला हुआ मनरूपी पानी तलरूपी आनन्द को नहीं दिखाता इसीलिए सुखानुभूति के लिए मन स्थिर होना चाहिए। पदार्थों में सुखानुभूति करते समय मनुष्य वास्तव में अपनी आत्मा का ही आनन्द लेते हैं और उस आनन्द को पदार्थों में आरोपित कर देते हैं। प्रत्येक सुख शुद्ध आनन्द के भण्डार में से ही आता है किन्तु भूला हुआ जीव आनन्द के मूल उदगम-स्थान पर मूल पद पर नहीं आता। यदि मनुष्य की दृष्टि बदल जाये तो यह सत्य समझा जा सकता है। वस्तु में आनन्द मानने की आदत पड़ गई है उससे आनन्द प्रगटता नहीं। सूखी हड्डी चबाते हुए कुत्ते के जबड़े में उस हडड़ी के कारण जख्म हो जाता है और उससे खून निकलता है। कुत्ते को उस खून का स्वाद आता है। वह समझता है कि खून हड्डी में से निकल रहा है। वह ऐसा नहीं जानता कि यह तो उसका खुद का खून है। हड्डी में खून कहाँ से आयेगा? लाखों में से किसी एक विरले को ही सच्चे सुख अथवा आनन्द का ज्ञान होता है। हम सब सुख तो चाहते हैं परन्तु समझते हैं कि सुख इन्द्रियों अथवा विषयों में यानी शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध में है, परन्तु वह सच्चा सुख नहीं है। सच्चा सुख तो आत्मा में है। उस सुख की झलक यदि एक बार भी मिल जाये तो फिर संसार के भोग और संसार के पदार्थ फीके लगेंगे और मन बार-बार उस आत्मसुख की ओर दौड़ेगा। अतः संसार में होते हुए भी हृदय में निरन्तर भगवान का, स्मरण करते रहो। कर्म करते हुए भी अकर्त्ता-अभोक्ता होकर रहो। खराब संग, खराब विचार, खराब कर्म से हमेशा दूर रहो। सदैव भलाई के और पुण्य के कार्य करते रहो। सच्चे संकल्प एवं शुभ विचारों से, भलाई के कर्म करने से अन्तःकरण निर्मल होगा। ऐसा करने से अन्तःकरण में संसार की जगह परमात्मा का स्मरण बढ़ जायेगा और सच्चा सुख एवं शान्ति मिलेगी।

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