वर्तमान समय में टी.वी. चैनलों, फिल्मों तथा पत्र-पत्रिकाओं में मनोरंजन के नाम देकर समाज के ऊपर जिसे थोपा जा रहा है, वह मनोरंजन के नाम पर विनाशक ही है। पत्र-पत्रिकाओं के मुख-पृष्ठों तथा अन्दर के पृष्ठों पर अश्लील चित्रों की भरमार रहती है। इस दिशा में अपनी पत्रिकाओं में नई-नई कल्पनाओं को लाने के लिए पाश्चात्य पत्रिकाओं का अनुकरण किया जाता है। फिल्मी जगत तथा टी.वी. चैनल तो मानों इस स्पर्धा के लिए ही आरक्षित हैं। हर बार नये-नये उत्तेजक तथा टी.वी. चैनल तो मानों इस स्पर्धा के लिए ही आरक्षित हैं। हर बार नये-नये उत्तेजक दृश्यों, अपराध की विधाओं, हिंसा के तरीकों का प्रदर्शन करना तो मानों इनका सिद्धान्त ही बन गया है। वास्तव में मनोरंजन से तो मन हल्का होना चाहिए, चिंताओं का दबाव कम होना चाहिए परन्तु यहाँ तो सब कुछ उल्टा ही होता है। ऐसी पाशवी वृत्तियों को प्रोत्साहन मिलता है जिनकी नित्य जीवन की गतिविधियों में कोई गुंजाइश ही नहीं होती। मस्तिष्क की शिराओं पर दबाव, चित्रपट देखने के बाद मन में कोलाहल तथा प्रचंड उद्वेग। एक काल्पनिक कथा पर बनी फिल्मएक दूजे के लिएको देखकर सैंकड़ों युवक युवतियों द्वारा आत्महत्या जैसा पाप करना तथाशक्तिमानधारावाहिक में उड़ते हुए काल्पनिक व्यक्ति को देखकर कई मासूम बच्चों का छतों व खिड़कियों से कूदकर जान से हाथ धो बैठना, क्या यह विनाश की परिभाषा नहीं है ? अहमदाबाद (गुज.)से 26 जनवरी 2000 को प्रकाशित एक समाचार पत्र का एक लेख छपा था। इस लेख का शीर्षक थाःटी.वी. चैनलों पर सुबह के कार्यक्रम में संतों की भीड़।इस लेख में वर्त्तमान समय में पतनोन्मुख समाज को आध्यात्मिक दिशा की ओर अग्रसर करने वाले संत समाज के ऊपर बड़ी आलोचनात्मक टिप्पणी की गई थी। इसी अर्द्धसाप्ताहिक की पृष्ठ संख्या दो पर एक लेख छपा था। इसका शीर्षक था,युवती के जीवन में तीन पुरूष तो हैं ही और चौथा भी आयेगा क्या? यह लेख किसी सॉक्रेटीज के लिए एक पत्र है जिसमें सूरत (गुजरात) की सुरूपा नामक युवती (बी.काम. में अध्ययनरत) ने अपने जीवन के बारे में प्रश्न पूछा है। इतिहास तो बताता है कि साक्रेटीज (सुकरात) आज से लगभग 2350 वर्ष पूर्व अपने शरीर को त्याग चुके हैं। अब यहाँ कौन से सुकरात पैदा हुए, यह तो भगवान ही जानें। अपनी जीवनगाथा लिखते हुए वह युवती कहती है कि उसे अपने ही मुहल्ले का अभय नाम का युवक पसन्द आ गया और उसने उसके साथ शारीरिक संबंध बना लिया। उसके बाद उसे कॉलेज में पढ़ रहे निष्काम और शेखर के प्रति भी आकर्षण हो गया। अब वह सुरूपा घर में अभय, कालेज में निष्काम तथा रविवार को शेखर के लिए आरक्षित है। अप्रैल में उसकी परीक्षा पूरी होगी तथा उसके माता-पिता उसकी शादी कर देंगे। अब वह युवती साक्रेटीज महोदय से प्रश्न करती है कि ऐसी स्थिति में मैं क्या करूँ ? क्योंकि मुझे तीनों लड़के पसंद हैं। क्या उपरोक्त कहानी एक भारतीय कन्या के नाम पर बदनुमा दाग नहीं है ? हमारे शास्त्रों में आदर्श आर्यकन्या के रूप में सती सावित्री का नाम आता है जिसने सत्यवान को अपने पति के रूप में वरण किया था। जब सबको पता लगा कि सत्यवान अल्पायु है तो सभी ने सावित्री पर दबाव डाला कि वह किसी दूसरे युवक का वरण कर ले परन्तु भारत की वह कन्या अपने धर्म पर अडिग रहती है और उसकी इसी निष्ठा ने उसे यमराज के पास से उसके पति के प्राण वापस लाने में समर्थ बना दिया। अब आप स्वयं विचार कीजिए कि भारत की कन्याओं के जीवन को महान बनाने के लिए ‘संदेश’ के प्रकाशन विभाग की सती सावित्री की कथा छापनी चाहिए या सुरूपा की ? सुरूपा के बाद आइये सॉक्रेटीज महोदय के पास चलते हैं। देखिये कि वे सुरूपा के प्रश्न का कैसा जवाब देते हैं। सॉक्रेटीज महोदय कहते हैं- “आपका कुछ नहीं होगा। आप चौथे को पसंद करोगी और शेष जीवन में संसार के तमाम सुख भोगोगी, यह बात मैं छाती ठोककर कहता हूँ। आपने तीन युवकों के साथ निकटता रखी और उनका भरपूर उपयोग किया, इस बात पर मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता। यह उमर ही ऐसी है। आपके इस अहोभाग्य से अन्य युवतियाँ ईर्ष्या भी कर सकती हैं। इस प्रकार का एक लम्बा चौड़ा जवाब साक्रेटीज महोदय ने दिया है। आप जरा सोचिये कि संसार तथा शरीर को नश्वर समझने वाले आत्मनिष्ठा के धनी साक्रेटीज के पास यदि यह बात जाती तो क्या वह ऐसा जवाब देते ? यह तो समाज के साथ बहुत बड़ा धोखा हो रहा है। यह तो अखबार के नाम पर भारतीय सनातन संस्कृति को तोड़क भोगवादी संस्कृति का साम्राज्य फैलाने का एक घिनौना षडयंत्र है। पाश्चात्य जगत का अंधानुकरण करके भारतीय समाज पहले ही पतन के बड़े गर्त में गिरा हुआ है। फैशनपरस्ती, भौतिकता तथा भोगवासना ने समाजोत्थान के मानदण्डों को ध्वस्त कर दिया है। युवा वर्ग व्यसनों तथा भोगवासना की दुष्प्रवृत्तियों का शिकार बन रहा है। ऐसी स्थिति में संतसमाज द्वारा ध्यान योग शिविरों, विद्यार्थी उत्थान शिविरों, रामायण तथा भागवत, गीता और उपनिषदों की कथा-सत्संगों के माध्यम से गिरते हुए मानव को अशांति, कलह तथा दुःखी जीवन से सुख, शांति एवं दिव्य जीवन की ओर अग्रसर करने के महत् कार्य किये जा रहे हैं। इन कार्यक्रमों से लाखों-लाखों भटके हुए लोगों को सही राह मिल रही है। इसके कई उदाहरण हैं। यौवन सुरक्षातथा महान नारीजैसी प्रेरणादायी पुस्तकों से तेजस्वी जीवन जीने की प्रेरणा व कला मिल रही है। यदि विवेक-बुद्धि से विचार किया जाय तो भारत का अन्न खानेवाले इन लोगों को अपनी सस्कृति के उत्थान के लिए सहयोग करना चाहिए परन्तु ये तो समाज की उन्नति में बाधा बनकर देशद्रोही की भूमिका निभा रहे हैं। ऐसे लेख छापकर व्यभिचार और पाश्चात्य संस्कृति को बढ़ावा देने का कुकृत्य कर रहे हैं। पाश्चात्य देशों के अधिकांश लोग अपनी संस्कृति छोड़कर, उच्छ्रंखलता से बाज आकर सनातनी संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं परन्तु सनातनी संस्कृति के कुछ लोग पश्चिम की भोगवादी संस्कृति को अपना रहे हैं और उसका बड़े जोर-शोर से प्रचार कर रहे हैं। यह कैसी मूर्खता है ? जिनसे समाज की शांति, सत्प्रेरणा, उचित मार्गदर्शन तथा दिव्य जीवन जीने की कला मिल रही है, उनका तो विरोध होता है और जिनसे समाज में कुकर्म, व्यभिचार तथा चरित्रहनन जैसी कुचेष्टाओं को बढ़ावा मिले – ऐसे लेख प्रकाशित हो रहे हैं। अब आप स्वयं विचार कीजिए कि ऐसे लोग मानवता व संस्कृति के मित्र हैं या घोर शत्रु ? मोहनदास करमचंद गाँधी ने बचपन में केवल एक बारसत्यवादी हरिश्चन्द्रनाटक देखा था। उस नाटक का उन पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने आजीवन सत्यव्रत लेने का संकल्प ले लिया तथा इसी व्रत के प्रभाव से वे इतने महान हो गये। एक चलचित्र का एक बालक के जीवन पर कितना गहरा प्रभाव पड़ता है, यह गाँधी जी के जीवन से स्पष्ट हो जाता है। अब जरा विचार कीजिए कि जो बच्चे टी.वी. के सामने बैठकर एक ही दिन में कितने ही हिंसा, बलात्कार और अश्लीलता के दृश्य देख रहे हैं वे आगे चलकर क्या बनेंगे ? सड़क चलते हुए हमारी बहन, बेटियों को छेड़ने वाले लोग कहाँ से पैदा हो रहे हैं ? उनमें बुराई कहाँ से पैदा होती है ? कौन हैं ये लोग जो 5 और 10 साल की बच्चियों को भी अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं ? इनको यह सब कौन सिखाता है ? क्या ये किसी स्कूल से प्रशिक्षण लेते हैं ? किसी भी स्कूल में ऐसा पाप करने का प्रशिक्षण नहीं मिलता। कोई भी माता-पिता अपने बच्चों से ऐसा पाप नहीं करवाते। इसके बावजूद भी ऐसे लोग समाज में हैं तो उसके कारण हैं टी.वी., सिनेमा तथा गन्दे पत्र-पत्रिकायें जिनके पृष्ठों पर अश्लील चित्र तथा सामग्रियाँ छापी जाती हैं। कुछ समय पूर्व ‘पाञ्चजन्य’ में छपी एक खबर के अनुसार हैदराबाद के समीप चार युवकों ने रात के अँधेरे में राह चलती एक युवती को रोका तथा निकट के खेतों में ले जा कर उसके साथ बलात्कार किया। जब वे युवक पकड़े गये तो उन्होंने बताया कि वे उस समय सिनेमाघर से ठीक वैसा ही दृश्य ही देखकर आ रहे थे जिसका दुष्प्रभाव उनके मन पर बहुत गहरा उतर गया था। जिस देश के ऋषियों ने कहाःयत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवताउसी देश की नारियों के लिए घर से बाहर निकलना भी असुरक्षित हो गया है। यह कैसा मनोरंजन है ? यह मनोरंजन नहीं है अपितु घर-घर में सुलगती वह आग है जो जब भड़केगी तो किसी से देखा भी नहीं जायेगा। जिस देश की संस्कृति में पति-पत्नी के लिए भी माता-पिता तथा बड़ों के सामने आपसी बातें करने की मर्यादा रखी गयी है, उसी देश के निवासी एक साथ बैठकर अश्लील दृश्य देखते हैं, अश्वलील गाने सुनते हैं। यह मनोरंजन के नाम पर विनाश नहीं तो और क्या हो रहा है ? यदि आप अपनी बहन-बेटियों की सुरक्षा चाहते हैं, यदि आप चाहते हैं कि आपका बच्चा किसी गली का माफिया न बने, डॉन न बने अथवा तो बलात्कार जैसे दुष्कर्मों के कारण जेलों में न सड़े, यदि आप चाहते हैं कि आपके नौनिहाल संयमी, चरित्रवान तथा महान बनें तो आज से ही इन केबल कनेक्शनों, सिनेमाघरों तथा अश्लीलता का प्रचार करने वाले पत्र-पत्रिकाओं का बहिष्कार कीजिए। हमें नैतिक तथा मानसिक रूप से उन्नत करने वाली फिल्मों की आवश्यकता है। हमें ऐसे प्रसारण चाहिए, ऐसे दृश्य चाहिए जिनसे स्नेह, सदाचार, सहनशीलता, करूणाभाव, आत्मीयता, सेवा-साधना, सच्चाई, सच्चरित्रता तथा माता-पिता, गुरूजनों एवं अपनी संस्कृति के प्रति आदर का भाव प्रगट हो जिससे हमारा देश दिव्यगुण सम्पन्न हो, आध्यात्मिक क्षेत्र का सिरताज बने। इसके लिये जागृत होकर हम सबको मिलकर प्रयास करना चाहिए।