गुरू और शिष्य जा रहे थे। गुरू ने कहाः “देख बेटा ! कुछ बनना मत। बनेगा तो बिगड़ेगा।” ऐसे ही साधक कुछ बनने की इच्छा नहीं करता। मूकवत्……जड़वत्……काष्ठवत् रहता है। “बेटा ! तू सावधान रहना, कुछ बनना मत। सतर्क रहना।” लेकिन जीव को बनने की पुरानी आदत है। गुरू शिष्य घूमते-घामते किसी राजा के बगीचे में पहुँचे। वहाँ कुछ कमरे भी बने थे। राजा यदा-कदा उस बगीचे में घूमने फिरने आया करता था। शिष्य एक कमरे में जाकर सो गया एवं गुरू दूसरे कमरे में। इतने में राजा घूमता-घामता उधर आया और देखा कि उसके कमरे कोई सो रहा है। राजा के नौकर ने पूछाः “तू कौन है ?” शिष्यः “मैं साधू हूँ।” नौकर ने उठाकर शिष्य के गाल पर एक थप्पड़ रख दी और डाँटाः “साधु है? कैसा साधु है? राजा के कमरे में, राजा के पलंग पर बिना पूछे सो गया? साधु है फिर भी पलंग पर सोने का शौक नहीं गया? साधु है फिर भी आराम चाहता है?” नौकर ने तीन-चार थप्पड़ और लगाकर, कान खींचकर शिष्य को भगा दिया। राजा घूमते-घामते दूसरे कमरे में पहुँचा। देखा तो वहाँ भी कोई सोया हुआ है। राजा के वजीर ने पूछाः “कौन हो ?” बाबा ने कोई जवाब नहीं दिया। आखिर बाबा को हिलाकर पूछाः “कौन हो ?” बाबा चुप रहे। राजा ने कहाः “इनको डाँटो मत। ये कोई सिद्ध महात्मा मालूम होते हैं।” राजा ने आदर सहित महात्मा को प्रणाम किया। जब जीव कुछ बनता है तब अहंता से जुड़ता है और अहंता ममता ही मार खाती है। इस अहंता ममता में कोई सार नहीं है। –अज्ञानी, पामर और मूर्ख लोग जिसको सत्य समझकर अपना जन्म गँवा रहे हैं उस संसार में भी कोई सार नहीं है। – जैसे कोई श्वान की खाल में पड़ी हुई खीर की इच्छा नहीं करता, ऐसे ही विवेकी मनुष्य दूसरे गर्भ में जाकर माताओं का दूध पीने की इच्छा नहीं करता। – जैसे कोई पामर और शराबी व्यक्ति को न्यायाधीश नहीं बनाना चाहता, वैसे ही अज्ञानी मन के कहने में साधक नहीं चलता। – जैसे कोई विष्ठा के पाईप में सोने की इच्छा नहीं करता ऐसे हीवैराग्यवान मनुष्य दूसरे जन्म में माता के गर्भ में नव महीने उल्टा लटकने की इच्छा नहीं करता, रक्त और पीब से भरे हुए कुण्ड में स्नान नहीं करना चाहता। – यह शरीर क्या है ? हाड़-माँस, त्वचा, रक्त और मल-मूत्र से भरा हुआ देह| श्रीकृष्ण कहते हैः “हे उद्धव ! जैसे धधकती हुई अग्नि में कूदने की इच्छा कोई नहीं करता, ऐसे ही समझदार व्यक्ति इन्द्रियों के भोग में नहीं कूदता। बल्कि वह अपनी इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके, मन को परमात्मशांति में डुबाकर मेरे को अभिन्न हो जाता है।”