भारत दरिद्र क्यों हुआ ? (परम पूज्य संतश्री आसारामजी बापू के सत्संग प्रवचन से) बुद्धिगत ज्ञान का आदर करने से व्यर्थ का आकर्षण, व्यर्थ की चेष्टा, व्यर्थ के भोग और व्यर्थ का संग्रह, व्यर्थ का शोषण और व्यर्थ का पुचकार सारा का सारा खत्म होता चला जाएगा। विकल्प कम होने से तुम्हारा मन निःसंकल्प होगा। मन निःसंकल्प होने लगेगा तो सामर्थ्य बढ़ने लगेगा। मन को ज्यादा काम नहीं तो बुद्धि को ज्यादा परेशानी नहीं। बुद्धि जहाँ से स्फुरित होती है उस वास्तविक ज्ञान में बुद्धि ठहरने की अधिकारी हो जाएगी। तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता। इन्द्रियगत ज्ञान अति तुच्छ है। जो लोग इन्द्रियगत ज्ञान को सर्वस्व मानते हैं उन लोगों के जीवन में बस, भोग…. भोग…. भोग…..। पाश्चात्य जगत परलोक को नहीं मानता, श्राद्ध आदि को नहीं मानता। वे लोग इन्द्रियगत ज्ञान को ही सर्वस्व मानते हैं। इस शरीर को खूब खिलाओ-पिलाओ और भोग भोगो। इन्द्रियगत ज्ञान का आदर हैं इसलिए इन्द्रियों को खूब भोग चाहिए। इन्द्रियाँ चंचल हैं इसलिए भोग भी बदलते रहते हैं। पाश्चात्य जगत की क्या परिस्थिति है ? बड़ी दयनीय स्थिति है उन लोगों की। वे लोग समय-समय पर फैशन बदलते हैं, फर्नीचर बदलते हैं, घर बदलते हैं, कार बदलते हैं, कपड़े बदलते हैं…. और यहाँ तक कि पत्नी भी बदलते हैं। कहीं-कहीं तो ऐसी जगह है जहाँ लोग अपनी पत्नी ले जाते हैं।सब लोग नाचते हैं, झूमते हैं, दारू पीते हैं और पत्नियाँ बदलकर उपभोग करते हैं। फिर भी बेचारों को सुख नहीं है….दिनोंदिन अशान्ति के, बरबादी के रास्ते चले जा रहे हैं। पत्नी बदलो, परिवार बदलो, घर बदलो, गाड़ी बदलो, कपड़े बदलो, यह बदलो, वह बदलो फिर भी शांति नहीं। अमेरिका में पच्चीस करोड़ की जनसंख्या है और 20-25 हजार लोग हर साल आत्महत्या करते हैं। हालाँकि वहाँ आर्थिक स्थिति बड़ी अच्छी है, खाने पीने की चीजें प्रचुर मात्रा में हैं, उनमें कोई मिलावट नहीं है, लोग खूब काम करते हैं, अपनी डयूटी बजाते हैं लेकिन मशीन की तरह काम किये जा रहे हैं। भोग में अपने को गिराये जा रहे हैं। भारत का अभी भी सौभाग्य है कि हजारों की संख्या में तुम लोग आत्म-शांति की जगह में बैठ सकते हो। भारत के युवक जब विदेशों में जाते हैं तब वहाँ उनका ‘ब्रेन वॉश’ किया जाता है। वे युवक उनसे इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जिस भूमि में वे पैदा हुए, जो ऋषियों की भूमि है, भगवान ने भी कई अवतार इसी भूमि पर लिये हैं, कई संत-महात्मा, ब्रह्मवेत्ता सत्पुरुष इस भूमि पर अवतरित होते रहते हैं ऐसी अपनी मातृभूमि भारत के लिए उन्हें घृणा और नफरत पैदा हो जाती है। जीसस क्राइस्ट सत्रह साल भारत में रहे थे। कश्मीर के योगियों से योग सीखा।बाद में वहाँ जाकर चमके थे। ऐसी दिव्य भारत भूमि के लिए ही वे युवक बोलने लगते हैं- India is nothing, India is very poor. मैं अमेरिका गया था तो वहाँ के लोगों ने पूछाः “आप आध्यात्मिकता की बात करते हैं… तो भारत में आध्यात्मिकता हैं फिर भी भारत इतना गरीब क्यों है ?” मैंने कहाः “हमारा भारत गरीब क्यों है यह तुम्हें बता दूँगा लेकिन पहले तुम यह बताओ कि तुम्हारे पास सब कुछ भौतिक सुविधाएँ होने के बावजूद भी दिल की दरिद्रता क्यों नहीं मिटती? पति कमाता है, पत्नी कमाती है, बच्चे कमाते हैं फिर भी जैसे बूढ़े पशुओं की गोशाला में भेज देते हैं ऐसे ही तुम अपने माँ-बाप को नर्सिंग होम में क्यों भेज देते हो ? इतने दिल के दरिद्र क्यों ?” भारत दरिद्र क्यों हुआ यह मैं बताता हूँ। वह जमाना था कि भारत के बच्चे सोने के बर्तनों में भोजन करते थे। युधिष्ठिर महाराज ने यज्ञ किया था तब प्रतिदिन एक लाख लोगों को भोजन कराते थे, दस हजार साधू ब्राह्मणों को सुवर्ण-पात्रों में परोसा जाता था। उन्हें हाथ जोड़कर विनती करते थे कि ये सुवर्ण-पात्र को स्वीकार करके भोजनोपरान्त कृपया अपने घर ले जाइये। भोजन की पंक्तियों में कुछ लोग ये बर्तन ले जाते और कुछ लोग ऐसे भी थे जो कहतेः ‘हम ये सोने के ठीकरे सँभालेंगे कि अपने आत्मधन का ख्याल करेंगे ?’ सोने के बर्तन वहीं छोड़कर वे चले जाते थे। ऐसा हमारा भारत था ! हमारे भारत का एक साधू वहाँ पहुँचा तो अमेरिका के राष्ट्रपति मि. रूझवेल्ट उसका दर्शन करके बोलता हैः ”आज मेरा जीवन धन्य हुआ। अब तक ईसा मसीह के बारे में केवल सुना था। आज जिन्दा ईसा मुझे इस साधू में दिखाई दे रहा है।” भारत में ऐसे मोती पकते हैं। भारत आध्यात्मिक और भौतिक दोनों संपत्तियों से समृद्ध था।फेरीवाले पुकार लगाते थेः ‘देना चाहो तो सोने चाँदी के टूटे-फूटे बर्तन….।’ जमाना बदला। विदेशी लुटेरों ने देश पर आक्रमण किया।भारतीयों में संकीर्णता और दुर्बलता घुस गई।‘सबमें भगवान हैं’ की भगवान से सब विदेशियों को आत्मसात् कर लिया लेकिन लुटेरों ने भारत का सब माल हड़प कर लिया। फिर अफगानिस्तान वाले आये, हूण आये, शक आये, ग्रीक आये, फिरंगी आये, अंग्रेज आये। सदियों तक भारत पराधीन बना रहा। शोषकों ने भारत की आर्थिक स्थिति सब गड़बड़ कर दी। शोषक लोग बढ़ गये, कंस और रावणों का प्रभाव बढ़ गया। समाज का खून चूसने वाले दुष्टों का बोलबाला होने लगा। लोगों की सावधानी नहीं रही। उन्होंने बलवान संकल्प-शक्ति खो दी। अपनी हिम्मत और प्राणशक्ति को भूलते गये। आध्यात्मिकता का, वेदांत का, उपनिषदों का अमृतोपदेश गिरिगुफाओं तक ही सीमित होने लगा। लोग हिम्मत, साहस, प्रसन्नता और सतर्कता भूलते गये। भय, लाचारी, खुशामदखोरी, पलायनवाद…. ‘अपना क्या ? करेगा सो भरेगा….’ इस प्रकार की धारणा से समाज पिछड़ गया। इसका फायदा शोषकों ने लिया। ….. और इस समय भारत में अमेरिका की अपेक्षा भूमि कम है, अमेरिका की अपेक्षा तीसरा हिस्सा भी नहीं है और जनसंख्या तीन गुना से अधिक है इस प्रकार देखा जाए तो अमेरिका में भारत की अपेक्षा करीब साढ़े नौ गुनी अधिक भौतिक सुविधाएँ हैं। फिर भी हमें रंज नहीं है।तुम्हारे यहाँ इतनी सुविधाएँ होने पर भी अभी भी भारत आध्यात्मिक सपूतों के प्रसाद से प्रेम और सहनशक्ति, सहानूभूति और स्नेह, सदभाव और सामाजिक जीवन में कहीं ऊँचा है। भले सिनेमा और टी.वी. के माध्यम से पाश्चात्य जगत की गन्दगी भारत में भी आ रही है फिर भी आध्यात्मिक सुवास, हृदय की शान्ति कोई लेना चाहे तो, मिलेगी तो भारत से ही मिलेगी, तुम्हारे यहाँ मिलना मुश्कित है।” हे भारतवासियों ! आत्म-शान्ति, आत्म-निर्भरता, आत्म-संयम और सदाचार बढ़ाकर अपना आत्म-साक्षात्कार…. अपना जन्म सिद्ध अधिकार पा लो। कब तक विलासियों का अनुकरण करते-करते अपने को अशान्ति और उद्वेग में खपाते रहोगे ? ऊठो… जागो…. कमर कसो। सनातन धर्म के सर्वोपरि सिद्धान्तों को अमल में लाओ और यहीं, इसी जन्म में आत्मा-परमात्मा का अनुभव, अपनी परमात्मा का अनुभव कर लो। हे परमेश्वर के अति निकटवर्ती मानव ! बहकावे में विलासिता में फिसलने से अपने को बचा। मानव ! तुझे नहीं याद क्या ? तू ब्रह्म का ही अंश है। कुल गोत्र तेरा ब्रह्म है तू ब्रह्म का ही वंश है।। हे स्थितप्रज्ञ ! हे ऋषियों की संतान ! अपनी प्रज्ञा को ऊँचा उठाओ… ब्रह्म में स्थिर करो। यही तुम्हारा वास्तविक में मुख्य कर्त्तव्य है। फिर पूरा संसार तुम्हें खिलौना लगेगा। ॐ….. ॐ….. ॐ….. जागो…. जागो…..। ऐसे पुरुषों को खोज लो जो तुम्हारी प्रज्ञा को परमात्मा में प्रतिष्ठित कराने की क्षमता रखते हों। उत्तिष्ठत… जाग्रत…. प्राप्य वरान्निबोधत…..।