जो तुम्हें शरीर से, मन से, बुद्धि से दुर्बल बनाये वह पाप है। पुण्य हमेशा बलप्रद होता है। सत्य हमेशा बलप्रद होता है। तन से, मन से, बुद्धि से और धन से जो तुम्हें खोखला करे वह राक्षस है। जो तुम्हें तन-मन-बुद्धि से महान् बनायें वे संत हैं। जो आदमी डरता है उसे डराने वाले मिलते हैं। त्रिबन्ध के साथ प्राणायाम करने से चित्त के दोष दूर होने लगते हैं, पाप पलायन होने लगते हैं, हृदय में शान्ति और आनन्द आने लगता है, बुद्धि में निर्मलता आने लगती है। विघ्न, बाधाएँ, मुसीबतें किनारा करने लगती हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ आप क्या पढ़ते हैं? आप शारीरिक सुख संबंधी ज्ञान देने वाला साहित्य पढ़ते हैं या चोरी, डकैती, आदि के उपन्यास, विकारोत्तेजक काम-कहानियाँ पढ़कर अपनी कमनसीबी बढ़ाते हैं? अपनी मनोवृत्तियों को विकृत करने वाली अश्लील पुस्तकें पढ़ते हैं कि जीवन में उदारता, सहिष्णुता, सर्वात्मभाव, प्राणीमात्र के प्रति सदभाव, विश्वबंधुत्व, ब्रह्मचर्य, निर्लोभ, अपरिग्रह आदि दैवी सदगुण-प्रेरक साहित्य पढ़ते हैं..... वेद-वेदान्त के शास्त्रों का अध्ययन करते हैं.... भगवान के नाम, धाम, रूप, गुण स्वभाव, लीला, रहस्य आदि का निरूपण करने वाले शास्त्र पढ़ते हैं....... भगवान, भक्त और संतों की साधना-कहानियाँ पढ़कर अपना जीवन भगवन्मय बनाते हैं । आप तमोगुणी शास्त्र पढ़ेंगे तो जीवन में तमोगुण आयेगा, रजोगुणी शास्त्र पढ़ेंगे तो रजोगुण और सत्त्वगुणी शास्त्र पढ़ेंगे, विचारेंगे तो जीवन में सत्त्वगुण आयेगा । भगवत्सम्बन्धी शास्त्र पढ़ेंगे तो आपके जीवन में भगवान आयेंगे । तत्त्वबोध के शास्त्र पढ़ेंगे तो वे नाम रूप को बाधित करके सत्यस्वरूप को जगा देंगे । कंगन, हार, अंगूठी आदि को बाधित करके जो शुद्ध सुवर्ण है उसको दिखा देंगे । अतः आपको ऐसा ही पठन करना चाहिए जिससे आप में सदाचार, स्नेह, पवित्रता, सर्वात्मभाव, निर्भयता, निरभिमानता आदि दैवी गुणों का विकास हो, संत और भगवान के प्रति आदर-मान की भावना जगे, उनसे निर्दोष अपनापन बुद्धि में दृढ़ हो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ऐ मन रूपी घोड़े ! तू और छलांग मार। ऐ नील गगन के घोड़े ! तू और उड़ान ले। आत्म-गगन के विशाल मैदान में विहार कर। खुले विचारों में मस्ती लूट। देह के पिंजरे में कब तक छटपटाता रहेगा ? कब तक विचारों की जाल में तड़पता रहेगा ? ओ आत्मपंछी ! तू और छलांग मार। और खुले आकाश में खोल अपने पंख। निकल अण्डे से बाहर। कब तक कोचले में पड़ा रहेगा ? फोड़ इस अण्डे को। तोड़ इस देहाध्यास को। हटा इस कल्पना को। नहीं हटती तो ॐ की गदा से चकनाचूर कर दे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जैसे भगवान निर्वासनिक हैं, निर्भय हैं, आनन्दस्वरूप हैं, ऐसे तुम भी निर्वासनिक और निर्भय होकर आनन्द में रहो। यही उसकी महा पूजा है। अपनी महिमा से अपरिचित हो, इसलिए तुम किसी से भी प्रभावित हो जाते हो। कभी मसखरों से, कभी विद्वानों की वाणी से, कभी पहलवानों या नट-नटियों से, कभी भविष्यवक्ताओं से, कभी नेताओं से कभी जादू का खेल दिखाने वालों से, कभी स्त्रियों से, कभी पुरुषों से तो कभी थियेटरों में प्लास्टिक की पट्टियों (चलचित्रों) से प्रभावित हो जाते हो। यह इसलिए कि तुम्हें अपने आत्मस्वरूप की गरिमा का पता नहीं है। आत्मस्वरूप ऐसा है कि उसमें लाखों-लाखों विद्वान, पहलवान, जादूगर, बाजीगर, भविष्यवक्ता आदि आदि स्थित हैं। तुम्हारे अपने स्वरूप से बाहर कुछ भी नहीं है। तुम बाहर के किसी भी व्यक्ति से या परिस्थिति से प्रभावित हो रहे हो तो समझ लो तुम मालिक होते हुए भी गुलाम बने हुए हो। खिलाड़ी अपने ही खेल में उलझ रहा है। तमाशबीन ही तमाशाई बन रहा है। हाँ, प्रभावित होने का नाटक कर सकते हो, परन्तु यदि वस्तुतः प्रभावित हो रहे हो तो समझो, अज्ञान जारी है। तुम अपने आप में नहीं हो। मन को उदास मत करो। सदैव प्रसन्नमुख रहो। हँसमुख रहो। तुम आनन्दस्वरूप हो। भय, शोक, चिन्ता आदि ने तुम्हारे लिए जन्म ही नहीं लिया है, ऐसी दृढ़ निष्ठा के साथ अपने आत्मभाव में स्थिर रहो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मुक्ति और बन्धन तन और मन को होते है। मैं तो सदा मुक्त आत्मा हूँ। अब मुझे कुछ पता चल रहा है अपने घर का। मैं अपने गाँव जाने वाली गाड़ी में बैठा तब मुझे अपने घर की शीतलता आ रही है। योगियों की गाड़ी मैं बैठा तो लगता है कि अब घर बहुत नजदीक है। भोगियों की गाड़ियों में सदियों तक घूमता रहा तो घर दूर होता जा रहा था। अपने घर में कैसे आया जाता है, मस्ती कैसे लूटी जाती है यह मैंने अब जान लिया ! ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सेवा के लिए शरीर को टिकाना है' यह भाव आ जाय तो जीवन यज्ञ बन जाय। भोग के लिए शरीर को टिकाया तो बन्धन हो गया। परहित के कार्य करने के लिए शरीर को तन्दुरूस्त रखना यह यज्ञ हो गया। अपने को कुछ विशेष बनाने के लिए शरीर का लालन-पालन किया तो बन्धन हो गया। जो यज्ञार्थ कर्म करते हैं वे बड़े आनन्द से जीते हैं, बड़ी मौज से जीते हैं। जितना-जितना निःस्वार्थ भाव होता है उतना-उतना भीतर का रस छलकता है। मन बुद्धि विलक्षण शक्ति से सम्पन्न हो जाते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ भूतकाल जो गुजर गया उसके लिये उदास मत हो। भविष्य की चिन्ता मत करो। जो बीत गया उसे भुला दो। जो आता है उसे हँसते हुए गुजारो। जो आयेगा उसके लिए विमोहित न हो। आज के दिन मजे में रहो। आज का दिन ईश्वर के लिए। आज खुश रहो। आज निर्भय रहो। यह पक्का कर दो। 'आज रोकड़ा.... काले उधार।' इसी प्रकार आज निर्भय....। आज नहीं डरते। कल तो आयेगी नहीं। जब कल नहीं आयेगी तो परसों कहाँ से आयेगी ? जब आयेगी तो आज होकर ही आयेगी। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ विघ्न, बाधाएँ, दुःख, संघर्ष, विरोध आते हैं वे तुम्हारी भीतर की शक्ति जगाने कि लिए आते है। जिस पेड़ ने आँधी-तूफान नहीं सहे उस पेड़ की जड़ें जमीन के भीतर मजबूत नहीं होंगी। जिस पेड़ ने जितने अधिक आँधी तूफान सहे और खड़ा रहा है उतनी ही उसकी नींव मजबूत है। ऐसे ही दुःख, अपमान, विरोध आयें तो ईश्वर का सहारा लेकर अपने ज्ञान की नींव मजबूत करते जाना चाहिए। दुःख, विघ्न, बाधाएँ इसलिए आती हैं कि तुम्हारे ज्ञान की जड़ें गहरी जायें। लेकिन हम लोग डर जाते है। ज्ञान के मूल को उखाड़ देते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सदगुरु ही जगत में तुम्हारे सच्चे मित्र हैं। मित्र बनाओ तो उन्हें ही बनाओ, भाई-माता-पिता बनाओ तो उन्हें ही बनाओ। गुरुभक्ति तुम्हें जड़ता से चैतन्यता की ओर ले जायेगी। जगत के अन्य नाते-रिश्ते तुम्हें संसार में फँसायेंगे, भटकायेंगे, दुःखों में पटकेंगे, स्वरूप से दूर ले जायेंगे। गुरु तुम्हें जड़ता से, दुःखों से, चिन्ताओं से मुक्त करेंगे। तुम्हें अपने आत्मस्वरूप में ले जायेंगे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ