जब राजा दशरथ शनिदेव पर संहार अस्त्र छोड़ने को हुए तैयार……….
                             राजा दशरथ का अपने गुरुदेव महर्षि वसिष्ठजी के चरणों में पूर्ण समर्पण था। उनका जीवन और राज्य व्यवस्था गुरुदेव वसिष्ठजी के परहितपरायणता, निःस्वार्थता, परस्पर हित जैसे सिद्धान्तों से सुशोभित थे। उनके राज्य में प्रजा बाह्य सम्पदा के साथ सत्यनिष्ठा, संयम, सदाचार, कर्तव्यनिष्ठा, ईश्वरप्रीति, संत-सेवा आद दैवी गुणरूपी आंतरिक वैभव से सम्पन्न थी। वसिष्ठजी जैसे त्रिकालज्ञ महापुरुषों द्वारा समाज की वर्तमान समस्याओं के हल तो मिलते ही हैं, साथ ही भविष्य में आने वाले संकटों पर भी उनकी सूक्ष्म दृष्टि होती है और उनके अकाट्य उपाय बताकर वे समस्याओं का निवारण भी बता देते हैं। एक बार शनिदेव रोहिणी का भेदन कर आगे बढ़ने वाले थे। यह योग आ जाता तो पृथ्वी पर बारह वर्षों तक अकाल पड़ता। इस योग का नाम शाकटभेदहै। हृदय दहलाने वाली यह भावी भीषण आपदा महर्षि वसिष्ठजी की दूरदृष्टि से छिपी न रह सकी। उन्होंने इस भारी संकट का हल ढूँढ निकाला पर वह सहज नहीं था। सदगुरु वसिष्ठजी की आज्ञा पाकर राजा दशरथ उस योग के आने के पहले ही उसे रोकने के लिए नक्षत्र-मंडल में जा पहुँचे। पहले तो उन्होंने शनिदेव को प्रणाम किया और फिर अपने क्षत्रिय धर्म के अनुसार उन पर संहार अस्त्र छोड़ने को तैयार हुए। शनिदेव राजा दशरथ की कर्तव्यनिष्ठा से प्रसन्न हुए और बोलेः वत्स ! यहाँ आकर कोई बचता नहीं है। तुम गुरुकृपा से बच गये हो। तुम्हारी गुरुनिष्ठा और प्रजावत्सलता से मैं संतुष्ट हूँ। अतः मनचाही वस्तु मुझसे माँग लो।त्रिकालदर्शी ब्रह्मज्ञानी गुरु का कृपा-प्रसाद पचाया हुआ शिष्य भी तो दूरदृष्टि सम्पन्न होता है। राजा दशरथ ने केवल वर्तमान प्रजा के लिए ही नहीं अपितु भविष्य की प्रजा को भी बचाने के लिए वरदान माँगाः भगवन् ! आप प्रसन्न हैं तो वरदान दीजिए कि जब तक सूर्य और चन्द्रमा सहित पृथ्वी का अस्तित्व है, तब तक कभी आप रोहिणी का भेदन नहीं करेंगे।शनिदेव ने प्रसन्नता के साथ मुँहमाँगा वरदान दे दिया। इतिहास व शास्त्र इस बात के प्रमाण हैं कि जिन-जिन शासकों ने ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों के मार्गदर्शन के अनुसार शासन किया है, उन्हीं के द्वारा प्रजा का सच्चा हित हुआ है। उन्हीं का सुयश हुआ है तथा वह चिरस्थायी भी रहा है। स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर २०१५, पृष्ठ संख्या २०, अंक २७४

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ