मैं भी नहीं और मुझसे अलग अन्य भी कुछ नहीं। साक्षात् आनन्द से परिपूर्ण, केवल, निरन्तर और सर्वत्र एक ब्रह्म ही है। उद्वेग छोड़कर केवल यही उपासना सतत करते रहो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जब आप जान लेंगे कि दूसरों का हित अपना ही हित करने के बराबर है और दूसरों का अहित करना अपना ही अहित करने के बराबर है, तब आपको धर्म के स्वरूप का साक्षत्कार हो जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यह चराचर सृष्टिरूपी द्वैत तब तक भासता है जब तक उसे देखनेवाला मन बैठा है। मन शांत होते ही द्वैत की गंध तक नहीं रहती। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिस प्रकार एक धागे में उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ फूल पिरोये हुए हैं, उसी प्रकार मेरे आत्मस्वरूप में उत्तम, मध्यम और कनिष्ठ शरीर पिरोये हुए हैं। जैसे फूलों की गुणवत्ता का प्रभाव धागे पर नहीं पड़ता, वैसे ही शरीरों की गुणवत्ता का प्रभाव मेरी सर्वव्यापकता नहीं पड़ता। जैसे सब फूलों के विनाश से धागे को कोई हानि नहीं, वैसे शरीरों के विनाश से मुझ सर्वगत आत्मा को कोई हानि नहीं होती। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मैं निर्मल, निश्चल, अनन्त, शुद्ध, अजर, अमर हूँ। मैं असत्यस्वरूप देह नहीं। सिद्ध पुरुष इसीको ‘ज्ञान’ कहते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ह्रदय को इतना कठोर बनाओ कि जगत का कुछ भी उसमें न घुसे और ह्रदय को इतना कोमल बनाओ कि प्रभु के रंग में रंग जाए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सबसे बड़ी बात है ब्रह्मविद्या। सबसे बड़ी बात है आत्म-साक्षात्कार। उसे सिद्ध कर लेने के बाद, प्राप्त कर लेने के बाद फिर यह सब मदारी के खेल जैसा लगता है। हालाँकि यह मदारी के खेल जैसा नहीं है। यह तो आध्यात्मिक, यौगिक सत्य-संकल्प का बल है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यदि योगी प्राणों को सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम कर लें तो वे सूर्य, चन्द्र, ग्रह एवं नक्षत्रों को गेंद की तरह अपनी जगह से खिसकाकर, अपनी इच्छा के अनुसार चला सकते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने 'योगविषयक प्रवचन' में जिस सामर्थ्य की बात कही है वह सत्य है। योगी के स्मरण करने मात्र से देवता भी उनके आगे हाथ जोड़कर खड़े रह जायें ऐसा वे पूर्ण योगी कर सकते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ धैर्य, उत्साह और कुशलता से कर्म करनेवाला अवश्य सफल होता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सत्यनिष्ट से किसी का बुरा नही होता, असत्य से किसी का मंगल नहीँ होता। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ विचार ही जीवन का निर्माता है। जिसने मन को जीता उसने सब कुछ जीता। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सदगुरु वचनोँ मेँ विश्वास दिव्य जीवन का द्वार खोलने की कुंजी है। इसमेँ संदेह नहीँ है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सुख मान भी सपना दुख अपमान भी सपना लेकिन उसको जानने वाला परमेश्वर अपना है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ बाढ़ के समय यात्री यदि तूफानी नदी को बिना नाव के पार कर सके तो साधक भी बिना सदगुरु के अपने जीवन के आखिरी लक्ष्य को सिद्ध कर सकता है। यानी ये दोनों बातें असम्भव हैं। अतः प्यारे साधक ! मनमुखी साधना की जिद्द करना छोड़ दो। गुरुमुखी साधना करने में ही सार है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ब्रह्मनिष्ठ गुरू के चरणकमल में बिनशर्ती आत्मसमर्पण करना ही गुरूभक्तियोग का मुख्य सिद्धान्त है। नम्रतापूर्वक पूज्यश्री सदगुरू के पदारविन्द के पास जाओ। सदगुरू के जीवनदायी चरणों में साष्टांग प्रणाम करो। सदगुरू के चरणकमल की शरण में जाओ। सदगुरू के पावन चरणों की पूजा करो। सदगुरू के पावन चरणों का ध्यान करो। सदगुरू के पावन चरणों में मूल्यवान अर्घ्य अर्पण करो। सदगुरू के यशःकारी चरणों की सेवा में जीवन अर्पण करो। सदगुरू के दैवी चरणों की धूलि बन जाओ। ऐसा गुरूभक्त हठयोगी, लययोगी और राजयोगियों से ज्यादा सरलतापूर्वक एवं सलामत रीति से सत्य स्वरूप का साक्षात्कार करके धन्य हो जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ भय केवल अज्ञान की छाया है, दोषों की काया है, मनुष्य को धर्ममार्ग से गिराने वाली आसुरी माया है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ कहाँ है वह तलवार जो मुझे मार सके ? कहाँ है वह शस्त्र जो मुझे घायल कर सके ? कहाँ है वह विपत्ति जो मेरी प्रसन्नता को बिगाड़ सके ? कहाँ है वह दुख जो मेरे सुख में विघ्न ड़ाल सके ? मेरे सब भय भाग गये। सब संशय कट गये। मेरा विजय-प्राप्ति का दिन आ पहुँचा है। कोई संसारिक तरंग मेरे निश्छल चित्त को आंदोलित नहीं कर सकती। इन तरंगों से मुझे ना कोई लाभ है ना हानि है। मुझे शत्रु से द्वेष नहीं, मित्र से राग नहीं। मुझे मौत का भय नहीं, नाश का ड़र नहीं, जीने की वासना नहीं, सुख की इच्छा नहीं और दुख से द्वेष नहीं क्योंकि यह सब मन में रहता है और मन मिथ्या कल्पना है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सच्ची सेवा तो संत पुरुष ही करते हैं। सच्चे माता-पिता तो वे संत महात्मा गुरु लोग ही होते हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ मैंने विचित्र एवं अटपटे मार्गों द्वारा ऐसे तत्वों की खोज की जो मुझे परमात्मा तक पहुँचा सके। लेकिन मैं जिस-जिस नये मार्ग पर चला उन सब मार्गों से पता चला कि मैं परमात्मा से दूर चला गया। फिर मैंने बुद्धिमत्ता एवं विद्या से परमात्मा की खोज की फिर भी परमात्मा से अलग रहा। ग्रन्थालयों एवं विद्यालयों ने मेरे विचारों में उल्टी गड़बड़ कर दी। मैं थककर बैठ गया। निस्तब्ध हो गया। संयोगवश अपने भीतर ही झांका, ध्यान किया तो उस अन्तर्दृष्टि से मुझे सर्वस्व मिला जिसकी खोज मैं बाहर कर रहा था। मेरा आत्मस्वरूप सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ज्ञानवान के शिष्य के समान और कोई सुखी नहीं हैं और वासना ग्रस्त मनुष्य के समान और कोई दु:खी नहीं हैं। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ वेदान्त का यह अनुभव है कि नीच, नराधम, पिशाच, शत्रु कोई है ही नहीं। पवित्र स्वरूप ही सर्व रूपों में हर समय शोभायमान है। अपने-आपका कोई अनिष्ट नहीं करता। मेरे सिवा और कुछ है ही नहीं तो मेरा अनिष्ट करने वाला कौन है ? मुझे अपने-आपसे भय कैसा ? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ यदि आप सर्वांगपूर्ण जीवन का आनन्द लेना चाहते हो तो कल की चिन्ता छोड़ो। अपने चारों ओर जीवन के बीज बोओ। भविष्य में सुनहरे स्वपन साकार होते देखने की आदत बनाओ। सदा के लिये मन में यह बात पक्की बैठा दो कि आपका आनेवाला कल अत्यन्त प्रकाशमय, आनन्दमय एवं मधुर होगा। कल आप अपने को आज से भी अधिक भाग्यवान् पायेंगे। आपका मन सर्जनात्मक शक्ति से भर जायेगा। जीवन ऐश्वर्यपूर्ण हो जायेगा। आपमें इतनी शक्ति है कि विघ्न आपसे भयभीत होकर भाग खड़े होंगे। ऐसी विचारधारा से निश्चित रूप से कल्याण होगा। आपके संशय मिट जायेंगे। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जैसे सामान्य मनुष्य को पत्थर, गाय, भैंस स्वाभाविक रीति से दृष्टिगोचर होते हैं, वैसे ही ज्ञानी को निजानन्द का स्वाभाविक अनुभव होता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ओ मानव ! तू ही अपनी चेतना से सब वस्तुओं को आकर्षक बना देता है। अपनी प्यार भरी दृष्टि उन पर डालता है, तब तेरी ही चमक उन पर चढ़ जाती है और…फिर तू ही उनके प्यार में फ़ँस जाता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ