योद्धा जातियों को ' दलित ' बनाने का षड्यंत्र


                              गजवा-ए-हिन्द के सदियों पुराने सपने को साकार करने के लिये वृहत्तर भारत पर विभिन्न तकनीकें सैकड़ों वर्षों से प्रयोग में लायी जा रही हैं। उन्हीं में से एक प्रमुख तकनीक हैशत्रु पक्ष में विभाजन। आपको पंचतंत्र की बूढ़े पिता और उसके चार बेटों की कहानी ध्यान होगी। बूढ़ा अपने आपस में झगड़ने वाले बेटों को बुलाकर 10-12 पतली-पतली लकडि़यों के बंधे हुए गट्ठर तोड़ने के लिये देता है। सारे बेटे एक-एक करके असफल हो जाते हैं। फिर वह गट्ठर को खोल कर एक-एक लकड़ी तोड़ने के लिये देता है। देखते ही देखते बेटे हर लकड़ी को तोड़ डालते हैं। बूढ़ा पिता बेटों को समझता है, 'एक लकड़ी को तोड़ना आसान होता है किन्तु बंधी लकडि़यों को तोड़ना असंभव होता है।' तुम सबको साथ रहना चाहिये।
                              यही तकनीक हिन्दुओं की विभिन्न जातियों को इस्लाम के अधीन करने के लिये सदियों से प्रयोग में लायी जा रही है। उत्तर प्रदेश में जाट, त्यागी समाज के कन्वर्टिड लोग मूले जाट, मूले त्यागी कहलाते हैं। इसी तरह से राजस्थान, गुजरात में राजपूत भी मुसलमान बने हैं। अन्य समाज भी कन्वर्ट हुए हैं मगर ये आज भी अपनी जाट, त्यागी, राजपूत पहचान के लिये मुखर हैं और तब्लीगियों की प्रचंड हाय-हत्या के बाद भी अभी तक उसी टेक पर कायम हैं। कन्वर्जन चाहने वाली इन जमातों की कुदृष्टि सदियों से इसी तरह हमारी वंचित, अनुसूचित जातियों पर लगी हुई है। जय भीम और जय मीम तो आज का नारा है। इस कार्य को सदियों से मुल्ला पार्टी जी-जान से चाहती है मगर उसकी दाल गल नहीं पा रही। आइये, इस षड्यंत्र की तह में जाते हैं।
                              सामान्य हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बारे में छान-फटक करें तो बड़े मजेदार तथ्य हाथ आते हैं।  झगड़े चाहे-मस्जिद के आगे से शोभा यात्रा निकलने पर पथराव के कारण, किसी लड़की को छेड़ने, लव जिहाद की परिणति, किन्हीं दो वाहनों की टक्कर, भुट्टो को पाकिस्तान में फांसी, ईराक पर अमरीकी हमला-किसी भी उत्पात से शुरू हों, पहली झपट में हिन्दू समाज की ओर से आवाज उठाने वाले जाट, गूजर, वाल्मीकि इत्यादि जातियों के प्रतिनिधि होते हैं। जाट और गूजर ऐतिहासिक योद्धा जातियां हैं और इनके अनेक राजवंश रहे हैं। गुजरात प्रान्त का तो नाम ही गुर्जर प्रतिहार शासकों के कारण पड़ा है। सेना में आज भी जाट रेजीमेंट हैं अर्थात लड़ना इनके स्वभाव में है। मगर समाज के सबसे खराब समझे जाने वाले कामों को करने वाले पिछड़े, दमित, वंचित लोगों में इतना साहस कहां से आ गया कि वे इस्लामी उद्दंडता का बराबरी से सामना कर सकें? सदियों से पिछड़ी, दबी-कुचली समझी जाने वाली इन जातियों के तो रक्त-मज्जा में ही डर समा जाना चाहिये था। ये कैसे बराबरी का प्रतिकार करने की हिम्मत कर पाती हैं? मगर ये भी तथ्य है कि आगरा, वाराणसी, मुरादाबाद, मेरठ, बिजनौर यानी घनी मुस्लिम जनसंख्या के क्षेत्रों के प्रसिद्ध दंगों में समाज की रक्षा इन्हीं जातियों के भरपूर संघर्ष के कारण हो पाती है।
                              यहां एक बात ध्यान करने की है कि इस विषय का लिखित इतिहास बहुत कम है अत: हमें अंग्रेजी के मुहावरे के अनुसार 'बिटवीन द लाइंस' झांकना, जांचना, पढ़ना होगा। सबसे पहले वाल्मीकि जाति को लेते हैं। ये कई उपवगोंर् में बंटे हुए हैं। इनकी शाखाएं हैं चूहड़, हलालखोर आदि। किस्मों, गोत्रों के नाम बुंदेलिया, यदुवंशी, नादों, भदौरिया, चौहान, किनवार ठाकुर, बैस, गेहलौता, गहलोत, चंदेल, वैस, वैसवार, बीर गूजर या बग्गूजर, कछवाहा, गाजीपुरी राउत, टिपणी, खरिया, किनवार-ठाकुर, दिनापुरी राउत, टांक, हलाल इत्यादि हैं। क्या ये सारे गोत्र भरतवंशी क्षत्रियों के जैसे नहीं लगते हैं? किसी को शक हो तो किसी भी ठाकुर के साथ बात करके तस्दीक की जा सकती है। इन अनुसूचित जातियों में ये नाम इनमें कहां से आ गये? ऐसा क्यों है कि अनुसूचित जातियों की ये किस्में उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश में ही हैं? जो इलाके सीधे मुस्लिम आक्रमणकारियों से सदियों जूझते रहे हैं उन्हीं में ये गोत्र क्यों मिलते हैं? हलालखोर शब्द अरबी है। भारत की किसी जाति का नाम अरबी मूल का कैसे है? क्या अरबी आक्रमणकारियों या अरबी सोच रखने वाले लोगों ने ये जाति बनायी थी? इन्हें 'भंगी' क्यों कहा गया होगा? ये शुद्ध संस्कृत शब्द है और इसका अर्थ 'वह जिसने भंग किया या तोड़ा' होता है। इन्हांेने क्या भंग किया था जिसके कारण ये नाम स्वीकार किया?
                              'चमार' शब्द का उल्लेख प्राचीन भारत के साहित्य में कहीं नहीं मिलता है। मृगया करने वाले भरतवंशियों में भी प्राचीन काल में आखेट के बाद चमड़ा कमाने के लिये व्याध होते थे। ये पेशा इतना बुरा माना जाता था कि प्राचीन काल में व्याधों का नगरों में प्रवेश निषिद्ध था। इस्लामी शासन से पहले के भारत में चमड़े के उत्पादन का एक भी उदाहरण नहीं मिलता है। हिंदू चमड़े के व्यवसाय को बहुत बुरा मानते थे अत: ऐसी किसी जाति का उल्लेख प्राचीन वांग्मय में न होना स्वाभाविक ही है। तो फिर 'चमार' जाति कहां से आई? ये संज्ञा बनी ही कैसे? चर्ममारी राजवंश का उल्लेख महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय वांग्मय में मिलता है। प्रतिष्ठित लेखक डॉ. विजय सोनकर शास्त्री ने इस विषय पर गहन शोध कर चर्ममारी राजवंश के इतिहास पर लिखा है। इसी तरह 'चमार' शब्द से मिलते-जुलते शब्द चंवर वंश के क्षत्रियों के बारे में कर्नल टाड ने अपनी पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास' में लिखा है। चंवर राजवंश का शासन पश्चिमी भारत पर रहा है। इसकी शाखाएं मेवाड़ के प्रतापी सम्राट महाराज बाप्पा रावल के वंश से मिलती हैं। आज जाटव या चमार माने-समझे जाने वाले संत रविदास जी महाराज इसी वंश में हुए हैं जो राणा सांगा और उनकी पत्नी के गुरु थे। संत रविदास जी महाराज लम्बे समय तक चित्तौड़ के दुर्ग में महाराणा सांगा के गुरु के रूप में रहे हैं। संत रविदास जी महाराज के महान, प्रभावी व्यक्तित्व के कारण बड़ी संख्या में लोग इनके शिष्य बने। आज भी इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में रविदासी पाये जाते हैं।
                              उस काल का मुस्लिम सुल्तान सिकंदर लोधी अन्य किसी भी सामान्य मुस्लिम शासक की तरह भारत के हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की उधेड़बुन में लगा रहता था। इन सभी आक्रमणकारियों की दृष्टि गाजी उपाधि पर रहती थी। लोधी ने संत रविदास जी महाराज को मुसलमान बनाने की जुगत में अपने मुल्लाओं को लगाया। जनश्रुति है कि वे मुल्ला संत रविदास जी महाराज से प्रभावित हो कर स्वयं उनके शिष्य बन गए और एक तो रामदास नाम रखकर हिन्दू हो गया। लोधी अपने षड्यंत्र की यह दुर्गति होने पर चिढ़ गया और उसने संत रविदास जी को बंदी बना लिया, उनके अनुयायियों को हिन्दुओं में सदैव से निषिद्ध खाल उतारने, चमड़ा कमाने, जूते बनाने के काम में लगाया। इसी दुष्ट ने चंवर वंश के क्षत्रियों को अपमानित करने के लिये नाम बिगाड़ कर 'चमार' कहकर सम्बोधित किया। 'चमार' शब्द का पहला प्रयोग यहीं से शुरू  हुआ। संत रविदास जी महाराज की ये पंक्तियां लोधी के अत्याचार का वर्णन करती हैं-
वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान
फिर मैं क्यों छोड़ूं इसे पढ़ लूं झूठ कुरान
वेद धर्म छोड़ूं नहीं कोसिस करो हजार
तिल-तिल काटो चाही गोदो अंग कटार
                              चंवर वंश के क्षत्रिय संत रविदास जी के बंदी बनाने का समाचार मिलने पर दिल्ली पर चढ़ दौड़े और दिल्ली की नाकाबंदी कर ली। विवश हो कर सुल्तान लोधी को संत रविदास जी को छोड़ना पड़ा। इस घटना का जिक्र इतिहास की पुस्तकों में नहीं है मगर संत रविदास जी के ग्रन्थ रविदास रामायण की ये पंक्तियां सत्य उद्घाटित करती हैं-
बादशाह ने वचन उचारा ।
मत प्यारा इसलाम हमारा ॥
खंडन करै उसे रविदासा ।
उसे करौ प्राण कौ नाशा ॥
जब तक राम नाम रट लावे ।
दाना पानी यह नहीं पावे ॥
जब इसलाम धर्म स्वीकारे।
मुख से कलमा आप उचारै ॥
पढे नमाज जभी चितलाई ।
दाना पानी तब यह पाई ॥
                              भारतीय वांग्मय में आर्थिक विभाजन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के रूप में मिलता है। मगर प्राचीन काल में इन समाजों में छुआछूत बिल्कुल नहीं थी। कारण सीधा सा था, ये विभाजन आर्थिक था। इसमें लोग अपनी रुचि के अनुसार वर्ण बदल सकते थे। कुछ संदर्भ इस बात के प्रमाण के लिये उपयुक्त रहेंगे। मैं अनुवाद दे रहा हूं। संस्कृत में आवश्यकता होने पर संदर्भ मिलाये जा सकते हैं।
                              मनु स्मृति 10:65-ब्राह्मण शूद्र बन सकता है और शूद्र ब्राह्मण हो सकता है। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपना वर्ण बदल सकते हैं।
                              मनु स्मृति 4:245-ब्राह्मण वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ, अति-श्रेष्ठ व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है।
                              मनु स्मृति 2:168-जो ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है। उसकी आने वाली पीढि़यों को भी वेदों के ज्ञान से वंचित होना पड़ता है।
                              आप देख सकते हैं, ये समाज के चलने के लिए काम बांटने और उसके अनुरूप विभाजन की बात है और इसमें जन्मना कुछ नहीं है। एक वर्ण से दूसरे वर्ण में जाना संभव था। महर्षि विश्वामित्र का जगत-प्रसिद्ध उदाहरण क्षत्रिय से ब्राह्मण बनने का है। सत्यकेतु, जाबालि ऋषि, सम्राट नहुष के उदाहरण वर्ण बदलने के हैं। एक गणिका के पुत्र  जाबालि, जिनकी मां वृत्ति करती थीं, जिसके कारण उन्हें अपने पिता का नाम पता नहीं था, ऋषि कहलाये। तब ब्राह्मण भी आज की तरह केवल शिक्षा देने-लेने, यज्ञ करने-कराने, दान लेने-देने तक सीमित नहीं थे। वेदों में रथ बनाने वाले को, लकड़ी का काम करने वाले बढ़ई को, मिट्टी का काम करने वाले कुम्हार को ऋषि की संज्ञा दी गयी है। सभी वे काम जिनमें नया कुछ खोजा गया ऋषि के काम थे।
                              यहां एक वैदिक ऋषि की चर्चा करना उपयुक्त होगा। वेद सृष्टि के उषा काल के ग्रन्थ हैं। भोले-भाले, सीधे-साधे लोग जो देखते हैं उसे छंदबद्ध करते हैं। ऋषि कवष ऐलूष ने वेद में अक्ष-सूक्त जोड़ा है। अक्ष जुआ खेलने के पासे को कहते हैं। इस सूक्त में ऋषि कवष ऐलूष ने अपनी आत्मकथा और जुए से जुड़े सामाजिक आख्यान, उपेक्षा, बदनामी की बात करुणापूर्ण स्वर में लिखी है। कवष इलूष के पुत्र थे जो शूद्र थे। ऐतरेय ब्राह्मण बताता है कि सरस्वती नदी के तट पर ऋषि यज्ञ कर रहे थे कि शूद्र कवष ऐलूष वहां पहुंचे। यज्ञ में सामाजिक रूप से प्रताडि़त जुआरी के भाग लेने के लिये ऋषियों ने कवष ऐलूष को अपमानित कर निष्कासित कर दिया और उन्हें ऐसी भूमि पर छोड़ा गया जो जलविहीन थी। कवष ऐलूष ने उस जलविहीन क्षेत्र में देवताओं की स्तुति में सूक्त की रचना की और कहते हैं, सरस्वती नदी अपना स्वाभाविक मार्ग बदलकर शूद्र कवष ऐलूष के पास आ गयीं। सरस्वती की धारा ने कवष ऐलूष की परिक्रमा की, उन्हें घेर लिया। यज्ञकर्ता ऋषि दौड़े-दौड़े आये और शूद्र कवष ऐलूष की अभ्यर्थना की। उन्हें ऋषि कह कर पुकारा। उनके ये सूक्त ऋग्वेद के दसवें मंडल में मिलते हैं।
                              इस घटना से ही पता चलता है कि शूद्र का ब्राह्मण वर्ण में आना सामान्य घटना ही थी। ध्यान रहे कि वर्ण और जातियों में अंतर है। वणोंर् में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था और इसे उन्नति या अवनति नहीं समझा जाता था। ये केवल स्वभाव के अनुसार आर्थिक विभाजन था। भारत में वर्ण जन्म से नहीं थे और इनमें व्यक्ति की इच्छा के अनुसार बदलाव होता था। कई बार ये पेशे थे और इन पेशों के कारण ही मूलत: जातियां बनीं। कई बार ये घुमंतू कबीले थे, उनसे भी कई जातियों की पहचान बनी। वर्ण-व्यवस्था समाज को चलाने की एक व्यवस्था थी मगर वह व्यवस्था हजारों साल पहले ही समाप्त हो गयी। वणोंर् में एक-दूसरे में आना-जाना चलता था, ये भी सच है कि कालांतर में ये आवागमन बंद हो गया।
                              उसका कारण भारत पर लगातार आक्रमण और उससे बचने लिये समाज का अपने में सिमट जाना था। समाज ने इस आक्रमण और जबरदस्ती किये जाने वाले कन्वर्जन से बचाव के लिये अपनी जकड़बन्दियों की व्यवस्था बना ली। अपनी जाति से बाहर जाने की बात सोचना पाप बना दिया गया। रोटी-बेटी का व्यवहार बंद करना ऐसी ही व्यवस्था थी। इन जकड़बन्दियों का खराब परिणाम यह हुआ कि सारी जातियों के लोग स्वयं में सिमट गए और अपने अतिरिक्त सभी को स्वयं से हल्का, कम मानने लगे। वह दूरी जो एक वैश्य समाज जाटव वर्ग से रखता था वही जाटव समाज भी वाल्मीकि समाज से बरतने लगा। चाहें तो पड़ताल कर लें, 5 उदाहरण भी भारत भर में जाटव लड़की के वाल्मीकि लड़के से विवाह के नहीं मिलेंगे। अब महानगरों में समाज बदल गया है और अंतरजातीय विवाह समय की बात हो गयी है, मगर आज से 30 वर्ष पूर्व ऐसी घटना लगभग असंभव थी। आज बदलते समाज में शायद ये कुछ न दिखाई दे मगर आज से सौ साल पहले पंचों द्वारा व्यक्ति या परिवार से समाज का रोटी-बेटी का, हुक्का-पानी का व्यवहार बंद करना उसका जीवन असंभव बना देता था। इसका अर्थ अंतिम संस्कार के लिये चार कंधे भी न मिलना होता था। इसका लक्ष्य अपने लोगों का कन्वर्जन न होने देना था। ये बंधन इतने कठोर थे कि अकबर के मंत्री बीरबल, टोडरमल तक उसका सारा जोर लगा देने के बाद भी उसके चलाये पंथ 'दीने-इलाही' और उ प्राचीन भारत में शौचालय घर के अंदर नहीं होते थे। लोग इसके लिये घर से दूर जाते थे। समाज के लोगों में ये भाव कभी था ही नहीं कि उनका अकेले-दुकेले बाहर निकलना जीवन को संकट में डाल सकता है। मगर ये विदेशी आक्रमणकारी हर समय आशंकित रहते थे। उन्हें स्थानीय समाज से ही नहीं अपने साथियों से प्राणघाती आक्रमण की आशंका सताती थी। इसलिए उन्होंने किलों में सुरक्षित शौचालय बनवाये और मल-मूत्र त्यागने के बाद उन पात्रों को उठाने के लिये पराजित स्थानीय लोगों को लगाया। भारत में इस घृणित पेशे की शुरुआत यहीं से हुई है। इन विदेशी आक्रमणकारियों में इसके कारण अपनी उच्चता का आभास भी होता था और ऐसा घोर निंदनीय कृत्य उन्हें अपने पराजित को पूर्णरूपेण ध्वस्त हो जाने की आश्वस्ति देता था।
                              इन आक्रमणकारियों ने पराजित समाज के योद्धाओं को मार डाला और उनके बचे परिवारों को इस्लाम स्वीकारने या घृणित कायोंर् को करने का विकल्प दिया। जो लोग डर कर, दबाव सहन न कर पाने के कारण मुसलमान बन गए, उन्हीं के वंशज आज के मुसलमान हैं। जो लोग मुसलमान नहीं बने, उन्होंने अपने प्राणों से प्रिय शिखा-सूत्र काट दिये और अपने धर्म को न छोड़ने के कारण 'भंगी'-'चमार' संज्ञा स्वीकार की। यहां यह बात आवश्यक रूप से ध्यान रखने की है कि इन प्रतिष्ठित योद्धा जातियों के लोगों ने पराजित हो कर भी धर्म नहीं छोड़ा। इस्लाम के भयानक अत्याचार सहे, आत्मा तक को तोड़ देने वाला सिर पर मल-मूत्र ढोने का अत्याचार सहा, पशुओं की खाल उतारने  कार्य किया, चमड़ा कमाने-जूते बनाने का कार्य किया, मगर मुसलमान नहीं हुए। ये जाटव, वाल्मीकि समाज के लोग हमारे उन महान वीर पूर्वजों की संतानें हैं। आज भी इन योद्धा जातियों के वंशजों के बड़े हिस्से में अपने नाम के साथ सिंह लगाने की परम्परा है। अपने सिर पर मल-मूत्र ढोने वाले, जूते बनाने वाले कहीं सिंह होते हैं? ये वस्तुत: सिंह ही हैं जिन्हें गीदड़ बनने पर विवश करने के लिये इस तरह अपमानित किया गया। बाबासाहब अम्बेडकर ने भी अपने लेखों में लिखा है कि हम योद्धा जातियों के लोग हैं। यही कारण है कि 1921 की जनगणना के समय 'चमार' जाति के नेताओं ने वायसराय को प्रतिवेदन दिया था कि हमें राजपूतों में गिना जाये। हम राजपूत हैं। अंग्रेज अधिकारियों ने ही ये नहीं माना बल्कि हिन्दू समाज भी इस बात को काल के प्रवाह में भूल गया और स्वयं भी इन महान योद्धाओं की संतानों से वही घृणित दूरी रखने लगा जो आक्रमणकारी रखते थे। होना यह चाहिए था कि वह इनकी स्तुति करता, नमन करता, इनको गले लगता मगर शेष समाज स्वयं आक्रमणकारियों के वैचारिक फंदे में फंस गया।
                              भारत में विदेशी मूल के मुसलमान सैयद, पठान, तुर्क आज भी स्थानीय कन्वर्टिड को नीची निगाह से देखते हैं। स्वयं को अशराफ (शरीफ का बहुवचन) और उनको 'रजील', 'कमीन', 'कमजात', 'हकीर' कहते हैं। रिश्ता-नाता तो बहुत दूर की बात है, ऐसी भनक भी लग जाये तो मार-काट हो जाती है, मगर सामने इस्लामी एकता का ड्रामा किया जाता है। ये समाज अपने ही मजहब के लोगों के लिए कैसी हीनभावना रखता है इसका अनुमान इन सामान्य व्यवहार होने वाली पंक्तियों से लगाया जा सकता है-
गलत को ते से लिख मारा
जुलाहा फिर जुलाहा है
तरक्की खाक अब उर्दू करेगी
जुलाहे शायरी करने लगे हैं
                              अपने मजहब के लोगों के लिए घटिया सोच रखने वाला समूह इन वंचित भाइयों का कन्वर्जन करने  के लिये गिद्ध जैसी नजरें गड़ाए हुए रहता है। वह हिंदू समाज के इन योद्धा-वर्ग के वंशजों को अब भी अपने पाले में लाना चाहता है। वंचित समाज के राजनेताओं ने भी इस शिकंजे में फंस जाने को अपने हित का काम समझ लिया है। ऐसे राजनेता जिनका काम ही समाज के छोटे-छोटे खंड बांटकर अपनी दुकान चलाना है, इस दूरी को बढ़ाने में लगे रहते हैं। जिस समाज के लोगों ने सब कुछ सहा मगर राम-कृष्ण, शंकर-पार्वती, भगवती दुर्गा को नहीं त्यागा, अब उन्हीं के बीच के राजनैतिक लोग अपने हित के लिए समाज के टुकड़े-टुकड़े करने का प्रयास कर रहे हैं। लक्ष्य वही गजवा-ए-हिन्द है और तकनीक शेर को छोटे-छोटे हजार घाव देने की है, जिससे धीरे-धीरे खून बहने से शेर की मौत हो जाय।