जप-तप करके, भगवन्नाम संकीर्तन से सत्त्वगुण बढ़ाओ। स्वधर्मपालन करने में जो कष्ट सहना पड़े वह सहो। तुम जहाँ जो कर्त्तव्य में लगे हो, वहाँ उसी में बढ़िया काम करो। नौकर हो तो अपनी नौकरी का कर्त्तव्य ठीक से बजाओ। दूसरे लोग आलस्य में या गपशप में समय बरबाद करते हों तो वे जानें लेकिन तुम अपना काम ईमानदारी से उत्साहपूर्वक करो। स्वधर्मपालन करो। महिला हो तो घर को ठीक साफ सुथरा रखो, स्वर्ग जैसा बनाओ। आश्रम के शिष्य हो तो आश्रम को ऐसा सुहावना बनाओ कि आने वालों का चित्त प्रसन्न हो जाय, जल्दी से भगवान के ध्यान-भजन में लग जाय। तुम्हें पुण्य होगा। अपना स्वधर्म पालने मे कष्ट तो सहना ही पड़ेगा। सर्दी-गर्मी,भूख-प्यास,मान-अपमान सहना पड़ेगा। अरे, चार पैसे कमाने के लिए रातपालीवालों को सहना पड़ता हैता है, दिनपालीवालों को सहना पड़ता है तो 'ईश्वरपाली' करने वाला थोड़ा सा सह ले तो क्या घाटा है भैया? .....तो स्वधर्मपालन के लिए कष्ट सहें। शरीर तथा इन्द्रियों के सहित अंतःकरण की सरलता रखें। चित्त में क्रूरता और कुटिलता नहीं रखें। जब-जब ध्यान-भजन में या ऐसे ही बैठें तब सीधे, टट्टार बैठें। झुककर या ऐसे-वैसे बैठने से जीवन-शक्ति का ह्रास होता है। जब बैठें तब हाथ परस्पर मिले हुए हों, पालथी बँधी हुई हो। इससे जीवन-शक्ति का अपव्यय होना रुक जायगा। सूक्ष्म शक्ति की रक्षा होगी। तन तन्दुरुस्त रहेगा। मन प्रसन्न रहेगा। सत्त्वगुण में स्थिति करने में सहाय मिलेगी। स्वधर्मपालन में कष्ट सहने पड़े तो हँसते-हँसते सह लो यह दैवी सम्पदावान पुरुष के लक्षण हैं। ऐसे पुरुष की बुद्धि ब्रह्मसुख में स्थित होने लगती है। जिसकी बुद्धि ब्रह्मसुख में स्थित होने लगती है उसके आगे संसार का सुख पाले हुए कुत्ते की तरह हाजिर हो जाता है। उसकी मौज पड़े तो जरा सा उपयोग कर लेता है, नहीं तो उससे मुँह मोड़ लेता है। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ चलते-चलते पैर में काँटा घुस गया। रात को वह पीड़ा दे रहा है। अब सोचते हैं कि पैर की पीड़ा कैसे दूर हो। काँटा निकालने से ही दुःख दूर होगा, अधिक भीतर चुभाने से नहीं। इसी प्रकार किसी से टक्कर हो गयी, द्वेष हो गया और उसको ठीक करने का सोचते हो तो लगा हुआ काँटा और गहरा चुभा रहे हो। आप उसका बुरा सोच रहे हो, और वह आपका बुरा सोच रहा है, तो दोनों के चित्त ज्यादा अशुद्ध होंगे। दोनों को खट्टे फल खाने पड़ेंगे। आप उसका कल्याण सोचना शुरु कर दो तो आपके हृदय से शूल निकल जायेगा। आप अपने शत्रु का कल्याण सोच रहे हो, और वह आपका अकल्याण सोच रहा है, तो वह सफल नहीं होगा। आवेश में आकर वह आपका अहित कर बैठे लेकिन आपके हृदय में उसके प्रति हित की भावना बनी रहेगी तो उसका हृदय परिवर्तन हो जायेगा। हृदय परिवर्तन नहीं होगा तो उसके पुण्य खतरे में पड़ जायेंगे। फिर प्रकृति उसे ठीक बोधपाठ सिखा देगी। यह बिल्कुल सच्ची बात है। कोई आपके लिए बुरा सोच रहा है, और आप उसका बुरा नहीं सोचते हो तो आपके चित्त में जो खुदना था वह बन्द हो गया, पटरियाँ बनना बन्द हो गया तो उसकी द्वेष की गाड़ी आपके चित्त में चलेगी नहीं। सामने वाला कैसा भी व्यवहार करे लेकिन आपके चित्त में उसकी स्वीकृति नहीं है, आप लेते ही नहीं उसके द्वेष की बात को, तो उसका द्वेष आगे चलेगा नहीं। आपने पटरियाँ बनायी ही नहीं उसके द्वेष की गाड़ी चलने के लिए। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ जिस प्यारे परमात्मा ने हमें मानवदेह दिया, सदबुद्धि दो, श्रद्धा दी, सत्संग में जाने की प्रेरणा दी उस परम सुहृद परमात्मा को हम प्यार करते हैं। उस प्रभु की कृपा से हमारी पाशवी वृत्तियाँ बदलकर आत्माभिमुख हो रही हैं। स्नेह के सागर उस परमात्मा को प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु ! हमारी वृत्तियाँ उत्तरोत्तर आपके अभिमुख होती रहें और एक दिन ऐसा आ जाय कि उन सब वृत्तियों से पार होकर वृत्तियों के आधारस्वरूप आप परमात्मा में हमारा अहं विलय हो जाय। आपकी परम चेतना में, परम शांति में, परम प्यार में, परम सामर्थ्य में, आपके परम सुन्दर स्वरूप में हमारे मन की वृत्तियाँ शान्त हो जायें। हमारे चित्त की चेतना जिस सत्ता से आती है उस परम सत्ता में हम जल्दी से जल्दी विश्रान्ति पायें। हम प्रतिदिन मौत की तरफ सरक रहे हैं। हे जीवनदाता प्रभु ! हे अमर आत्मदेव ! हे परमात्म देव ! हे गुरूदेव ! हम मौत के पहले अमरता का, अपने असली स्वरूप का साक्षात्कार कर लें। अपने आपको जान लें। अन्यथा जगत का सब जाना हुआ अनजाना हो जायगा, जगत का पाया हुआ सब पराया हो जायगा। ऐसी घड़ियाँ आयेगी कि हम अपने घर में ही पराये हो जायेंगे। अपने परिवार ही पराये हो जायेंगे।, अपने रिश्ते-नातों में ही पराये हो जायेंगे। लोग हमें श्मशान में ले जायेंगे। चिता की भभकती आग इस शरीर को जलायेगी। शरीर को अग्नि जलाये उसके पहले हे प्रभु ! तुम्हारी ज्ञानाग्नि से हमारी ममताएँ और आसक्तियाँ जल जायें। हे गुरूदेव ! आपके उपदेश के प्रभाव से हमारा अहं बाधित हो जाय। लोग हमें श्मशान में छोड़ जायें उसके पहले हम तुम तक पहुँच जायें। हे प्रभु ! तुम दया करना। अपने घर में हम पराये हो जायें उससे पहले हम तेरे घर पहुँच जायें, तेरे द्वार पहुँच जायें। हे देवेश ! हे जगदीश ! असतो मा सदगमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्माऽमृतं गमय। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ देह की ममता के कारण तुम जन्म मरण के चक्कर में फँसे हो। यह ममता तुम्हें तोड़नी पड़ेगी। चाहे आज तोड़ो चाहे एक जन्म के बाद तोड़ो, चाहे एक हजार जन्मो के बाद तोड़ो। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ निष्काम कर्म करनेवाले व्यक्तियों के कर्म भगवान या संत स्वीकार कर लेते हैं तो उसके बदले में उसके कुल को भक्ति मिलती है। जिसके कुल को भक्ति मिलती है उसकी बराबरी धनवान भी नहीं कर सकता। सत्तावाला भला उसकी क्या बराबरी करेगा? ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सुख में फूलो मत, दुःख में निराश न हो दोनों बीत जायेंगे। इस सूत्र को सदैव याद रखें, इससे मन शांत रहेगा व राग-द्वेष कम होता जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ शरीर एवं संसार की वस्तुओं को सदा सँभाले रखना असंभव है, अतः उसमें से प्रीति हटा लो। मित्रों को, कुटुम्बियों को, गहने-गाँठों को साथ ले जाना असंभव है, अतः उसमें से आसक्ति हटा लो। संसार को अपने कहने में चलाना असंभव है, लेकिन मन को अपने कहने में चलाना संभव है। संसार को बदलना असंभव है, लेकिन अपने विचारों को बदलना संभव है। कभी दुःख न आये ऐसा बनना असंभव है, लेकिन सुख चले जाने पर भी दुःख की चोट न लगे, ऐसा चित्त बनाना संभव है। अतः जो संभव है उसे कर लेना चाहिए, और जो असंभव है उससे टक्कर लेने की आवश्यकता क्या है? बाहर के मित्र को सदा साथ रखना संभव नहीं है, लेकिन अंदर के मित्र (परमात्मा) का सदा स्मरण करना एवं उसे पहचानना संभव है। बाहर के पति-पत्नी, परिवार, शरीर को साथ ले जाना संभव नहीं है, लेकिन मृत्यु के बाद भी जिस साथी का साथ नहीं छूटता, उस साथी के साथ का ज्ञान हो जाना, उस साथी से प्रीति हो जाना – यह संभव है।सुख में फूलो मत, दुःख में निराश न हो दोनों बीत जायेंगे। इस सूत्र को सदैव याद रखें, इससे मन शांत रहेगा व राग-द्वेष कम होता जायेगा। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ