बात ज्यादा पुरानी नहीं है। शायद दिसंबर २०११ की सर्दियाँ। माँ गंगा के किनारे ब्रह्मपुरी आश्रम, ऋषिकेश, उत्तराखंड में पूज्य बापूजी एकांत में पधारे थे। भक्तों द्वारा बार बार प्रार्थना किये जाने पर दिन में एक समय सत्संग के लिये निर्धारित किया गया। ब्रह्मपुरी आश्रम छोटा व सत्संग हॉल ना होने के कारण बाहर खुले में पेड़ों के नीचे ही सत्संग होता था। हिमालय के ऊँचे ऊँचे पहाड़, सामने बहती गंगा नदी, पेड़ों के नीचे भक्तों का समूह बहुत ही मनमोहक वातावरण होता था।
                        एक दिन पूज्य बापूजी कुर्सी पर विराजमान थे उनके सामने एक मेज रखी थी। बहुत सारे बंदर और लंगूर पेड़ों पर बैठे थे। बापूजी ने उनके लिये मक्का उबालने को कहा और सत्संग शुरू हो गया। सत्संग पूरा होने पर पूज्य गुरुदेव ने कूकर मंगवाया और अपने हाथों से बंदरों और लंगूरों को खिलाने लगे और भक्तों को बताने लगे कि यहाँ के बंदर बहुत भूखे होते हैं इन्हें यहाँ पहाड़ों में खाने को नहीं मिलता। तभी एक माताजी जो प्रसाद के लिये किलो मूँगफली लाई हुई थीं, उठी और बापूजी के मेज पर ले जाकर मूँगफली की थैली रख दी। चारों तरफ बंदर थे। बापूजी ने सेवक जोकि पीछे ही खड़ा था, को थैली उठाने के लिये कहा। बापूजी बोले, “ बंदर थैली फाड़ देंगे मूँगफली बिखर जायेगी।मगर सेवक ने थैली नहीं उठाई। गुरुदेव ने दो तीन बार सेवक से कहा परंतु उसने थैली नहीं उठाई। भक्त यह नज़ारा देख रहे थे। तभी दो - तीन बंदर थैली की तरफ झपटे और उन्होने जैसे ही थैली फाड़ने की कोशिश की पूज्य गुरुदेव आगे को होकर पूरी तरह थैली पर झुक गये व दोनों बाजुओं से उसे ढक दिया। बंदरों से तो उन्होने मूँगफली बचा ली पर थैली फटने के कारण मूँगफली मेज व जमीन पर बिखर गयी। बापूजी ने भक्तों को मूँगफली का एक-एक दाना उठाने का आदेश दिया।
                          तभी मेरे मन में एक प्रश्न आया इतने बड़े लोक संत, आत्मरस में डूबे रहने वाले, लोक संपर्क में आने के लिये जिनको कितनी मुश्किल से मन को मनाना पड़ता है, जो स्वयं अभी अपने हाथों से बंदरों को मक्का खिला रहे थे, चार पाँच सौ रुपये की मूँगफली बचाने के लिये खुद उस पर झुक गये और दोनों बाजुओं से उसे ढक दिया। आखिर क्यों? मेरे मन की बात तुरंत अंतर्यामी, करुणानिधान गुरुदेव जान गये और बोले, “ धर्म का एक एक पैसा लोहे के चने चबाने के समान होता है जो उसका दुरुपयोग करता है उसकी सात - सात पीढ़ियाँ बर्बाद हो जाती हैं। यह मूँगफली भक्तों में प्रसाद रूप में बंटने के उद्देश्य से आयी थी। बंदरों को उनका भोजन पहले ही मिल चुका था। हाँ, हम अपने हाथ से उन्हें देते तो ठीक था परंतु झपट्टा मारकर अगर वो इसे ले जाते या बिखेर देते तो मूँगफली के दुरुपयोग का दोष पड़ता अत: इसकी रक्षा जरूरी थी।बात बहुत सूक्ष्म थी पता नहीं कितने लोगों को समझ आयी मगर मुझे याद आया गुरुदेव का सत्संग में बार - बार यह कहना कि धर्म के पैसे को बहुत सोच - समझ कर उचित जगह पर ही प्रयोग करना चाहिये। कभी भी इस पैसे का दुरुपयोग नहीं होना चाहिये। शास्त्र भी यही कहते हैं - ज्यों केले के पात में पात पात में पात, त्यों संतन की बात में बात - बात में बात।

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