दीक्षित और शिक्षित

                           एक दीक्षित होता है और एक शिक्षित होता है। गुरु के बगैर दुनिया में कोई'दीक्षित नहीं हो सकता। जिसने केवल शिक्षा का ही दामन पकड़ा हो वह होटलों, सिनेमाओं की रौनक बढ़ाता है। शिक्षित होना और बात है, दीक्षित होना और बात है। उपनिषद कह रहे हैं- त्यागपूर्वक भोगों को भोग। ये तेरे लिये हैं, तू इनके लिए नहीं है!'यह शिक्षित होकर नहीं दीक्षित होकर पता चलता है। शिक्षा एक शक्ति है पर यदि इसके साथ दीक्षा न हो तो यह बड़ा अनर्थ भी करती है। शिक्षा को दीक्षा नियंत्रित करती है। शिक्षित को इंद्रियाँ घेर लेती हैं, उसका दिल दिमाग नियंत्रण से बाहर हो जाता है। शिक्षित होकर दीक्षित हो तो लैम्प के अंदर बत्ती जल उठती है, जो कइयों का अन्धकार नष्ट करके सही मार्ग दर्शाती, सुखी और प्रसन्न करती है। जब शिक्षित को गुरू'अहं ब्रह्मास्मि'की टंकार देते हैं तो वह मरने से नहीं डरता, हकीकत समझकर जीता है। गुरु दीक्षा की टार्च हाथ में पकड़ाकर रास्ते के काँटे दिखा देते हैं। गुरु परमेश्वर का साकार विग्रह होते हैं। गुरु की मूर्त मन में ध्यान, गुरु के शब्द मंत्र ले मान। गुरुमंत्र सोयी हुई चेतना को जागृत करता है। जो अंतर में ले जाय और तर कर दे, वह मन तर अर्थात् मंत्र। गुरु मन्त्र से मोक्ष का द्वार खुल जाता है। देहाध्यास से ऊपर उठने के लिए गुरु के पास ही छोटा रास्ता है। उन्हीं एक गुरुदेव के ध्यान से सबका ध्यान हो जाता है। उन्हीं एक की पूजा से संपूर्ण पूजा हो जाती है। इसलिए हृदयरूपी जमीन पर मंत्ररूपी बीज डालकर श्रद्धा का पानी डालो, इससे ज्ञानरूपी वृक्ष फलेगा-फूलेगा जिसकी छाया में अनंत शांति है, अनंत प्रकाश है और उस वृक्ष को आत्मानंदरूपी अमर फल लग जायेगा। गुरु-शिष्य के हृदय की छाप का फोटो नहीं खींचा जा सकता। बेताबी (परमात्म-प्राप्ति की तड़प) से जलते हुए हृदय के साथ गुरु का शब्द जब टकराता है, तब वृत्ति में आत्मा का आविष्कार हो जाता है, शिष्य वास्तविक जिन्दगी पा जाता है। एक डॉक्टर जब बीमार की बीमारी छीनकर उसे स्वास्थ्य प्रदान करता है, इसे डॉक्टर ने कहो, यह मेरा खुदा है, जिसने जीवन दिया है।'तो आप ही सोचो, जिन्होंने असली प्राण फूँककर जीवन प्रदान किया हो उन्हें क्या कहेंगे?वे खुदा ही हैं, जो खुद दिल के मंदिर में आ गये हैं। बुझे हुए (भगवत्सम्बन्ध से रहित) दिल में जब गुरु परिपूर्ण परमेश्वर के ज्ञान की, आत्मज्ञान की धारा पहुँचाते हैं तो वह बुझा हुआ दिल जगमगा उठता है, जैसे पावर हाउस से कनेक्शन जुड़ने पर बल्ब रोशनी से जगमगा उठता है। गुरु कहते हैं- तत्त्वमसि। शिष्य पुकार उठता हैः अहं ब्रह्मास्मि। जब तक विवेक का दीपक नहीं जलता, तब तक सत्-असत् का विवेचन नहीं होता । गुरु अभ्यास को तोड़कर विवेक का दीपक हाथ पर रखते हैं कि चाहे जहाँ भी जा अंधकार नहीं रहेगा, क्योंकि मै और मेरा अलग-अलग करके दिखा दिया।