सबसे बढ़िया साधन कौन-सा ?

एक बार श्री अखंडानंदजी सरस्वती कोलकाता में रुके थे । वृंदावन से उनकी एक शिष्या का पत्र आया । उसमें उन्होंने प्रश्न किया था कि ‘मुझे किसीने ‘विवेक चूडामणि पुस्तक दी है । मैंने उसके कुछ पृष्ठ पढे, बहुत अच्छा लगा । महाराजश्री ! क्या मैं वह ग्रंथ पढ सकती हूँ ?
अखंडानंदजी का उत्तर था, ‘तुमको ‘विवेक चूडामणि पढने की कतई आवश्यकता नहीं है । जो साधन-भजन हमने तुमको बताया है वह करो ।
एक बार अखंडानंदजी के एक शिष्य ने पुस्तकालय में एक उच्च कोटि के आध्यात्मिक ग्रंथ के प्रथम पृष्ठ पर कलम से लिखा एक वाक्य देखा : ‘यह ग्रंथ तुम्हारे लिए नहीं है । उनको आश्चर्य हुआ कि इतना ऊँचा ग्रंथ और पढने के लिए मना किया ! किसके लिए ऐसा लिखा होगा ? क्यों लिखा होगा ? पुस्तकालय में तो सब साहित्य पढने के लिए ही होता है और सब लोग पढने के लिए आते हैं ! बाद में उन माताजी ने, जिनका वह ग्रंथ था, बताया कि ग्रंथ-लोकार्पण के पश्चात् स्वामीजी लोगों को प्रसादरूप में ग्रंथ दे रहे थे तो उन्होंने भी लेना चाहा, तब स्वामीजी ने उपरोक्त टिप्पणी लिखकर ग्रंथ उन्हें दे दिया था । अब गुरुजी ने मना किया हो तो फिर शिष्य उस ग्रंथ को कैसे पढ सकता है अतः उसे उन्होंने पुस्तकालय को भेंट कर दिया था ।
जो लोग गुरुनिर्दिष्ट शास्त्र, सत्साहित्य ही पढते हैं, वे तो साधना के, ईश्वरप्राप्ति के रास्ते और आगे बढते हैं किंतु जो अपने मन से जो अच्छा लगे वह पढने लग जाते हैं वे भटक जाते हैं ।
भवरोगरूपी महाव्याधि है और सद्गुरुरूपी उसके सुजान वैद्य हैं । यदि सामान्य भी व्याधि मिटानी हो तो वैद्य के निर्देशानुसार ही दवा-पानी और पथ्य-पालन करना पडता है तो इस महाव्याधि का उपचार क्या हम स्वयं ही मनपसंद औषधियाँ खाकर कर लेंगे ? इसीलिए कहा गया है :
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।(मुंडकोपनिषद् : १.२.१२)