कल्याणमय शिव के पूजन की रात्रि : महाशिवरात्रि।

                                  फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी अर्थात् महाशिवरात्रि पृथ्वी पर शिवलिंग के प्राकट्य का दिवस है और प्राकृतिक नियम के अनुसार जीव-शिव के एकत्व में मदद करनेवाले ग्रह-नक्षत्रों के योग का दिवस है । इस दिन रात्रि-जागरण कर ईश्वर की आराधना-उपासना की जाती है ।
                                   ‘शिव से तात्पर्य है कल्याणङ्क अर्थात् यह रात्रि बडी कल्याणकारी रात्रि है । इस रात्रि में जागरण करते हुए ॐ... नमः... शिवाय... इस प्रकार प्लुत जप करें, मशीन की नार्इं जप, पूजा न करें, जप में जल्दबाजी न हो । बीच-बीच में आत्मविश्रांति मिलती जाय । इसका बडा हितकारी प्रभाव, अद्भुत लाभ होता है । साथ ही अनुकूल की चाह न करना और विपरीत परिस्थिति से भागना-घबराना नहीं । यह परम पद में प्रतिष्ठित होने का सुंदर तरीका है । महाशिवरात्रि को भक्तिभावपूर्वक रात्रि-जागरण करना चाहिए । जागरण का मतलब है जागना । जागना अर्थात् अनुकूलता-प्रतिकूलता में न बहना, बदलनेवाले शरीर-संसार में रहते हुए अबदल आत्मशिव में जागना । मनुष्य-जन्म कहीं विषय-विकारों में बर्बाद न हो जाय बल्कि अपने लक्ष्य परमात्म-तत्त्व को पाने में ही लगे- इस प्रकार की विवेक-बुद्धि से अगर आप जागते हो तो वह शिवरात्रि का जागरण हो जाता है । इस जागरण से आपके कई जन्मों के पाप-ताप, वासनाएँ क्षीण होने लगती हैं तथा बुद्धि शुद्ध होने लगती है एवं जीव शिवत्व में जागने के पथ पर अग्रसर होने लगता है ।
                                  महाशिवरात्रि का पर्व अपने अहं को मिटाकर लोकेश्वर से मिलने के लिए है । आत्मकल्याण के लिए पांडवों ने भी शिवरात्रि महोत्सव का आयोजन किया था, जिसमें सम्मिलित होने के लिए भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका से हस्तिनापुर आये थे । जिन्हें संसार से सुख-वैभव लेने की इच्छा होती है वे भी शिवजी की आराधना करते हैं और जिन्हें सद्गति प्राप्त करनी होती है अथवा आत्मकल्याण में रुचि है वे भी शिवजी की आराधना करते हैं ।
                                  जल, पंचामृत, फल-फूल एवं बिल्वपत्र से शिवजी का पूजन करते हैं । बिल्वपत्र में तीन पत्ते होते हैं जो सत्त्व, रज एवं तमोगुण के प्रतीक हैं । हम अपने ये तीनों गुण शिवार्पण करके गुणों से पार हो जायें, यही इसका हेतु है । पंचामृत-पूजा क्या है ? पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश- इन पंचमहाभूतों का ही सारा भौतिक विलास है । इन पंचमहाभूतों का भौतिक विलास जिस चैतन्य की सत्ता से हो रहा है उस चैतन्यस्वरूप शिव में अपने अहं को अर्पित कर देना, यही पंचामृत-पूजा है । धूप और दीप द्वारा पूजा से क्या तात्पर्य है ? ‘शिवोऽहम्, आनन्दोऽहम (मैं शिवस्वरूप हूँ, आनन्दस्वरूप हूँ) इस भाव में तल्लीन होकर अपने शिवस्वरूप, आनन्दस्वरूप की सुवास से वातावरण को महकाना ही धूप करना है और आत्मज्ञान के प्रकाश में जीने का संकल्प करना दीप प्रकटाना है ।
                                  चाहे जंगल या मरुभूमि में क्यों न हो, रेती या मिट्टी के शिवजी बना लिये, उस पर पानी के छींटे मार दिये, जंगली फूल तोडकर धर दिये और मुँह से ही नाद बजा दिया तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं एवं भावना शुद्ध होने लगती है, आशुतोष जो ठहरे ! जंगली फूल भी शुद्ध भाव से तोडकर शिवलिंग पर चढाओगे तो शिवजी प्रसन्न हो जाते हैं और यही फूल कामदेव ने शिवजी को मारे तो शिवजी नाराज हो गये । क्यों ? क्योंकि फूल मारने के पीछे कामदेव का भाव शुद्ध नहीं था, इसीलिए शिवजी ने तीसरा नेत्र खोलकर उसे भस्म कर दिया । शिवपूजा में वस्तु का मूल्य नहीं, भाव का मूल्य है । भावे हि विद्यते देवः ।
                                  आराधना का एक तरीका यह है कि उपवास रखकर पुष्प, पंचामृत, बिल्वपत्रादि से चार प्रहर पूजा की जाय । दूसरा तरीका यह है कि मानसिक पूजा की जाय । हम मन-ही-मन भावना करें :
ज्योतिर्मात्रस्वरूपाय निर्मलज्ञानचक्षुषे ।
नमः शिवाय शान्ताय ब्रह्मणे लिंगमूर्तये ।।

ज्योतिमात्र(ज्ञानज्योति अर्थात् सच्चिदानंद, साक्षी) जिनका स्वरूप है, निर्मल ज्ञान ही जिनका नेत्र है, जो लिंगस्वरूप ब्रह्म हैं, उन परम शांत कल्याणमय भगवान शिव को नमस्कार है ।
                                   ‘स्कंद पुराण के ब्रह्मोत्तर खंड में शिवरात्रि के उपवास तथा जागरण की महिमा का वर्णन है:
‘‘शिवरात्रि का उपवास अत्यंत दुर्लभ है । उसमें भी जागरण करना तो मनुष्यों के लिए और दुर्लभ है । लोक में ब्रह्मा आदि देवता और वसिष्ठ आदि मुनि इस चतुर्दशी की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं । इस दिन यदि किसीने उपवास किया तो उसे सौ यज्ञों से अधिक पुण्य होता है ।
(ऋ.प्र : फरवरी २००८)