संस्कृत शब्द की  उडान:

संस्कृत शब्दों में  वैचारिक आकाश  छूने की क्षमता  है,  इसी गुण के कारण  उसमें  मैं सम्मोहन  भी मानता  हूँ। और  इसी लिए संस्कृतनिष्ठ हिन्दी भी मुझे  प्रभावित ही नहीं, सम्मोहित  भी करती है।

भाषा अर्थात भाषा के शब्द ही  चिन्तकों के विचारों को ऊँचा उठाते हैं,  और सारी मर्यादाएँ लांघ कर मुक्त चिन्तन का अवसर प्रदान करते  हैंं । कारण , संस्कृत भाषा  सर्वाधिक आध्यात्मिक-शब्द-समृद्धि  से युक्त है; सृष्टि विज्ञान की परिभाषा भी उसके शब्दों मॆं भरी हुई पाई जाती है। आज आधुनिक शोधकर्ता  सृष्टि विज्ञान की जिन अवधारणाओं को उद्घाटित कर रहे हैं, उन्हीं अर्थों के पारिभाषिक शब्द वेद -वेदांत  में पहले से  ही अस्तित्व में हैं। कुछ आक्रामकता का आश्रय ले कर ऐसा विधान मैं कर रहा हूँ। अगले आलेखों में  इस दृष्टिकोण से प्रस्तुति करने का प्रयास करूँगा।पारिभाषिक शब्दों के उदाहरणों से वैदिक सृष्टि विज्ञान को साथ साथ  आज खोजे गए आधुनिक विज्ञान के साथ उसकी तुलना करना भी मेरा उद्देश्य रहेगा।

इस विषय में  शब्दों की व्युत्पत्ति द्वारा अर्थ प्रस्तुत करने की ठानी है।

हमारी संस्कृत भाषा लचीली है; गुंजन युक्त है; साथ नाद मधुर भी है।संस्कृत का नया शब्द   प्रायः अर्थ-वाही, अर्थ -वाची  और गुण-सूचक होता है। और संस्कृत व्याकरण में शब्द रचना के सूत्र पाए जाते हैं।संस्कृत शब्द में गरिमा है, साथ पर्याय प्रचुरता भी है. अर्थ की सूक्ष्म छटाओं को  व्यक्त करने की  क्षमता है; अर्थ की तारतम्यता है।  विशेष संस्कृत का शब्द  तत्सम और तद्भव रूप में, भारत की सर्वाधिक प्रादेशिक भाषाओं में घुल मिल जाता है।  और, यह शब्द रचना का पाथेय संस्कृत को जन्मतः प्राप्त है।   संस्कृत कहती है, अर्थ दो और शब्द लो। इस लिए संस्कृत के अनेक  शब्द अर्थ प्रकट करते करते चलते हैं ।

एक सहस्र वर्ष का परिश्रम:

आध्यात्मिकता के परमोच्च लक्ष्य को साधने  के उद्देश्य से, संस्कृत भाषा को परिपूर्णता तक पहुँचाने के लिए ऋषियों ने एक सहस्र वर्ष तक परिश्रम  कर भाषा को पूर्ण विकसित किया और परिपूर्ण व्याकरण प्रदान किया।

इस संदर्भ में,  न्यू योर्क स्थित अमेरिकन संस्कृत इन्स्टिट्यूट के प्रोफ़ेसर   व्यास  ह्युस्टन (प्रोफ़ेसर ह्युस्टन स्मिथ) लिखते हैं; कि, संस्कृत का परिपूर्ण विकास  करने में  वैयाकरणियों  (ऋषियों )ने एक हज़ार वर्ष  लगाए थे। भाषा की रचना और विकास  आध्यात्मिक उन्नति को लक्ष्य कर किया गया था। भाषा ही, आध्यात्मिक उन्नति का  एक सक्षम साधन  मानी गई थी।

संस्कृत शब्द द्वारा चिंतन

संस्कृत का शब्द वह अश्व है, जिसकी सहायता से आप सारे वैचारिक धरातल  को आवृत्त कर सकते हैं। और जब  यह अश्व उपलब्ध धरातल की सीमा पार  कर लेता  है, तो  नए पंख लगा सकता  है। ये नए पंख उसे  नए  आकाश में उडान भरने की क्षमता देते हैं । ऐसा पंखो वाला  गगन चुम्बी अश्व है संस्कृत का  विकसनशील शब्द।  

क्या है ये नवीन पंख?

ये नवीन पंख  संस्कृत को शब्द-रचना के सूत्रों द्वारा प्राप्त होते हैं। और ऐसे सूत्र भी संस्कृत को पाथेय की भाँति मिले हुए हैं। इस लिए आप कह सकते हैं, कि, संस्कृत द्रौपदी की साडी है, जो चाहे वैसे अर्थ का  शब्द, अपने ही अंगों  एवं उपांगो का विस्तार कर निःसृत करने की क्षमता  रखती है।

अंग्रेजी भानुमति का पिटारा:

कोई संदेह नहीं कि,संस्कृत अंग्रेज़ी की भाँति भानुमति का पिटारा नहीं है।अंग्रेज़ी दुनिया भरकी १२० तक भाषाओं से उधार लेकर अपना शब्द भाण्डार बढाती है। इस लिए न उसके उच्चारण  के व्यवस्थित नियम है, न स्पेलिंग का ठिकाना।  आज तक अंग्रेज़ी (४) चार बार बदलाव कर सुधार कर चुकी है। पुरानी अंग्रेज़ी आज किसी विद्वान को समझ में नहीं आती। (देखिए, *खिचडी भाषा अंग्रेज़ी+*  नामक  लेखक का आलेख) मुझे यदि भारत के कर्णधार नेतृत्व का आदर ना होता, तो पता नहीं उनका किस नाम से उल्लेख करता?  शायद भारत के शत्रु ही ऐसा निर्णय कर सकते हैं।

संस्कृत शब्द का सम्मोहन

मैं संस्कृत को किसी भी  अर्थ का शब्द देने में समर्थ पाता हूँ।

मॉनियर विलियम्स, भार्गव, डॉ. रघुवीर, बाहरी और आपटे इत्यादि  कोशों का उपयोग करता हूँ।

यास्क का निरुक्त, लघुसिद्धान्त कौमुदी, अमरकोश, इत्यादि का भी उपयोग करता हूँ। आवश्यकता पडने पर नया आवश्यक अर्थवाला शब्द रचने का प्रयास करता हूँ।

संस्कृतनिष्ठ शब्दों ने ही मुझे  गुजराती,  मराठी,और  हिन्दी तीनों  भाषाओं में सहायता प्रदान की है।

और मेरी शाला के  दो समर्थ संस्कृत शिक्षक,  श्री काले और श्री रानडे जी के समर्पित शिक्षा  का  भी यह फल  है। साथ, संस्कृत पठन का आग्रह मेरे  स्व. पिताजी  की  धरोहर और देन  है। 

मैं बाल्यकाल से  संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी से  सम्मोहित हूँ। हिन्दी के संस्कृतजन्य शब्दों से ही, हिन्दी में सम्मोहिनी  है।  गुजराती और मराठी की भी यही स्थिति है। जिसका मुझे  अनुभव है। अन्य  बहुतेरी प्रादेशिक भाषाओं की भी यही स्थिति विद्वानों के कथनों से प्रमाणित होती है।

हमारी  सभी प्रादेशिक भाषाओं में ७० से ८० प्रतिशत संस्कृतजन्य शब्दों का प्रयोग होता है. मात्र तमिल में उसका प्रतिशत ४० से ५०  तक  अनुमाना जाता है। (संदर्भ: डॉ. रघुवीर)

देवनागरी लिपि :

साथ देवनागरी लिपि में  संस्कृत और ही सुंदर दिखती है। देवनागरी  में जब  कोई भी भाषा लिखी जाती है, तो लिपि के वलयांकित अक्षर लिखते  लिखते  ही लेखक  का कलाकार बन जाता है। तनिक रोमन लिपि के  A, M, E, F, H. I. K. L. M. T, V, W, X, Y, Z इत्यादि से   तुलना कीजिए। देवनागरी के प्रयोग से, अंगुलियाँ लचिली बनती हैं। हाथ और अंगुलियों के  विभिन्न अंगो और उपांगो में चेतना का संचार होता है। और साथ मस्तिष्क के गोलार्धों  में  सूक्ष्म उत्तेजना पैदा होकर समग्र मस्तिष्क सक्रिय होता है।

उसी प्रकार, सम्पूर्ण  वर्णाक्षरों का  विशुद्ध  वैदिक  उच्चारण मुख विवर के विविध अंगोपांगों  को सक्रिय बना देता  है, और मुख विवर के विभिन्न बिन्दुओं के स्पर्श से  जिह्वा  भी लचीली  बनती है।ॐ कार तो मस्तक के गुंबज में गुँज भी पैदा करता है समाधि में सहज प्रवेश करवा देता है जैसे देवालय का गर्भागार अनुभव होता है।  इसी के चलते  मुख विवर के विभिन्न अंगों का स्पर्श उस अंग को उत्तेजित कर मस्तिष्क में भी संबधित ज्ञानतंतुओं  को  क्रियान्वित कर उजागर करता है।

लन्दन के सैन्ट जॉन स्कूल के संस्कृत शिक्षकों ने संशोधन कर ऐसे ही विशिष्ट प्रभाव दर्शाएँ हैं। जो इस सच्चाई की पुष्टि करते हैं। उन शोधों की संक्षिप्त प्रस्तुति मैं अलग आलेख में कर चुका हूँ।

उच्चारण का अभ्यास न होनेपर उच्चारण की अशुद्धि स्पष्ट पता लगती है। कभी  परदेशी संस्कृतज्ञ  को सुनिए। संस्कृत का पी.एच. डी. होगा, पर  उसका अशुद्ध  उच्चारण आपको  चौंका देगा। हम जैसे,  जो बचपन से अनुशासन  पूर्वक  शुद्ध उचारण सीखे हैं और उसका आग्रह रखते हैं, उनके लिए जो सहज है, परदेशियों के लिए  सहज नहीं है।



अल्झाइमर ,पार्कीन्सन, और डिमेंशिया पर ?

कुछ परदेशी संशोधकों के अनुसार मेरा  भी तर्कोचित अनुमान है, कि देवनागरी का वैदिक गुरुकुलों  जैसा परिपूर्ण उच्चारण आप को, अल्झाइमर, पार्कीन्सन,  डिमेंशिया  इत्यादि बौद्धिक रोगों से भी दूर रख ने में सहायक हो सकता है।  मस्तिष्क के  जितने अंगों को आप सक्रियता प्रदान करेंगे; उतनी मात्रा में आप इन रोगों से  सुरक्षा प्राप्त कर सकते हैं। जब आप वेदमंत्रों का विशुद्ध उच्चारण करेंगे, तो मस्तिष्क के अधिकाधिक क्षेत्र  उत्तेजित हो जाएंगे। कभी आपने वैदिक  गुरुकुल जाकर मंत्रोच्चारों का श्रवण किया हो तो आप इस सच्चाई को जानते ही होंगे।

एक अनुभव

स्टीवन्स ईन्स्टीट्यूट, के डॉ. एम. जी. प्रसाद  ने जब हमारी युनिवर्सीटी मेंआयोजित वेदान्त कॉंग्रेस का  पारंभ किया। तो शंखनाद से और एम जी प्र्साद के विशुद्ध वेद मंत्रों से सारा सभागार मंत्रमुग्ध हो गया। वायुमण्डल इतना भारित हुआ, कि, प्रायः देढ दो मिनट कोई बोल नहीं पाया। ऐसी प्रगाढ  शान्ति को भंग करने का साहस मुझमें नहीं था। उस शान्ति में सारा सभागार डुबा हुआ था।

वैदिक शब्दों में  जो शब्द शक्ति होती है, उसमें  मंत्र शक्ति, अर्थ शक्ति, भाव शक्ति, इत्यादि सूक्ष्म शक्तियाँ तो होती  ही हैं। और हमारे आध्यात्मिक ग्रंथ देववाणी में होने के कारण हमारी श्रद्धा के अनुपात में उन शब्दों के परिवेश में एक भाव वलय भी होता है।

रोमन लिपि में लिखी गई भाषाएँ वा अरेबिक लिपि में लिखी गयी भाषाओं में ऐसी क्षमता अपेक्षित नहीं है। हमारे लिए तो अवश्य नहीं। क्योंकि वो भाषाएँ  सीमित मस्तिष्क का उपयोग करती हैं।

यह संभव इस लिए होता है, क्योंकि मनुष्य के मस्तिष्क भी माँसल ही होता है। और सारे माँसयुक्त अंगोंपांगों  पर व्यायाम परिणामकारी पाया गया है। जिस अंगका उपयोग आप बंद करेंगे, उसके साथ आप उस अंगकी क्षमता को भी घटाते हैं।

उसी के प्रयोग से उस अंग से जुडी हुई सारी  तंतु प्रणालियाँ   उत्तेजित होती हैं, जो स्वास्थ्य भी प्रदान कर  सकती हैं।  जैसे योग-व्यायाम करने से आप अपने विभिन्न इन्द्रियों को सक्षम  और सक्रिय बना सकते हैं। उसी प्रकार आप का संस्कृत का शुद्ध उच्चारण भी आप के मस्तिष्क के  भिन्न भिन्न अंशों  को  सक्रिय क्यों नहीं बना सकेगा?



विभिन्न अंगो का उपयोग:

उदाहरणार्थ, मैं दाहिने हाथ से  लिख सकता हूँ। मेरा बाँया और दाहिना हाथ बिलकुल एक-दूजे की प्रतिमाएँ हैं। है बिलकुल समान। पर दाहिने हाथ से मेरे, जैसे सुन्दर अक्षर लिखे जा सकते हैं, बाँए हाथ से वैसे अक्षर नहीं निकल पाते। यह भी एक प्रकार से सक्रियता पैदा करने का व्यायाम ही है।

अर्थात, जिस अंग का आप उपयोग करेंगे उस अंग में चालना प्रदान करने पर आप उस अंग को अवश्य उत्तेजित कर पाएंगे।यदि आप संगणक से ही काम चलाएंगे, और हाथ से लिखना छोड देंगे, तो आप की बौद्धिक व्याधियॊं से पीडित होने की संभावना बढ जाएगी। हाथ से होता हुआ व्यायाम रुक जाएगा मस्तिष्क का कुछ अंग शिथिल हो जाएगा।

जो योगदान औषधियाँ देती होंगी  उसका लाभ भी लिया जाए। पर जब तक निर्णायक उत्तर नहीं आता तब तक हमें अपने  मंत्रोच्चारों का प्रयोग छोडना नहीं चाहिए। और अवश्य हाथ से लिखना भी अबाधित रखना चाहिए।

अल्ज़ाइमर, डिमेंशिया, और पार्कीन्सन जैसे   बौद्धिक रोगों में  मंत्रोच्चार सहायक

मंत्रोच्चारों का प्रयोग, और हाथ से लिखना भी एक प्रकार का योग ही है। परदेशी भाषाओं से हमें, ऐसा लाभ मिलना संभव नहीं लगता।डॉ. जेम्स हार्ट्ज़ेल का २०१८ जनवरी का शोधपत्र भी इसी विषय पर लिखा गया है। आप ने २१ शुक्ल यजुर्वेदी पुरोहितों पर

M R I द्वारा परीक्षण कर के निष्कर्श निकाला है। उन्ही कहना है, कि, अल्ज़ाइमर, डिमेंशिया, और पार्कीन्सन जैसे रोगों से रक्षा के लिए हमारे मंत्रोच्चारों का प्रयोग सहायक हो सकता है।  समय मिलने पर डॉ. हार्ट्ज़ेल के शोधपत्र पर आलेख का प्रयास करूँगा।

टिप्पणियों से आलेख का आशय सुनिश्चित होगा।