विवाह संस्कार: सात जन्मों का अटूट बंधन।
विवाह, सात
जन्मों का पवित्र बंधन होता है। इस अटूट बंधन में बँधकर पति-पत्नी हर एक सुख-दुख
में साथ रहने की कस्में खाते हैं। इस रिश्ते के अस्तित्व में आने से दो शरीरों के
साथ-साथ दो आत्माओं का मिलन तो होता ही है। इसके अलावा दो परिवारों का मेल भी होता
है। जिससे कई प्रकार के रिश्ते-नाते जुड़ जाते हैं। हिन्दू धर्म के 16
संस्कारों में विवाह संस्कार तेहरवाँ संस्कार है। विवाह संस्कार होने के पश्चात्
व्यक्ति अपने दांपत्य जीवन में प्रवेश करता है।
वैदिक शास्त्रों में व्यक्ति के जीवन को चार
आश्रमों में बाँटा गया है। इसमें सबसे पहला आश्रम ब्रह्मचर्य होता है। दूसरा आश्रम
गृहस्थ होता है। इसमें व्यक्ति को सांसारिक जीवन से जुड़ना और उसके सुखों-दुखों का
अनुभव करना होता है। इसी आश्रम के निमित्त व्यक्ति का विवाह संस्कार होता है। इसके
पश्चात वानप्रस्थ और फिर अंतिम संन्यास आश्रम होता है। इन सभी आश्रमों में से
सर्वश्रेष्ठ आश्रम गृहस्थ को माना जाता है। इसका उल्लेख खुद संस्कृत के एक श्लोक में
भी किया गया है कि “धन्यो गृहस्थाश्रमः” अर्थात चारों आश्रमों में से गृहस्थ आश्रम
ही श्रेष्ठ है।
विवाह संस्कार का महत्व
विवाह संस्कार से ही स्त्री-पुरुष स्वयं के
अस्तित्व को पूर्ण करते हैं। इससे दोनों का समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
इसलिए विवाह को मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण बिन्दू माना गया है। वैदिक शास्त्रों
के अनुसार यह संस्कार पितृ ऋण से भी मुक्ति दिलाता है। दरअसल, मनुष्य
जन्म से ही तीन ऋणों से बंधा होता है। इनमें ‘देव ऋण’, ‘ऋषि
ऋण’ और ‘पितृ ऋण’ सम्मिलित होते हैं। विवाह शब्द की व्याख्या करें तो यह दो शब्दों
से मिलकर बना होता है। पहला शब्द इसमें ‘वि’ होता है और दूसरा शब्द ‘वाह’ होता है
दोनों शब्दों का शाब्दिक अर्थ विशेष रूप से उत्तरदायित्व को निभाना होता है।
हिन्दू धर्म में अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर पति-पत्नी
एक-दूसरे के प्रति अपने धर्म को निभाने का वचन लेते हैं। विवाह संस्कार का मुख्य
उद्देश्य केवल इंद्रिय या शारीरिक सुख भोगने का नहीं है बल्कि संतानोत्पत्ति कर एक
परिवार की नींव डालना भी होता है।
इसीलिए आवश्यक है विवाह संस्कार
वैदिक
परंपरा से संपन्न हुआ विवाह संस्कार सार्थक होता है। क्योंकि इस परंपरा के अनुसार
विवाह संस्कार से पहले वर और वधु का कुंडली मिलान किया जाता है। हमे बचपन से ही
बताया जाता है कि विवाह का पवित्र बंधन व्यक्ति के जन्म से पूर्व स्वर्ग में ही तय
हो जाता है। इसलिए कुंडली मिलान इस जोड़ी को धरती पर पुनः मिलाने का ज़रिया बनती
है। विवाह की चाह रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए एक अच्छे जीवनसाथी की चाह
रखता है। परंतु कई बार ऐसा देखने में आता है कि विवाह के बाद पति-पत्नी के बीच
रिश्तों में खटास आ जाती है। दोनों के विचार अलग होने के कारण अक्सर मतभेद होने
लगते हैं और बाद में यही सब उनके बिछड़ने की सबसे बड़ी वजह बनते हैं। ऐसे में विवाह
के बाद वर-वधु का जीवन सुखी रहे इसलिए कुंडली मिलान के माध्यम से दोनों के गुण
मिलाए जाते हैं।
विवाह मुहूर्त
भारतीय समाज में विवाह संस्कार कई तरह के
रीति-रिवाज़ो और हर्षो उल्लास का अवसर माना जाता है। इसी लिए जहाँ एक अच्छा और
सुमेलित विवाह दो परिवारों में कई खुशियाँ लेकर आता है, वहीं
एक विवाह यदि किसी कारणवश सही तरह से नहीं चल पाए तो उसे जीवनभर का नासूर बनते भी
देर नहीं लगती। इसलिए हर शुभ काम करने से पहले शुभ मुहूर्त जानने की जो परंपरा, हिन्दू
धर्म में अनिवार्य रूप से चलती आ रही है, उसी के
अंतर्गत विवाह के लिए भी वर और वधू पक्ष कुण्डलियाँ और गुण-दोष भली-भांति मिलवाकर
ही विवाह की बात आगे बढ़ाना उचित समझते हैं। विवाह का मुहूर्त भी बहुत सोच विचार कर
ही निकाला जाता है, ताकि विवाह का संबंध अटूट बना रहे।
क्या होता है विवाह मुहूर्त ?
जैसा हमने ऊपर बताया कि भारतीय
समाज में विवाह को एक बहुत महत्वपूर्ण कार्यक्रम माना जाता है। विवाह से पहले
वर-वधू के गुण, उनकी कुंडलियों के अनुसार मिलाएँ जाते हैं।
वर-वधू की जन्म राशि के आधार पर निकाली गयी विवाह की तिथि ही विवाह का मुहूर्त
कहलाती है। विवाह संस्कार के लिए शुभ मुहूर्त की गणना करने का कोई विशेष नियम नहीं
है। विवाह जीवन भर का बंधन है, इसलिए इससे सम्बंधित कोई भी काम करते
समय किसी प्रकार की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। यही बात विवाह के मुहूर्त के विषय
में भी है। विवाह के लिए शुभ मुहूर्त का चयन सावधानी से और किसी अनुभवी और योग्य
ज्योतिषी से निकलवाना चाहिए, वरना बाद में वर-वधू को कई तरह की
समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
विवाह संस्कार का तुलसी विवाह से संबंध
हिन्दू रिति-रिवाज के अनुसार, विवाह
संस्कार को लेकर तुलसी विवाह का पर्व भी मनाया जाता है। यह कार्तिक मास की एकादशी
के ठीक एक दिन बाद मनाया जाता है। तुलसी विवाह के दिन तुलसी के पौधे को एक दुल्हन
की तरह सजाया जाता है। वहीं भगवान विष्णु की प्रतिमा को दूल्हा बनाया जाता है। फिर
दोनों को एक साथ रेशम की एक डोर से बांधा जाता है। यह सब प्रक्रिया वैवाहिक
मंत्रोच्चारण के साथ होती है और भगवान विष्णु और तुलसी के ऊपर सिंदूरी रंग में रगे
हुए चावल डालकर विवाह को विधिपूर्वक संपन्न किया जाता है। इसी दिन से ही हिन्दू
वैवाहिक ऋतु भी प्रारंभ हो जाती हैं।
विवाह संस्कार का ज्योतिषीय महत्व
वैदिक ज्योतिष
में जातकों की जन्म कुंडली के आधार पर उसके जीवन का अध्ययन किया जाता है। चोंकि
विवाह संस्कार व्यक्ति के जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार है। इसलिए कुंडली का सातवाँ
भाव विवाह भाव कहलाता है। ज्योतिष में इसी भाव से व्यक्ति के वैवाहिक जीवन को देखा
जाता है। इस भाव से व्यक्ति के जीवनसाथी के विषय में भी जाना जाता है। ये भी देखा
गया है कि अगर इस भाव में ग्रह की अनुकूलता न हो तो जातकों को वैवाहिक जीवन में
कष्टों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए अगर इस भाव में मंगल बैठा हो तो
व्यक्ति की कुंडली में मंगल दोष बनता है जिससे व्यक्ति मांगलिक हो जाता है और उसे
विवाह में देरी जैसी समस्या से गुजरना पड़ता है।
विवाह से संबंधित सभी विशेष रस्में
तिलक
विवाह संस्कार से पूर्व विवाह की कुछ
महत्वपूर्ण रस्मों को निभाया जाता है। विवाह के लिए यदि वर-वधु एक-दूसरे को पसंद आ
जाएं तो सबसे पहले तिलक की रस्म होती है। क्षेत्रीय भाषा में इसे रोका कहा जाता
है। इस रस्म के अनुसार वधु पक्ष यानि की लड़की के घर वाले लड़के का तिलक करते हैं।
इस दौरान वे अपने दामाद को कई चीज़ें भेंट करते हैं। हालाँकि वर्तमान में मंगनी का
चलन है जिसमें लड़की और लड़का विवाह से पूर्व एक-दूसरे को अंगूठी पहनाते हैं। यह
रस्म दोनों के बीच एक तरह का क़रार है कि आज से वे दोनों एक दूसरे के मंगेतर हो गए
हैं। हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मों में भी इस रस्म को बड़ी धूम-धाम के साथ
किया जाता है। इस ख़ुशी के मौक़े पर दोनों के रिश्तेदार शामिल होते हैं।
हल्दी
भाई जाती है। विवाह के लिए यह
बेहद अनिवार्य रस्म होती है। इसीलिए वर-वधु दोनों को ही यह रस्म निभानी पड़ती है।
परंपरा के अनुसार हल्दी के शगुन को महत्वपूर्ण माना जाता है। कहते हैं कि हल्दी से
दूल्हा-दुल्हन की काया निखर जाती है। हालाँकि वैज्ञानिक दृष्टि से यह सही भी है।
क्योंकि हल्दी में एंटी ऑक्सीडेंट होता है। इसलिए यह एक औषधि भी है जो त्वचा के
रोगों को दूर करने में सहायक होती है। जो त्वचा में एक चमक पैदा करती है। इसके
अलावा विवाह के दौरान घर में कई तरह के लोग आते हैं इस दौरान कई लोगों के साथ
नकारात्मक ऊर्जा भी साथ आती है। ऐसे में हल्दी इस नकारात्मक ऊर्जा को दूर करती है।
मान्यता है कि हल्दी के इन्ही चमत्कारिक गुणों के कारण ही इसे हिन्दू विवाह की
रस्म में जोड़ा गया है।
वरमाला
विवाह में होने वाली रस्मों में वरमाला रस्म भी
होती है। जिसे जयमाला भी कहा जाता हैं। हिन्दू विवाह
पद्धति में प्राचीन काल से ही इस रस्म को निभाया जा रहा है। हिन्दू शास्त्रों में
इसका गन्धर्व विवाह के रूप में वर्णन आता है। चूंकि
पौराणिक काल में स्वयंवर का आयोजन होता था। त्रेतायुग में माता सीता का स्वयंवर इस
कढ़ी में सबसे प्रमुख रूप से आता है। जब भगवान श्री राम ने सीता जी के
स्वयंवर में पिनाक नामक धनुष को तोड़ा था तब सीता जी ने जयमाला पहनाकर ही श्रीराम
को अपने स्वामी के रूप में स्वीकार किया था। इस
रस्म में वर-वधु एक दूसरे को जयमाला पहनाकर जीवनसाथी के रूप में अपनाते हैं।
फेरे
जिस प्रकार इंद्र धनुष में सात रंग
होते हैं, संगीत में सात स्वर होते हैं, वार
में सात दिन होते हैं उसी प्रकार विवाह संस्कार में भी सात फेरे होते हैं। विवाह
में होने वाली यह रस्म सबसे प्रमुख रस्म मानी जाती है। इसी लिए जब तक विवाह में
सात फेरे न पड़ें तब तक विवाह संस्कार पूर्ण नहीं माना जाता है। ये सात फेरे सात
जन्मों तक रहने का वचन होता है जिसे वर-वधु दोनों ही लेते हैं। विवाह के साथ फेरे
अग्नि और ध्रुव तारे को साक्षी मानकर लिए जाते हैं। यहाँ हर एक फेरे का एक विशेष
अर्थ होता है।
·
शास्त्रों के अनुसार पहला पग भोजन
व्यवस्था के लिए होता है।
·
दूसरा शक्ति संचय, आहार
तथा संयम के लिए।
·
तीसरा फेरा आर्थिक प्रबंधन के लिए होता
है।
·
इसी प्रकार चौथा फेरा आत्मिक सुख के
लिए।
·
पांचवाँ फेरा पशुधन हेतु।
·
छठा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए
और,
·
अंतिम फेरे में कन्या अपने पति का
अनुशरण करते हुए हमेशा साथ चलने का वचन लेती है।
कन्या दान
दुनिया भर के सभी दानों में से
कन्या दान को सबसे बड़ा दान माना जाता है। सरल शब्दों में कन्या दान की व्याख्या
करें तो कन्या के माता-पिता का अपनी कन्या का उसके वर को दान करना ही कन्यादान
कहलाता है। वेदों और पुराणों के अनुसार, विवाह
संस्कार में वर को सृष्टि के पालनहार विष्णु जी का स्वरूप माना जाता है। ऐसा कहते
हैं कि कन्या दान के समय कन्या के पिता वर को इस आश्वासन के बाद ही अपनी पुत्री
सौंपते हैं कि वह उसकी हर क़ीमत पर रक्षा करेगा। उसके ऊपर कभी आँच नहीं आने देगा।
वैसे तो कन्या दान की रस्म भारत के अलग-अलग हिस्सों में अलग अलग तरीक़े से मनाई
जाती है।
इस दौरान कन्या
दान के समय कन्या के माता-पिता वर-वधु के पैर धोते हैं।
फिर वधु के घर
वाले अपनी बेटी को आशीर्वचन देते हैं और,
अंत में उसके नए
जीवन में सुखों की कामना करते हैं।
विदाई
विवाह संस्कार में अंतिम रस्म विदाई
की रस्म होती है, जो कन्या पक्ष के लिए हृदय विदारक से कम नहीं
होती। इसी रस्म के दौरान कन्या के घरवालों को उसकी जुदाई का अहसास होता है। इस समय
कन्या को विदा करने वालों की आँखें नम होती हैं। कन्या के मन में भी अपने घरवालों
से जुदा होने का गम होता है। वह सोचती है कि जिस आँगन में उसका बचपन बीता, जिनके
साये में रहकर वह बड़ी हुई, जिस माँ के आँचल की छांव में वह रही, जिस
बाप के कंधो पर सिर रखकर वह सोई आज उन्ही को वह छोड़कर अपने ससुराल जा रही होती
है। ऐसे में इन्ही यादों को याद करते हुए माहौल थोड़ा भावुक हो जाता है और इसी के
साथ इस संस्कार का अंतिम चरण भी समाप्त हो जाता है।
हम आशा करते हैं कि विवाह संस्कार
से जुड़े हमारे इस लेख में निहित जानकारी आपके लिए उपयोगी साबित होंगी। हमारी
वेबसाइट से जुड़े रहने के लिए आपका साधुवाद!
0 टिप्पणियाँ