नारायण कवच ।
जो नारायण कवच धारण करता है, ऐसा आदमी अगर
किसी को छु दे तो उसका भी मंगल होता है। नारायण कवच की ऐसी बड़ी भारी महिमा है। श्रीमदभागवत
में नारायण कवच लम्बी चौड़ी विधि से भी किया जा सकता है और आज कल वो विधि करने की क्षमता न हो तो ऐसे
ही भावना से भी किया जा सकता है। मेरे अंग प्रति
अंग में भगवान नारायण का निवास
है, मेरे मन और बुद्धि की भगवान नारायण रक्षा करें, मुझे
पाप कर्म में गिरने से नारायण बचाये, मुझे
अशांति और दुखों से नारायण बचाये। नर और नारी में
बसे हुए हम नारायण चैतन्य आत्मा का आवाहन
करते, प्रागट्य चाहते है। श्रीमदभागवत
में इन्द्र जब प्रभाव हीन हो जाता है गुरु का अनादर करने से, दैत्य
ने इन्द्र पर धावा बोल दिया और देवता
लोग दर दर की ठोकरे खाने लगे, इन्द्र प्रभाव हीन होकर भटकने लगा और
भगवान ब्रह्माजी की स्तुति करने को
पंहुचा। कथा ऐसी आती है की एक बार इन्द्र अपनी
विजय की खुशी में राज सिंहासन पर बैठा था इन्द्राणी के साथ, देवता लोग अभिवादन करके ही बैठे थे। मनुष्य
निगुरा हो, धन संपत्ति बढ़ जाये, एश्वर्य बढ़ जाये, विवेक
न हो, तो एश्वर्य का मद
भी आता है – घमण्ड। इन्द्र अपने वैभव-एश्वर्य से छककर बैठे
थे इन्द्राणी के साथ इन्द्रासन पर।
गुरु बृहस्पति आये, अब शास्त्र में तो ये बात आती है के जब
गुरुदेव आते है तो उठ खड़ा होना चाहिए, चाहे सप्तदीप पृथ्वी का राजा हो, चाहे
बडा धनाडिया हो, चाहे बडा सत्ताधीश हो।
गुरु बृहस्पति
समझ गए की मद्धो उन्मत्त हुआ है। गुरु
बृहस्पति चले गए वहाँ से। इन्द्र को बाद
में पता चला के अरे – गलती हो गयी। असुरों को पता चला और वो असुर गए गुरु
शुक्राचार्य के पास के इन्द्र के गुरु इन्द्र से रूठे है, अब
कोई युक्ति बताओ तो हम शत्रु
को आराम से जीतेंगे। गुरु ने कहा बिलकुल पक्की बात है। जिसका
गुरु ने मुख मोड लिया है, गुरु जिसका रूठा है वो तो मच्छर है, चाहे
बडा आसन पर बैठा है तो क्या है; तुम विजयी हो जाओगे। इन्द्र
को पता चला शत्रुओं ने आपस में
मेलजोल कर लिया है; अब गुरु हमारे रूठे है, गुरु को मनाने
के लिए इन्द्र गया। वक्त पर जो काम होता है न वो बड़ा आसानी से होता है और
बेवक्त से काम बडा तकलीफ से होता भी है, नहीं भी होता
है। गुरु आये उस
वक्त उठ खडे होते वक्त से उनका आदर सत्कार करके दुआ ले लेते तो आसान था। गुरु
रूठ गए अब शत्रुओं ने धावा बोला है
अब बेटा जा रहा है गुरु के द्वार। गुरु घर से चल
दिए गुरु पत्नी ने कहा की गुरुदेव नहीं है। गुरु को पता चला आ रहा है वो पीछे के दरवाजे
से रवाना हो गये। गुरु के द्वार से जो ठुकराया गया उसको
ठोकर ही ठोकर खाना है। इन्द्र पर दैत्यों ने धावा बोल दिया और
बुरी तरह इन्द्र हार गए। देवता दर दर के ठोकर खाने लगे आखिर
इन्द्रदेव ब्रह्माजी के
पास गए। ब्रह्माजी ने कहा के इन्द्र जब तक गुरु की कृपा तुम साथ नहीं ले
चलोगे तब तक तुम्हारा विजयी
होना जरा कठिन है। उम्र में भले कम हैं लेकिन हैं गुरु पद
में आसीन। त्वष्टा प्रजापति के पुत्र विश्वरुपा – ये भागवत में कथा आती है। जाओ
उनकी शरण लो देवता लोग और इन्द्र उनको रिझाओ।
त्वष्टा प्रजापति के पुत्र विश्वरुपा के पास इन्द्र और देवता लोक आये
है प्रार्थना किया है – के वैसे तो हम तुम्हारे पितृ होते है लेकिन अभी इस समय हम आपके
शिष्य होने को आये है और अपने कार्य सिद्धि के लिए उम्र से बडा आदमी छोटे उम्र वाले का सत्कार करें तो
कोई आपत्ति नहीं। हम पितृ है, आयुष
में तो तुम से बड़े है लेकिन हमें अपना
कार्य साधना है, हम आपकी मदद लेने आये है आपकी शरण आये है। विश्वरुपा
ने कहा ऐसा न कहो, वैसे ही आप
हमारे पितृ लोग है। (दो प्रकार के देवता होते है, एक आजानु देवता
एक करमज देवता। जो सत्कर्म, यज्ञ-याग, तप, व्रत करके देवता
बने है उन्हें करमज देवता कहते है। और जो सृष्टी के
आदि से ही देवता है और सृष्टी के अंत
तक देवता रहते है उन्हें आजानु देवता कहते है। तो
ये करमज देवता हजारों वर्ष पहले जप तप किया था और देवता बने है त्वष्टा प्रजापति के पूर्वज तो
है उसमे।) त्वष्टा
प्रजापति के पुत्र विश्वरुपा का आदर सत्कार करते हुए प्रार्थना की गयी। उन्होंने
कहा ऐसे तो पुरोहित पद निंदनीय
है, पुरोहित पद कोई अच्छा नहीं। योग वशिष्ठ में
वशिष्ठ महाराज भी बोलते है की पुरोहित पद अच्छा नहीं है लेकिन रामजी जिस कुल में जन्म लेने
वाले है तो उस साकार ब्रह्म का सानिध्य मिलेगा। उनका
पुरोहित बनूँगा इसलिए मैंने
पुरोहित पद स्वीकार किया है। आचार्य ब्रह्मा
का मूर्ति है, पिता प्रजापति है, माता पृथ्वी की मूर्ति है, भ्राता इन्द्र है और बहन साक्षात् दया
का स्वरूप है और ये आत्मा सब धर्मों का मूल है। अभ्यागत
अग्नि का स्वरूप है, अतिथि
के रूप में साक्षात् भगवान आये ऐसा भारतीय संस्कृति का मानना है और ऐसा मानने से
पुण्य होता है लाभ होता है। इन्द्र देव ने प्रार्थना की तो
विश्वरुपा कहते है की मैं तुम्हारा पुरोहित पद स्वीकार कर लेता हूँ। पुरोहित
पद स्वीकार करके उन्होंने
देवताओं को सफल होने के लिए नारायणी विद्या बताई।
जिस नारायणी
विद्या के बल से देवताओं का विजय
हुआ और ऐशवर्य सम्पन्न हुए। नारायणी
विद्या के बल से शोक रहित हुए। नारायणी विद्या
के बल से चिंता मुक्त हुए। नारायणी
विद्या के बल से तनाव मुक्त हुए। निर्धनता मुक्त
हुए और ऐशवर्य सुख सम्पदा और आनंद
को प्राप्त हुए। शुकदेवजी ने
वर्णन किया, परीक्षित कहते हैं के वो नारायणी विद्या क्या होती है महाराज ? तब
कृपालु शुकदेवजी ने कहा
नारायणी विद्या अपने अंगो में स्नान आदि करके पवित्र हो जाना चाहिए। मैं
अभी नहा कर आया, सुबह
नहाया था, अभी नहा कर आया। लोग कपड़े तो
चमकीले रखते है लेकिन शरीर गन्दा रखते हैं – अच्छा नहीं होता। शरीर
भी पवित्र हो और वस्त्र भी शुद्ध हो। चमकीले कपड़े
नहीं लेकिन शुद्ध कपड़े हो, स्वच्छ कपड़े हो। एक बार बाथरूम में जाये तो हाथ पैर
धोना चाहिए, कुल्ला करना चाहिए - शरीर और मन शुद्ध रहता है। लेट्रिन में कपड़े पहन के जाये तो वही कपड़े फिर
अशुद्ध माने जाते है। वे कपड़े साबुन देकर नहीं तो ऐसे ही
पानी में डुबो कर सुखा कर फिर
पहनने चाहिए। शरीर के शुद्धि
के साथ साथ मन की शुद्धि का संबंध है, अर्थात तन मन से
शुद्ध हो कर स्नान-आदि और स्वच्छ वस्त्र
पहन कर बैठना ये तन से शुद्धि है और मन से किसी का बूरा न सोचना और भगवान मेरे है
और मैं भगवान का हूँ ऐसा
पक्का भाव करके बैठना ये मन की शुद्धि है। तो तन मन से
शुद्ध हो कर नारायणी विद्या का, नारायणी
शक्ति का आवाहन करना चाहिए इसे नारायण कवच भी बोलते है। शुकदेव
जी महाराज कहते है की हे राजन
परीक्षित, त्वष्टा प्रजापति के पुत्र विश्वरूपा ने नारायणी विद्या बताया, उस
नारायणी विद्या से देवता देदीप्यमान
हुए। कैसी नारायणी विद्या ? के
नहा धो कर स्वच्छ-पवित्र हो कर तन-मन से। उत्तर के तरफ
अथवा पूर्व अभिमुख अपने शुद्ध आसन
पर बैठ कर, दरब आदि ऊँगली में बांध कर, अपने शरीर
दाये-बाये, आगे और पीछे शिखा पर,
नेत्रों पर आदि पानी के छिटकाव लगाये, “ॐ नमो नारायणाय, ॐ
नमो नारायणाय” करके अथवा “ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय” अथवा “नमो नारायणाय, नमो नारायणाय”
इस प्रकार आवाहन करे अपने तन में, मन में उस नारायण शक्ति का। ऐसा
नारायण कवच पहन कर जो आदमी पुण्य कर्म करता है उसके पुण्य कर्म उसको अमिट फल देते है। नारायण स्मरण करके अपने छुपे हुए
नारायण तत्व को जगा कर कोई सत्संग-कीर्तन भजन करता है तो उसे विशेष लाभ होता है। आज
के जमाने में नारायण कवच की बहुत जरुरत है, हवामान में तनाव
खूब है, वातावरण में सेक्सुअल
काम बिकार खूब है, लोभ खूब है, चिंता और एक दुसरे की criticize (निंदा)
हवामान में बहुत है। जैसे योद्धा युद्ध करने जाता है तो साथ में
अस्त्र शस्त्र रखता है लेकिन कवच भी पहनता है। ऐसे
हम लोग संसार में युद्ध के मैदान
में जाएँ, अपने बचाओ के लिए, निभाओ के लिए, आजिविका
के लिए पुरुषार्थ रूपी अस्त्र-शस्त्र तो
रखे। लेकिन वो बचाओ या विजय के साथ साथ कहीं
शत्रु का छुरा न घुस जाए इसलिए हमे भी अपना कवच धारण करना चाहिए।
जिनके
जीवन में ये आध्यात्मिक कवच धारण करने की कला है उनके ऊपर दुर्जनों का, दुष्टों
का, तुच्छ संकल्पों का प्रभाव
नहीं पड़ता है। राजनेता है तो आस पास उसे कई ‘स्टेन
गन’ वाले चाहिए, कई सुरक्षा जांच वाले चाहिए, फिर भी राजनेता बेचारे धड़ाक-भड़ाक हो कर मर
जाते है – ये आपने हमने सुना है। राज नेताओं से
भी ज्यादा महापुरुषों का
यश होता है फिर भी महापुरुषों के इर्द-गिर्द स्टेन गन नहीं होती है, नारायण
कवच का आलौकिक प्रभाव है। नारायण
..., नारायण..., नारायण। ये तो हुई बाहर की बात दूसरी भीतर की
बात है के हमारे मन को कभी क्रोध रूपी शत्रु घेरता है तो कभी काम रूपी शत्रु सताता है तो कभी लोभ सताता है तो
कभी मोह सताता है। इन्द्र आसन पर बैठने के बाद भी मद ने
सताया है, देवताओं
के स्वामी को भी जब ये विकार परेशान कर सकते है तो आज कल के मनुष्यों की तो बात ही
क्या ? इसीलिए साधकों
को चाहिए की सुबह–दोपहर–शाम संध्या करें अथवा तो नारायण कवच धारण करें। रात्रि
के श्वास ओ श्वास में जो
वात-पित्त- कफ से जो नाड़ियों में पाप-ताप आ जाते है सुबह के प्राणायाम से रात्रि
का पाप ख़त्म होता हैं दोपहर
को प्राणायाम करते तो सुबह से दोपहर तक के टाइम में जो कुछ हुआ रजों-तमो गुण वो
प्राणायाम और संध्या से नष्ट
होता है। फिर शाम की संध्या करते तो दोपहर के १२ से शाम क ७ बजे तक के जो कुछ
“कुछ दोष” शरीर में, मन
में आया वो नष्ट होते। त्रिकाल संध्या माना घर में तीन टाइम
बुहारी – ह्रदय रूपी घर में तीन टाइम
बुहारी। बहुत फायदा होता है। जो द्विजातिय तीन टाइम संध्या करते है
उसे रोजी रोटी की चिंता नहीं होती। जो द्विजातिय
त्रिकाल संध्या करते है उसकी
अकाल मृत्यु नहीं होती। उसके बेटे उसके शत्रु नहीं बनते नहीं
तो आज काल के साहाबों के बेटे, साहबों के मेम साहब के बेटे मेम साहब के शत्रु हो
जाते है। देखो कौशल्या माता नित्य शुभ कर्म करती थी – रामचन्द्र जी कितने उनके सुपात्र पुत्र हैं। भरत
भी कैसे हैं, लक्ष्मण भी कम नहीं और शत्रुघ्न भी कम नहीं। एक
से एक हैं।
जो सत्कर्म करता
है और नारायण कवच पहनता है उसके कुल में दुष्ट आत्मा नहीं आती। माँ
बाप को दुःख देने वाले सताने वाले
पुत्र नहीं आते। जो नारायण कवच धारण करता है उसके ह्रदय
में दुष्ट भाव ज्यादा देर नहीं ठहर
सकते। जो नारायण कवच पहनता है उसकी अकाल
मृत्यु नहीं होती और जो नारायण कवच पहनता है अकारण उसका मन उद्विग्न नहीं होता। जो
नारायण कवच पहनता है अथवा ब्रह्मज्ञानी महापुरुष है, ब्रह्मज्ञान का
कवच जिसने सदा के लिए धारण
कर रखा है उसकी दृष्टि जितने लोगों पर पड़ती है उतने लोग भी पवित्र होने लगते है
इतना उसका प्रभाव है। नानक जी ने ठीक कहा है – ब्रह्मज्ञानी
की दृष्टि अमृत वर्षी, ब्रह्मज्ञानी अनाथों का नाथ, ब्रह्मज्ञानी
का सब ऊपर हाथ, ब्रह्मज्ञानी
की मत कौन बखाने, नानक ब्रह्मज्ञानी की गत ब्रह्मज्ञानी जानें। नारायण
कवच या तो ब्रह्मज्ञान का कवच
जिसने अपने गुरु से ब्रह्मज्ञान का कवच पा लिया है उसकी तो महिमा अपरम्पार है, उसको
तो बार बार नमस्कार है। मत
करो वर्णन हर बेअंत है, साध जना मिल हर जश (यश) गाये। साधु
पुरुष के साथ मिलकर हरि का जश
(यश) गाओ। हरि का जश तो ऐसे भी गाये, ऐसे भी गायेंगे, तो
गाने वाला मैं हु और मैं हरि का जश गा रहा
हु – हरि कही हैं, आएंगे। अथवा
तो थोडा गायेंगे तो अहंकार आ जायेगा अथवा तो विषाद आ जायेगा। नहीं गाते है उनके अपेक्षा गाने वालों
को धन्यवाद है लेकिन तो “साध जना मिल हर जश गाते” उनका तो बेडा पार हो जाता है उनको प्रणाम है। क्योंकी
वो जो साध पुरुष है, संत पुरुष है उनके सानिध्य में बैठ कर हरि चर्चा, हरि कीर्तन, हरि ज्ञान, उसका
महातम भारी हो जाता है। जैसे कोई युवान लड़का है IAS ऑफिसर
बना है उसने IAS ऑफिसर
बनने के लिए एग्जाम (परीक्षा) दे दिया है लेकिन उसकी पोस्टिंग अभी नहीं हुई। वो
आपके घर के पास भी रहता है, कलेक्टर
होने के काबिल है, कलेक्टर हो जायेगा लेकिन अभी तक पोस्टिंग नहीं हुई तो उसके सिग्नेचर की कोई कीमत नहीं है। अगर
एक बार कलेक्टर हो गया है और उसी इलाके का जहाँ आप रहते है तब उसकी सिग्नेचर का बोल बाला है। आर्डर
बड़े साहब का आर्डर। नरशिमा राव प्राइम मिनिस्टर नहीं हुए
थे तब उनके सिग्नेचर की
कीमत इतनी नहीं थी जितनी अभी हो गयी।
तो एक लौकिक व्यवहार में भी आदमी पदवी पे बैठता है तो उसके sign (हस्ताक्षर)
की कीमत हो जाती है। ऐसे जिसने नारायण कवच पहन लिया है अथवा
ब्रह्मज्ञान कवच पहन लिया वो महापुरुष भगवान की बनाई हुई पदवी पे बैठा है। उनके
सानिध्य में जो काम होता है तो उनकी निगाह रूपी सिग्नेचर मिल जाती है तो हमारा
सत्कर्म sanction हो
जाता है। पुण्य हमारा पास हो जाता है, स्वीकार हो जाता
है।
कागज तो बहुत
सारे है, ठप्पे भी बहुत
सारे है लेकिन जिन कागज और ठप्पों के साथ राष्ट्रपति, प्राइम
मिनिस्टर अथवा कलेक्टर की जिस किसी की
सइ हो उसकी अपनी कीमत बन जाती है। ऐसे
भजन गाने वाले तो बहुत है लेकिन जिनके दिल पर गुरु की निगाह पड गई उनकी कीमत कुछ और हो जाती है। औखी घड़ी न देखन देवइ सतगुरु अपना बिरध
संभाले। औखी घड़ी। जिन्दगी भर जिन रुपयों–पैसों को, रिश्ते
नातो को संभाला है वो
सारे के सारे मृत्यु के समय छोड़ कर जाना पड़ेगा। फिर
प्रकृति किस देह में डाल दे कोई पता नहीं
है – ये औखी घड़ी है। जेल जाना कोई
औखी घड़ी नहीं है, अस्पाताल जाना कोई बड़ी औखी घड़ी नहीं है, लेकिन सारे जीवन और सबंधों को छोड़ कर मौत में
जाना बड़ी औखी घड़ी है। ऐसी औखी घड़ी पर नारायण कवच अथवा ब्रह्मज्ञान का कवच पहने हुए
महापुरुषों की सिग्नेचर ही काम देती है बाकि की किसी की कीमत नहीं। साध
जना मिल हर जश गाइए, संतों
के साथ मिलकर हरि का जश गाइए। तुलसीदास महाराज
को पत्नी ने डाट दिया। अँधेरी रात में - मैं मायके आई हूँ और तुम
अँधेरी रात में मेरे घर पहुच गए हो। कैसे पहुचे ? बोले
खिड़की खुली थी, रस्सी
बाँधी थी तूने – बोले मैंने तो रस्सी नहीं बाँधी। लालटेन
की बाट ऊँची करके देखी तो ओ बरसात के दिनों में सर्प – अजगर लटका था उसको रस्सी समझ कर
कूदा बंदा। पत्नी ने कहा मेरे से – मेरे हाड़ मांस के शरीर से मिलने के लिए तुम्हें इतनी धून चढ़ी के
साप है की रस्सी है पता नहीं चला और कूद के आ गए। हाड़-मांस
की देह मम ता में इतनी
प्रीती, याते आधी जो राम प्रति तो अबस मिटे भव बीती – इससे आधी जो भगवान के
प्रति प्रीती होती जितना मेरे
इस हड्डी के इस शरीर से तुम्हारी स्नेह है, प्रीती है उससे
आधी भी अगर ईश्वर से होती तो तुम्हारा
भव बीती – जन्म मरण का दुःख मिट जाता। तुलसीदास बोलते
है फिर से बोलो, पत्नी ने कहा “हाड़ मांस
की देह मम...” दो सीधे हड्डे है और बाकी के आडे हड्डे है, बीच
में माउस है, बीच में रग है माउस को बाँधने के
लिए नस नाड़िया है बीच में खाली जगह है, वहाँ
मल-मूत्र-विष्ठा है। नाक में खाली जगह है वहाँ लिट् है बाल
है, शरीर में रखा भी
क्या है। इस शरीर में इतनी मोहब्बत, ऐसा हड्डी-मांस-
मल-मूत्र-विष्ठा-थूक-लिट् गंदगी का थैला,
फिर भी प्यारा लग रहा है तो उस रब की हाजरी है, उस
परमात्मा की चेतना है उस नारायण की नारायणी शक्ति है।
मेरे शरीर में
इतना तुम्हें मोह है लेकिन शरीर जिससे ताजा तवाना और सुन्दर दिख रहा है वो
परमात्मा कितना सुन्दर
होगा। वो रब कितना आनंद स्वरुप होगा। इस
मेरे हड्डियों में तुम्हे आनंद दिख रहा है। अगर मैं मर जाऊँ तो हड्डियाँ तुम्हें आनंद नहीं
देगी। मैं बीमार पड जाऊँ लाचारी हालत में हो जाऊँ तो तुम पति होते हुए भी पराये हो जाओगे लेकिन मेरा परमात्मा
कभी पराया नहीं होता है, वो तुम्हारा भी है मेरा भी है। तुम
उसी में प्रीती करो। तुलसीदास
ने हाथ जोड़े के आज से तू मेरी पत्नी नहीं तू मेरी गुरुदेव है, जो
संसार से वैराग्य करा दे, काम विकार से वैराग्य करा दे, लोभ
मोह से वैराग्य करा दे वो तो परम हितेषी है लेकिन जो काम विकार में गिराएँ क्रोध लोभ में गिराएँ वो मित्र नहीं बड़ा बैरी
है। तुलसीदास को
पत्नी ने वैराग्य का उपदेश दिया तुलसीदास जंगल में गएँ। हे
भगवान मैं कामी हु कुटिल हु खल हु,
मैं संत तो नहीं बन सकता लेकिन संत के द्वार का तू मुझे दास बना देना
सेवक बना देना। फिर सोचते की सेवक बनने के लिए भी तो पुण्य चाहिए, मैं
संत का सेवक नहीं बन सकता हु तो कम से कम संत के द्वार की गौ बना देना ताकि मेरा दूध उनकी सेवा में आ
जाएँ देर सवेर मेरा कल्याण हो। फिर सोचते है की
संत के घर की गाय बनना ये कोई
मजाक की बात है कोई पुण्य आत्मा जिव होगा तब संत के द्वार गाय बन कर आएगा। मैं
तो पापी कामी कुटिल। साप
को रस्सी समझ कर पत्नी के हाड़ मॉस चाटने वाला बुद्धू सिंह। मैं
कैसे बन सकता हु संत के द्वार
की गाय। हे भगवान और नहीं तो संत साधु भक्त के घर का तू मुझे घोड़ा ही बना
देना, भक्त कथा सुनने या कथा
करने जायेगा मेरी पीठ पर बैठेगा, मेरी सेवा हो जाएगी। फिर
सोचते की संत के द्वार का घोड़ा बनना ये भी
कोई साधारण बात नहीं है। भगवान मैं कामी
कुटिल अधम, मैं घोड़ा न बन सकू तो कोई बात नहीं, कम से कम हे मेरे रब हे मेरे नारायण तू मुझे संत के
द्वार का कुत्ता ही बना देना। संत की निगाह
पड़ेगी देर सवेर कुत्ता का शरीर पूरा
होगा तो तेरे द्वार तक तो पहुचुंगा। उनकी निगाहे तो
पड़ेगी। भगवान कुत्ता क्यों बनाएं, घोड़ा क्यों
बनाये गाय क्यों बनाये
भगवान ने तो तुलसी को संत तुलसीदास बनाकर जगत को दिखा दिया। मैंने अगली बार अर्ज किया था की
श्रीमद्भाग्वद में कथा आई के ऋषभदेव के पुत्र भरत जिनके नाम से ये भारत देश, पहले इस देश का नाम था अजनाबखंड। भरत
राजा इतने पराक्रमी थे की उनके नाम से इस देश का नाम भारत पड़ा है और उन्होंने देखा की मैंने इतना
सवारा सुधारा लोगों को सुख सुविधायें दी और लोग तो रचे पचे रहे। मेरी जिन्दगी तो युही ख़त्म हो जाएगी। लोगों
की सेवा कर दी अब अपनी सेवा करू मैं। अपनी सेवा करने
के लिए वो बुद्धिमान राजा
साधु बन गए। गंदगी नदी के किनारे झोपड़ी बनाकर रहने
लगे, पूरा भारत देश दे दिया व्यवस्था
करने को। मर कर छोड़ना, जीते
जी छोड़ दिया। शास्त्र का रंग
कब लगा ? सत्संग का और शास्त्र का रंग लगा हो तो ये कैसे जाने ? उसका
माप दंड क्या है ? की जो जो संसार से
वैराग्य आये तो समझना के सत्संग का रंग लगा है, शास्त्र का रंग
लगा है।
सत्कर्म करने से वैराग्य आना चाहिए। संसार
की आसक्ति से। जो सत्कर्म है तो वैराग्य बढ़ेगा। अगर
कुकर्म है तो राग बढ़ेगा। राग दुःख का कारण है और वैराग्य सुख का
कारण है परमात्मा प्राप्ति का कारण है।
वो राजा भरत सम्राट झोपड़ी बांधकर अपना जीवन यापन करता है, कंद
मूल खाता है भगवान का (नाम) जप करता
है। ध्यान करता है। स्नान
करते समय सूर्य को अर्घ्य देता है। ॐ सूर्याय नम:, आरोग्य
प्रदाकाय नम:.. आदि आदि। जिससे
शरीर स्वस्थ रहता है और बुद्धि में शक्ति बढ़ती है। आप
जिस देवता की जैसी उपासना करते उसी
प्रकार के गुण आपके अन्दर आते है, जैसे धरती में
जैसा बीज डालते ऐसा ही फल-फूल वृक्ष आदि आता है। ऐसे
ही जैसे आप
जप-ध्यान करते है ऐसे ही आपकी योग्यतायें बढ़ती है। इतवार को सूर्य की विशेष उपासना करने
से वुद्धि शक्ति का विकाश होता है, सोमवार को शिव
की उपासना करो शिव तत्व जाग्रत
होता है। मंगलवार को मंगल मूर्ति हनुमानजी का ध्यान करने से बल बढ़ता है। और
बुधवार को देवी की उपासना
से देवत्व बढ़ता है। गुरुवार गुरुदेव का वार है। नास्ति
तत्वं गुरु परम। गुरुवार को गुरुदेव का ध्यान भजन उपासना करने से गुरु तत्व
जगता है और जीवन में बरकत आती है। शुक्रवार को आदि
शक्ति की उपासना और
शनिवार को फिर हनुमंत, रविवार को फिर सुर्यदेव। ऐसे
तो सब दिन सब देवो की पूजा होती है लेकिन
देवो का अपना अपना दिन विशेष करके लाभ देता है। ऐसे ही यात्रा में रघुवीर का सुमिरन
करने से यात्रा निर्विघ्न समाप्त होती है। आरोग्यता के लिए
अश्विनी कुमार का स्मरण करना
चाहिए और दुष्चरित्र से बचने के लिए भगवान दत्तात्रये का स्मरण करना चाहिए। और
ह्रदय में सुख शांति और आनंद
का प्रागट्य हो इसलिए भगवान और गुरु मंत्र और गुरुदेव का चिंतन करने से ह्रदय
आनंदित होता है। अहेतु
की और सुपर कृपा गुरुदेव करते है।
कुछ लोग ऐसे ऐसे मिलते है तो मुझे हंसी आती है। कुछ
आएंगे न बापू, बापू, ये हमारे फलने भाई है, इनको एकदम बढ़िया आशीर्वाद दो। मैं
क्या आशीर्वाद बढ़िया और घटिया। जय राम जी की। बापू
आने आमने बहुत सारा आशीर्वाद आपो। कोई
ने सारा आशीर्वाद तो कोई ने खोटा आशीर्वाद गुरु ने ऐ शिक्वाये न थी। कभी
कभी वो UP जाते, तो MP जाते
तो बापु इसको स्पेशल आशीर्वाद दो तो चालु और स्पेशल वो चाये होती हैं बादशाही चालू, आशीवार्द चालू-स्पेशल क्या होंगे ! इन आदमी की
अपनी हैबिट है (आदत है) जैसी लौकिक जगत में आदत है ऐसी फिर अध्यात्मिक जगत में भी बात करें आता है, हम
समझ जाते है, ठीक है बेचारा नया बंदा है। बापू मेरे को
आशीर्वाद चाहिए। कैसा
आशीर्वाद चाहिए ? के बढ़िया से बढ़िया चाहिए। मैंने कहा कौन
से नंबर का ! नारायण .... नारायण .... नारायण। तो
नारायण कवच धारण करने से बढ़िया से बढ़िया आशीर्वाद दिन भर रहता है।
नारायण का सुमिरन और नारायण कवच का
धारण मति की मंदता को दूर करता है। पाप-ताप बढ़ाने वाले जो दुष्ट विचार हैं उनको दूर रखता
है। जल ले लिया छिटक दिया अपने चारों तरफ। पहले
जल लिया, शुद्ध
जल, पहले नहा-धोकर शुद्ध वस्त्र पहने। शुद्ध
स्थान में बैठे, प्राणायाम आदि कर लिया,
भगवान-गुरुदेव का सुमिरन करके नारायण नाम का मानसिक जप करके जल में
देखें। फिर चहू ओर वो
जल छिटके। इससे नारायण तत्व विकसित होता है। जैसे धरती में मिट्टी में आपको शक्कर
नहीं दिखती, गन्ना नहीं दिखेगा। मिट्टी में आपको
गुड़ नहीं दिखेगा। मिट्टी
में आपको कपड़ा नहीं दिखेगा सूती, लेकिन ये सूती कपड़ा मिट्टी से आया है, मैं बिलकुल सच बोलता हूँ। जय
रामजी की। बच्चे को कह दो के ये मिट्टी में से आया है तो बोलेगा झूठ बोलते हो, नहीं
हो सकता। लेकिन जो समझता है इस साइंस को के कैसे मिट्टी से आया, काला थ्या, रुई हुई, फिर
ये हुआ, वो हुआ। तो जैसे मिट्टी से कपड़ा भी आता है, मिट्टी
से शक्कर भी आती है, मिट्टी
से गुड़ भी निकलता है, मिट्टी से तेल भी निकलता है। बोले
मिट्टी से तेल निकलता है तो लो
तेल निकाल के दिखाओ। तो नहीं निकलेगा। लेकिन
बुद्धिमान जानते हैं के मूंगफली, एरंडा आदि बुआई करो फिर तेल निकलता है। ऐसे ही तुम्हारे दिल से विश्व नेता
परमात्मा प्रकट हो सकता है। लेकिन कोई कहे
के चीरो, पकड़ो, फाड़ो, देखो
तो परमात्मा नहीं दिखेगा, खून दिखेगा, हड्डियाँ
दिखेंगी, नस-नाड़ियाँ दिखेंगी, मल-मूत्र दिखेगा। लेकिन साधन-भजन का प्रोसेस करो तो
परमात्मा भी निकलेगा और जीवात्मा भी। और विश्व नेता आनंद स्वरूप ब्रह्म का भी अंदर से
प्राकट्य हो जायेगा। जैसे
धरती से इन आँखों से नहीं देख सकते फिर भी
बुद्धि की आँखों से पता चलता है के धरती से बहुत सारी चीजें निकलती हैं। हम
लोगों का जीवन आधार धरती ही है और क्या है। धरती से ही सारी चीजे आती हैं। ऐसे
ही ये शरीर का जीवन आधार ये धरती है। धरती और
तुम्हारा जीवन आधार वो पर
ब्रह्म परमात्मा है अकाल पुरुष। आद सत, जुगात
सत, है भी सत, नानक होसी भी सत। ये शरीर नहीं था, तभी
भी वो था। शरीर है तभी है, और शरीर मर जायेगा तभी वो रहेगा। वो अकाल है, शरीर तो काल का
ग्रास होता है लेकिन परमात्मा अकाल है। उस अकाल पुरुष
का जिसको ज्ञान हुआ वो
विलक्ष्ण महात्मा हो जाता है। एक
महात्मा ऐसे होते हैं, रामकृष्ण परमहंस दृष्टान्त दिया करते
थे। नरेंद्र माना विवेकानंद को जब
आत्म साक्षात्कार हुआ है तो विवेकानंद ने कहा है अब क्या बोलना, कहाँ
जाना। अब तो जाता हूँ एकांत
में, समाधि लगाऊंगा हिमालय में, बस सदा के लिए, अब
लौटना नहीं। रामकृष्ण ने कहा सुन नरेंद्र एक कथा सुनाता हूँ। एक
साधू चलता-चलता हिमालय की उस सुंदर जगह पर, फूलों की घाटी पहुंचा। जहाँ
आजकल सरदारों का हेमकुंड है। उस इलाके में
फूलों की घाटी। मैं जाके आया। वो
फूलों की घाटी के
इलाके में पहुंचा एक साधू और सुंदर सुहावने फूलों की घाटी देखकर और सुंदर हवामान देखकर बैठते ही ध्यान लग जाये ऐसे
वातावरण में। वो पहले का जमाना था, अभी
बैठते ही ध्यान लगाना मुश्किल
है। gujrati । नारायण, नारायण, नारायण। तो
वो साधू वही बैठ गया समाधि गिरी गुफा
में। फिर दिखा ही नहीं। दूसरा साधू वहां
पहुंचा और देखा के कितने सुंदर-सुहावने फुल और
कितने बर्फ के ग्लैशियर और कितनी मधुर हवा ठंडी-ठंडी मन मोहक। और
मैं अकेला यहाँ पहुंचा हूँ। ना, ना
मैं अभी जाता हूँ, पीछे पैर लौटता हूँ और सबको बुला लाऊंगा। इतना
सुंदर-सुहावना जीवन। उधर
क्या पच-पच के मर रहे हो गर्मियों में। चलो इधर। वो
दूसरा साधू उलटे पैर लौटा और सबको
वहाँ ले गया। नरेंद्र वो
हिमालय और कहीं नहीं तेरा आत्म-परमात्म हिमालय में तू डूब मत। तू
उलटे पैर लौट और समाज
में भाग, गाँव-गाँव, गली-गली सत्संग कीर्तन-कथा करके सबको
उस अन्तर्यामी हिमालय तक
पहुँचाने का पुरुषार्थ कर। हिमालय
दोनों साधुओं ने देखा। एक तो उसी में खो गया, और
दूसरा डुबाने के लिए बाहर भागा आया। तू बाहर भाग जा। मेरे गुरुदेव रमण महर्षि से मिले। रमण
महर्षि से बातचीत हुई तो रमण महर्षि कहने लगे के लीलाशाहजी तुम्हारी इतनी ब्रह्मज्ञान
में ऊँचाई, इतनी समाधि की अवस्था, फिर तुम छोड़कर
गाँव-गाँव घूम रहे हो, ये
क्यों झंझट मोल लिया ? लीलाशाहजी ने कहा के मुझे लगा के मैं
अकेला क्या भोगूं, अकेला
क्या उस अकाल पुरुष के आनंद में डूबू ? लाखों लोग
बिचारे भटक रहे हैं रजोगुण-तमोगुण में। शोषक लोग उनका
शोषण कर रहे हैं। देश भर के कई लोग हैं ऐसे जो रास्ता
चाहते हैं, मठ-मन्दिरों में
चक्कर लगा के वैसे के वैसे वापस आते हैं। हृदय मन्दिर में
पहुँचाने वालें फकीरों की कमी है और
मुझे गुरु का प्रसाद मिला। तो मैं उसी में
डूबा रहूँ तो फिर और लोग हृदय मन्दिर में कैसे पहुंचेंगें ? इसीलिए मैं गाँव-गाँव घूम रहा हूँ, देश-देश
घूम रहा हूँ। बात तो सच्ची है। ऐसे देव ऋषि नारद गाँव-गाँव घूमते थे, देश-दश
घूमते थे। ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं दक्ष प्रजापति। और नारद भी ब्रह्माजी के मानस पुत्र
हैं। दक्ष प्रजापति पुत्र तो हैं लेकिन वो प्रवृति परायण पुत्र हैं। प्रवृति मार्ग वाले। और
नारदजी जानते हैं निवृति का सुख कैसा हैं। प्रजा उत्पति के
लिए दक्ष ने हर्शसव नाम के
पुत्रों को जन्म दिया। और उनको आज्ञा किया के जाओ तुम प्रजा
की उत्पति करो। संसार को चलाओ, संसार
को बढाओ। भागवत में कथा आती है के वे नारायण सरोवर में गये, स्नान, ध्यान आदि से वे पवित्र हुए। इतने
में देव ऋषि नारद वहाँ पहुंचे। देव ऋषि नारद ने
कहा के तुम इधर एकत्रित हुए
हो, नारायण सरोवर में स्नान किया। तुम क्या चाहते
हो ? उन्होंने कहा के हमें
संसार बढ़ाना है। नारद ने कहा के
मूर्खों धरती कितनी है और कैसी है उसका भी ज्ञान हासिल करो। फिर संसार बढाओ या पुत्र, परिवार
बढाओ। और इस धरती पर रहना है तो पहले धरती का ज्ञान, धरती जिसके आधार पर है पहले उसका ज्ञान
पाओ। धरती जल के आधार पर, जल तेज के आधार पर, तेज वायु के
आधार पर, वायु आकाश के आधार पर, आकाश प्रकृति के
आधार पर, प्रकृति परमात्मा
के आधार पर है मूर्खों। पहले परमात्मा का ज्ञान पा लो बाद में
ये सब झंझट बाज़ी करना। क्यों
मुसीबत मोल ले रहे हो उस संसार बढ़ाने से कोई फायदा नहीं। अंत
में ठन-ठन पाल होकर मरो, उस
के पहले सर्व का जो आधार है उसको पा लो फिर जो होगा देखा जायेगा। नारदजी की ज्ञान संयुक्त, विचार
संयुक्त वार्ता सुनकर उन हर्शसव नाम के दक्ष के पुत्रों को विवेक जगा के आखिर ये संसार बढाओ, संसार
बढाओ कब तक ? पहले तो संसार का जो आधार है उधर
जाने को। वे सब के सब विरक्त होकर भगवान नारायण
का अनुसंधान करके अपनी नारायणी विद्या
से नारायण तत्व को पा लिए। दक्ष प्रजापति
को पता चला की सब के सब बन गये साधू बाबा और
मुक्त हो गये तो ये मेरी चक्की कौन पिसेगा ? जय
रामजी की। सोचते-विचरते उन्होंने प्रचेताओं को उत्पन्न किया। नारदजी
ने उनको भी उपदेश देकर विरक्त बना दिया। उनको उपदेश दिया
ऐसी कौन सी स्त्री है के
दिन भर में हजारों रूप धारण करती है ? ऐसा कौन सा
पुरुष है जो ऐसी स्त्री का पति है, पुशचली
का पति है ? ऐसी कौन सी नदी है, एक ऐसा बिल है जहाँ से निकलने का
रास्ता मालूम नहीं। एक
ऐसी स्त्री है जो दिन भर में हजारों रूप धारण करती है। एक
ऐसा पुरुष है जो पुशचली का पति
है। एक ऐसी नदी है जो दोनों ओर बहती है। दाहें
भी बहे, बाएं भी बहे। एक ऐसा घर है जो
२५ तत्वों से बना
है और एक ऐसा हंस है जो चित्र-विचित्र कथा कहता, जहाँ चाहे वहां
भ्रमण करता है। लिंग शरीर को
मिटाने का ज्ञान नहीं तो जगत बनाने के झंझट में क्यों पड़ते हो ? प्रचेताओं
से प्रश्न किया। और
प्रचेताओं को उपदेश दिया के लिंग शरीर माना शुक्ष्म शरीर। ये
आपका स्थूल शरीर है इसके भीतर
शुक्ष्म शरीर है। उसको लिंग शरीर बोलते हैं। लिंग
शरीर मिटाने का ज्ञान नहीं पाया तो
जगत को बनाने के ज्ञान के झंझट में क्यों पड़ते हो ? लिंग
शरीर अर्थात वासनाओं का पुंज। वासनाओं
के पुंज को मिटाकर परमात्मा को पाने की कला नहीं पाई तो कीचड़ में गिरने की कला क्यों सिख रहे हो ? पहले, कीचड़
में गिरने के पहले, कीचड़ से बाहर आने की कला पा लो। कुँवें
में कूदते हो तो
बाहर आने की कला पा लो नहीं तो आत्महत्या करके प्रेत होकर मरोगे। प्रचेताओं ने कहा के एक बिल वह है
जिससे निकलने का पता नहीं वह बिल कौनसा है ? एक राष्ट्र है जिस में एक ही पुरुष है वो पुरुष कौन
है ? एक ही राष्ट्र और जिसमें एक ही पुरुष है वो पुरुष कौन है ? ये सवाल पूछा
नारद ने। एक ही बिल है जिसमें निकलने का रास्ता मालूम नहीं। एक
ही स्त्री है जो दिन भर में
हजार-हजार रूप धारण करती है। प्रचेताओं ने
कहा वह बुद्धि रूपी स्त्री है और दिन
में हजारों-हजारों रूप धारण करती है। एक
ही राष्ट्र अर्थात एक ही ब्रह्मांड और उसका पुरुष पर ब्रह्म परमात्मा है ये बात आपकी कृपा से मुझे
पता चल रही है। एक ही बिल है निकलने का रास्ता मालूम नहीं। वह
बिल कौन सा है ? वह अंतर कर्ण अवछिन बिल है, उससे निकलने का
रास्ता नहीं पता। एक ही नदी है जो
दोनों ओर बहती है। वह समय की धारा। एक
ही घर है जो २५ तत्वों से बना है।
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश
- ये ५, पाँचों के पांच-पांच मिलाकर २५ तत्वों का ये घर बना है। इसका ज्ञान जबतक प्राप्त नहीं हुआ और इस से
अलग होने का ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ तो हे मूर्खों प्रजा उत्पति करके, शादी-विवाह
करके झंझट मोल क्यों लेते हो ? कर्मों के बंधन में क्यों बंधते हो ? और जिन्दगी भर बैल की नाई गाडी
घसीटते-घसीटते मरोगे तभी भी कुछ ना कुछ बाकी रह जायेगा। जिन्दगी भर जवाई को दहेज देते रहो, जवाई
के बाप को रिझाते रहो फिर भी ना जाने किस समय वो रूठ जाये। और
रूठ ना जाये, राजी भी रहे तो क्या मौत से छुड़ाएगा ? हे मूर्खों !
सृष्टि के, दुनिया के काम-काज
में तो बड़े चतुर बनते हो लेकिन आत्म कल्याण तुम कब करोगे ? पहले
आत्म कल्याण करो बाद में
कीचड़ में कूदना। उन पुत्रों को भी वैराग्य लगा और वे हो
गये बाबाजी। जय रामजी की। नारदजी बड़े खुश
हुए।
जिस गुरु को भगवान के रास्ते जाने
वाला शिष्य मिल जाता है, ईमानदारी से ईश्वर के रास्ते चलता है तो गुरु प्रसन्न होता है के ये
मुक्त होगा। जैसा बाप बेटे को ग्रजुएट बनाकर निश्चिन्त हो जाता है ऐसे ही गुरु
उपदेश दे और शिष्य संसार से विरक्त होकर भगवान की तरफ चलता है तो गुरु को बड़ी प्रसन्नता
होती है, बड़ा आनंद आता है। एक शिष्य अगर ईमानदारी से ईश्वर की तरफ चलने लगा तो
देर-सवेर मुक्त हो जायेगा। और मुक्त हो गया तो चौरासी लाख माताओं की पीड़ा हरने का
पूण्य मिलेगा। नहीं तो जन्मेगा-मरेगा, चौरासी लाख माताओं को तो पीड़ा होगी। एक
जिव मुक्त हुआ तो इतनी पीड़ा तो घट गयी। एक आदमी को मोक्ष दिला दे तो चौरासी लाख
माताओं और चौरासी लाख पिताओं का झंझट कम
करने का सौभाग्य मिल गया उस फकीर को। ऐसे फकीर घुमा करते हैं के मिल जाये
कोई अधिकारी, मिल जाये कोई पात्र। फिर घड़ाई, इधर-उधर करते-करते देर-सवेर उनको
पहुंचने में, आशा रख-रखकर वो महापुरुष चलते रहते हैं।
दक्ष प्रजापति को पता चला के ये दुसरे बेटों को भी बाबाजी ने उपदेश
देकर बना दिया बाबाजी। दक्ष
नाराज हुए, क्रुद्ध हुए। महापुरुष क्रोध
से नहीं डरते, श्राप से नहीं डरते, निंदा से नहीं डरते, प्रसंशा
से लालाइत नहीं होते और निंदा से डरते नहीं क्योंकी वो समझते हैं के निंदा और क्रोध तो हमारी शांति और
प्रसन्नता की परीक्षा है। अथवा तो शांति
और प्रसन्नता बढ़ाने का अवसर
है। नारदजी को पता चला के दक्ष प्रजापति कुपायमान हुए। बड़ा
दक्ष है और व्यवहार में बड़ा
कुशल है और कुपायमान है। नारदजी गये नजदीक। कैसे
इसके होंठ फफडते हैं और क्या बोलता
है जरा देखें। जिसको जगत सच्चा लगता है उसका
थोडा-बहुत घाटा हो जाये तो प्रेषण ज्यादा होता है और जिसको जगत मिथ्या लगता है और रब
सच्चा लगे, उसको बड़ा घाटा हो, बड़ा फायदा हो फिर भी वो ज्यादा प्रभावित नहीं होता है। मैं तुमको मनुष्य मापने की एक प्राशिश
दे दूँ। जिनको मनुष्य का नाप
निकालना हो तो फुट पती से मत निकालना। जय
रामजी की। दुसरे मेजरमेंट से मत
निकालना। मैं देता हूँ एक आइडिया (idea)। बड़ा
आदमी है, छोटा आदमी है, उसको पहचानना हो तो आप उसको अच्छा लगे ऐसी वस्तु दो, या
ऐसी बात करो। तो वो कितना खुश होता है नोट करो, फिर उसे बुरा
लगे ऐसी वस्तु या ऐसी बात करो। फिर देखो कितना
दुखी होता है। जो अच्छी चीज या
अच्छी बात से ज्यादा सुखी होता है, अथवा उसको नहीं
चाहता है वो चीज आती है - वो
ज्यादा दुखी होता है, वो छोटा आदमी है। जो
दुःख के समय ज्यादा दुखी होता है
और सुख के समय ज्यादा सुखी होता है जो छोटा आदमी है। सुख
के समय ज्यादा सुखी नहीं, और
दुःख के समय ज्यादा दुखी नहीं, जितना कम-से- कम दुखी और सुखी होगा
उतना ही होनहार होगा
बच्चा और आगे चलकर बहतु काम करेगा। जरा-जरा बात में
सुखी-दुखी हो जाये, जरा-जरा
बात में भयभीत हो जाये, अशांत हो जाये, वो
आदमी जिन्दगी में कोई बरकत नहीं
कर सकता है। नारदजी
देखने गये के दक्ष तो है लेकिन कितना दक्ष है जरा देखें। होंठ
कैसे फफड रहे हैं और क्या-क्या
अंगारे उडेलता है जरा देखें। नारदजी गये। तुम्हारे
बेटों को मैंने झंझट से बचा दिया। बोला
रह्वा दे बाबा, रह्वा दे बुद्धो, डायो ठामा। दक्ष
तुम व्यवहार में तो दक्ष हो लेकिन
परमार्थ में तुम दक्ष नहीं हो। तुम्हारे
पुत्रों को मैंने दक्ष बना दिया असलियत में। तुम नकली में दक्ष हो और तुम्हारे बेटे
असली में दक्ष। नारदजी पर कुपायमान होकर दक्ष ने कहा के तुम धरती पे एक जगह ३ दिन नहीं रह
सकोगे। नारदजी चाहते तो उत्तर में श्राप दे सकते थे, लेकिन नारदजी ने
कहा ये तो और वरदान मिल गया। ज्यादा देर नहीं
ठहरूंगा, घूमता
फिरूंगा तो और भगती होगी और ज्यादा सत्संगी मिलेंगें, और
ज्यादा भगवान के रास्ते जाने
वाले मिलेंगें, ज्यादा अच्छी बात है।
गुरु नानक के जीवन में भी एक ऐसी बात आती है। के
किसी गावं से गुजरे तो गावं के लोगों
ने नानकजी को देखा। कुछ सामने देखा, कुछ
आदर-सत्कार नहीं किया। नानकजी ने तम्बू ताना, ठहरे। कोई
कथा नहीं सुने, कोई बाबा आया है, अरे बाबा आया, मुफ्त
का खाने वाला आया। नानकजी
वहां से १-२ दिन रुककर रवाना हुए और आशीर्वाद दिया भगवान करे एथे ही जमे रहो। इथे
ही जमे रहना। भगवान करे यहीं सुखी जमे रहना। आगे
चले, दुसरे कोई भक्त गावं
था। अरे संत आये, भाग्य हुआ - गुरु संत मिलाया, अविनाशी
प्रभु घर में मिलाया। अरे
भाग्य हुआ संतों का दर्शन हुआ, ये-वो। खूब
लोग सत्संग में आने लगे और जबतक
नानकजी सत्संग कर रहे हैं कोई उठ के जावे नहीं। सत्संग
से उठ के चले जाना मानो अपना भाग्य
बिखेर देना, अपना भाग्य नष्ट कर देना। तो ऐसा कोई
बेवकूफ ना मिले गावं में। सारे
के सारे बुद्धिमान। कथा चालू हो, संत
बोलते हो और उठके चल दे ऐसा एक भी
बेवकूफ ना मिला। सारे के सारे बुद्धिमान। सारे
के सारे स्थिर बैठे रहें। १ दिन, २
दिन, ५ दिन, १५
दिन, २५ दिन महाराज। नानकजी जब विदा
हो रहे तो लोग झर-झर आसूं बहाकर संत
को श्रद्धा-भक्ति से पत्रम-पुष्पम से जो कुछ सेवा-श्रद्धा से विदाई दे रहे हैं। लेकिन मानो उनका जी नहीं करता है के संत चले
जाएँ। जाते-जाते नानकजी ने दुआ दी के भगवान करे के तुम भटकते रहना। बाला
मर्दाना परेशान हो गये के गुरूजी ये क्या बोले तूसी ! गलती से बोल दिए क्या ? बोले
नहीं भगवान करे ये घूमते-फिरते रहें। एक जगह इनका पैर ही ना टिके। बाला
मर्दाना बोलता है जिन्होंने आदर-सत्कार नहीं किया उनको तो कहा भगवान करे तुम जमे रहना, यहीं
रहना। और जो तुम्हारा इतना सत्कार करते हैं उनको कहा के भगवान करे के तुम घूमते रहना। तुम्हारा
कहीं पैर ना टिके। बोले अच्छे लोग घूमते- फिरते रहेंगें तो अच्छाई का फैलाव
होगा। और दुष्ट लोग एक जगह जमे रहेंगें तो दुष्टता वहीँ रहेगी। वो
बिखरेगी नहीं। बढ़ेगी नहीं। नारायण, नारायण, .........। नारदजी बड़े प्रसन्न हुए के अब मैं
नारायण नाम का प्रचार-प्रसार और करूंगा, ज्यादा होगा। ब्रह्माजी ने देखा के लड़के पैदा किये
और लडकों को परिवार पैदा करने के लिए बोला और ये बाबाजी मिल गये, उनको
बहका दिया, साधू बना दिया। अब लड़कियों को
जन्म दूंगा और लड़कियों को तो
साधू नहीं बनाएगा। अगर लड़कियों को साधू बनाएगा तो बाबाजी
पे कलंक लगा ने में भी
आसानी होगा के बाबा लई गयो छोरियों ने ! कोई साधू के पास स्त्री रहे तो किसी भी प्रकार बदनामी हो सकती है, बना
सकते हैं। तो चलो अब लड़कियों को जन्म दें।
कथा कहती है के दक्ष प्रजापति ने ६० कन्याओं को जन्म दिया। आज
का आदमी संदेह कर सकता है लेकिन
आज की साइन्ज भी बताती है के एक बैल हजारों बैल और गायों को जन्म दे सकता है। जय
रामजी की - इंजेक्शन परम्परा से। तो पहले भी ऐसी
कुछ होगी व्यवस्था। हरि .... ॐ
.......। उँगलियों
की नौके ऊँगली से मिली रहें । शक्ति का संचार
हो ।नारायणी शक्ति का आव्हान करेंगें । हरि
.... ॐ .......।
Vidhi
दाए हाथ की
तीसरी ऊँगली, अनामिका से दूसरी छोटी
ऊँगली तिलक करने वाली, तिलक की जगह पर लगाये रखो । हल्की
सी रगड़ ॐ ...... नारायण, नारायण
ॐ.......... । भृकुटी
में ॐ कार का ध्यान करते जाओ । नारायण, नारायण ॐ.......... । इससे चमत्कारिक
लाभ होता है, बहुत रक्षा होती है । बहुत सुंदर
प्रयोग है । पूरा यकीन, पूरा विश्वास, पूरा
उत्साह और पूरी निर्भीकता । नारायण, नारायण
ॐ.......... । शांति और आनंद बढ़ता जायेगा । तनाव
पैदा करने वाली, अशांति पैदा करने वाली वृतियां, दुष्ट विचार भाग खड़े होंगें और देवत्व जगेगा । जैसे
दैत्यों को मार भगाने के लिए देवताओं को
नारायण कवच गुरु ने दिया था और देवता चमके थे । ऐसे ही आज समाज
में देवत्व चमकाने के लिए
नारायण कवच की बहुत आवश्यकता है । नारायण, नारायण
ॐ.......... । तुम्हारा हृदय तल्लीन होता जाये । तुम
भगवान श्री नारायण के - जो नर-नारी के दिल की
धड़कने चला रहा है, जो प्राणी मात्र का सुहृदय है, उसके
ध्यान में तल्लीन होते जाओ । ये नारायण कवच तुम्हारी रग-रग को पवित्रता
और बल का दान कर रहा है । तुम्हारा
आत्मबल, आरोग्य
बल, विचार बल, क्षमा बल, शौर्य
बल - ये सारे बल उससे विकसित होंगें । जैसे धरती से सारे पेड़-पौधे, फल-फुल
पनपते हैं ऐसे ही इस नारायण कवच से सारे सद्गुण तुम्हारे अंदर पनप रहे हैं - दृढ़ विश्वास करो । नारायण, नारायण
ॐ.......... । जल्दी
नहीं बोलेंगें, प्रेम से बोलेंगें
। नारायण, नारायण
ॐ.......... । मधुर
शांति में डूबता जायेंगें, नारायणी प्रसाद में तल्लीन होते जायेंगें । तुम्हारो
हृदय पावन थइ गयो छे । नारायण, नारायण
ॐ.......... । तुम्हारो चित मधुर थइ गयो छे । नारायण
कवच तुम्हारो हृदय नि रक्षा करने समर्थ छे ।
नारायण, नारायण ॐ.......... । नारायण
कवच धारण किया हुआ व्यक्ति किसी को छु दे तो
वो भी निर्भय हो सकता है । नहीं मानुषात श्रेष्ठ धर्म ही किंचित । मनुष्य से
श्रेष्ठ और प्राणी कोई नहीं और फिर नारायण कवच
धारण किया हुआ मनुष्य सचमुच में परम भाग्यशाली है । वैष्णवी
विद्या से दष्टा प्रजापति के पुत्र विश्वरूपा ने देवो में भी देवत्व शक्ति का संचार कर
दिया । हे
भगवान, हे वैष्णवी विद्या दैत्य-दानव युद्ध में, देव-दानव युद्ध में दानव जीत गये थे, देव
हार गये थे । वैष्णवी
विद्या से गुरु ने देवताओं में बल का संचार कर दिया ।
और देवता विजयी हुए ।
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